अनिल तिवारी मुंबई
राजनैतिक पंडितों का तो यह भी मानना है कि २०२४ की जीत सुनिश्चित करने के लिए भाजपा एक ओर जहां लोकसभा चुनाव जल्दी करवाकर ‘इंडिया’ को खड़े होने से पहले ही पछाड़ने की कूटनीति चलेगी तो वहीं दूसरी ओर साम-दाम-दंड-भेद की कूनीति से ‘इंडिया’ के घटक दलों को तोड़ने व विपक्ष को कमजोर करने की रणनीति पर जोर देगी। क्योंकि इस बार उसके लिए लड़ाई बेहद कठिन है या यूं कहें कि इस बार उसकी स्थिति ही बेहद कमजोर है, तो गलत नहीं होगा। पिछले चुनाव से उलट इस बार देश का तकरीबन पूरा विपक्ष ‘इंडिया’ के बैनर तले एकजुटता के साथ मजबूती से खड़ा है। वो भी २०१९ में भाजपा को मिले कुल वोटों से तकरीबन डेढ़ गुना अधिक वोट शेयर के साथ।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्षा ममता बनर्जी ने यह दावा करके राजनैतिक हलकों में हलचल मचा दी थी कि केंद्र सरकार इस साल दिसंबर तक लोकसभा चुनाव करा लेगी। दीदी से पहले भी ‘इंडिया’ के कई दिग्गज नेतागण यह संभावना जता चुके हैं। लिहाजा माना जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी इस विषय में जरूर कोई रणनीति बना ही रही होगी। वैसे भी प्रधानमंत्री मोदी के पास इसके अलावा ‘जीत’ का कोई विकल्प बचा नहीं है। परंतु क्या ये प्रयास भी भाजपा को संकट से निजात दिला पाएंगे?
अभी मुंबई में ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दलों की बैठक जारी है। सारा कुछ काफी सकारात्मक माहौल में चल रहा है। संभव है बहुत जल्द ‘इंडिया’ की एक प्रभावशाली चुनावी रणनीति देश में नजर आए। जिसके सामने भाजपा का प्रचारवाद, भ्रमवाद और भक्तवाद सभी कुछ धरा का धरा रह जाए। निश्चित ही यह भाजपा के लिए भेजा प्रâाई जैसी स्थिति होगी। इसी के चलते संभावना व्यक्त की जा रही है कि, जी-२० की बैठक खत्म होते ही भाजपा आलाकमान देश में लोकसभा के चुनावों को प्री-पोंड करने का दांव चल सकता है, ताकि ‘इंडिया’ को पर्याप्त समय न मिल सके। ५ राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ऐसा करना उसके लिए जरूरी भी हो गया है, क्योंकि मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में भाजपा की स्थिति काफी नाजुक है। यहां न तो उसके पास कोई चेहरा है, न ही जीत का कोई मंत्र। मणिपुर हिंसा के साइड इफेक्ट में उसका मिजोरम से हाथ धोना लगभग तय माना जा रहा है, जबकि तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) और कांग्रेस के बीच टक्कर होने से वो खुद-ब-खुद लड़ाई से बाहर हो चुकी है। बाकी बचे तीन राज्यों में से मध्य प्रदेश में आपसी कलह, बाहरी नेताओं को थोपना, निष्ठावान कार्यकर्ताओं की नाराजगी और सत्ता विरोधी लहर उसे हार की ओर ले जा रही है। जबकि राजस्थान में वसुंधरा राजे का कद छांटने व स्थानीय कार्यकर्ताओं को दरकिनार करने की नीति उसे दोबारा सत्ता से दूर रखने जा रही है। जहां तक सवाल छत्तीसगढ़ का है तो वहां बदले की राजनीति और कमजोर संगठन उसे निश्चित ही हार में धकेल रहा है। इसलिए ५ में से यदि ३ राज्य या ५ में से पांचों राज्य भाजपा हारती है तो लोकसभा चुनाव से पहले न केवल उसे अंदरूनी बगावत का सामना करना पड़ सकता है, बल्कि उसके कई घटक दल भी छिटक सकते हैं। उस पर मतदाताओं की सोच में भी भारी बदलाव उसे भयंकर मुसीबत में डाल सकता है। भाजपा यदि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव पोस्ट-पोंड करके उन्हें अगले साल अप्रैल-मई में लोकसभा चुनावों के साथ कराती है तो ‘इंडिया’ को अपनी तैयारियां करने का काफी समय मिलेगा। नतीजे में भाजपा का लोकसभा के साथ-साथ पांचों विधानसभाओं में भी सूपड़ा साफ हो जाएगा, जो भाजपा बिलकुल नहीं चाहेगी। ऐसे में उसकी योजना है कि दोनों चुनाव साथ लड़े जाएं वो भी प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर। २०२४ में जीत की संभावना तलाशने के लिए उसके पास केवल यही विकल्प शेष है, पांचों राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ प्री-पोंड करके लोकसभा चुनाव कराना। इसी साल दिसंबर तक। उसे लगता है कि ऐसा करके वो शायद विधानसभाओं के इस जम्बो सेमी फाइनल की संभावित हार के खामियाजे से लोकसभा के फाइनल को बचा सकेगी। हालांकि, सच्चाई तो यह है कि एंटी इंक्वेंसी पैâक्टर उसके लिए इस बार पिछली बार से भी ज्यादा घातक है। २०१९ के पुलवामा कांड के बाद उमड़ी जनभावनाओं जैसी कोई लहर भी उसे शायद ही आज की परिस्थितियों से उबार सके।
राजनैतिक पंडितों का तो यह भी मानना है कि २०२४ की जीत सुनिश्चित करने के लिए भाजपा एक ओर जहां लोकसभा चुनाव जल्दी करवाकर ‘इंडिया’ को खड़े होने से पहले ही पछाड़ने की कूटनीति चलेगी तो वहीं दूसरी ओर साम-दाम-दंड-भेद की कूनीति से ‘इंडिया’ के घटक दलों को तोड़ने व विपक्ष को कमजोर करने की रणनीति पर जोर देगी। क्योंकि इस बार उसके लिए लड़ाई बेहद कठिन है या यूं कहें कि इस बार उसकी स्थिति ही बेहद कमजोर है, तो गलत नहीं होगा। पिछले चुनाव से उलट इस बार देश का तकरीबन पूरा विपक्ष ‘इंडिया’ के बैनर तले एकजुटता के साथ मजबूती से खड़ा है। वो भी २०१९ में भाजपा को मिले कुल वोटों से तकरीबन डेढ़ गुना अधिक वोट शेयर के साथ। इससे साफ है कि सुश्री मायावती, नवीन पटनायक, जगनमोहन रेड्डी, औवेसी या किसी तीसरे पक्ष की अनुपस्थिति में ‘इंडिया’ के उम्मीदवार भाजपा प्रत्याशियों को चुनावी अखाड़े में जबरदस्त पटखनी देंगे। यह स्थिति भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण होगी। जैसी कि चर्चाएं हैं, हो सकता है कि उत्तर प्रदेश जैसे लोकसभा के लिहाज से सबसे बड़े राज्य में भाजपा के इशारे पर बसपा और औवेसी का गठबंधन नजर आ जाए, ताकि भाजपा वहां कुछ स्कोर अर्जित कर सके। खैर, भाजपा अपने इन चुनावी मंसूबों में कितनी सफल हो पाती है यह तो वक्त ही बताएगा! फिलहाल तो सितंबर से दिसंबर तक के १२० दिनों का ‘खेला’ उसके लिए किसी भी तरह से माफिक नजर नहीं आ रहा। क्योंकि जनता की नजरों में उसका काउंटडाउन तो पहले ही शुरू हो चुका है।