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पारेटिक्स: एमपी के मन में कौन?

मध्य प्रदेश में इस बार के विधानसभा चुनावों में एकदम अलग नजारा देखने को मिला, जिसमें बंपर वोटिंग ने कई सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और महिला वोटरों की यदि बात की जाए तो इस बार मतदान में उनकी भागीदारी बढ़-चढ़कर देखी गई। मध्य प्रदेश में ५ करोड़ ९८ लाख ३ हजार १३९ मतदाता हैं और इस बार मतदान ७७ प्रतिशत से ज्यादा हुआ है, जबकि २०१८ में ७५ प्रतिशत हुआ था। राजनैतिक विश्लेषक बता रहे हैं कि इस बार के अनोखे वोटिंग पैटर्न के कारण भाजपा और कांग्रेस के होश उड़े हुए दिख रहे हैं।
भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों ने अपने-अपने घोषणा पत्र में महिला वोटरों के लिए सम्मान राशि का वायदा किया है जबकि भाजपा ने तो पिछले दो महीनों में ‘लाडली बहना’ योजना के माध्यम से लगभग डेढ़ करोड़ महिलाओं के खाते में १,२५० रुपए की राशि भी जमा करवाई है। मध्य प्रदेश के इतिहास में यह अपने आप में अब तक की सबसे बड़ी योजना के तौर पर देखी गई है। यही नहीं, चुनाव जीतने पर इस राशि को ३,००० रुपए महीना किए जाने का प्रस्ताव भी है, वहीं कांग्रेस ने भी अपने घोषणा पत्र में नारी सम्मान योजना के तहत १,५०० रुपए महीना और ५०० रुपए में गैस सिलिंडर का वायदा किया है, तो वहीं भाजपा ने ४५० रुपए में गैस सिलिंडर के साथ ‘लाडली बहना आवास योजना’ की घोषणा कर डाली है। अब किसानों को लुभाने की बात की जाए तो फसलों के दामों पर भी दोनों दलों ने कोई भी कसर नही छोड़ी है।
विश्लेषक और राजनैतिक पंडितों को वोटिंग पैटर्न ने हैरान किया हुआ है। वो इसलिए कि मतदाता बिल्कुल खामोश दिखा और कुछ भी बोलने से बचता हुआ दिखा, जिससे दोनों दलों के माथे पर गहरे बल स्पष्ट दिखाई पड़ रहे हैं। एकतरफ यदि वोटिंग के प्रतिशत वाली थ्योरी पर बात की जाए तो इसमें दो थ्योरी प्रचलित है। पहली थ्योरी या धारणा ये है कि जब वोटों का प्रतिशत बढ़ता है तो भाजपा को लाभ मिलता है। दूसरी थ्योरी ये है कि जब जनता बंपर वोटिंग करती है तो अमूमन उसका इरादा सत्ता परिवर्तन का होता है। दोनों ही लिहाज से विश्लेषण करने पर कुछ बारीक तथ्य ऐसे हैं, जो इन दोनों ही धारणाओं पर सवालिया निशान खड़े करते हैं। क्योंकि २०१८ के चुनावों में भी बंपर वोटिंग का पैटर्न देखा गया था लेकिन स्पष्ट बहुमत किसी भी दल को नहीं मिला था। तो सवाल दूसरा ये भी है कि यदि सत्ता परिवर्तन की कोई लहर थी भी तो मतदाता का मुखर न होना और खुलकर न बोलना गले नहीं उतरता। इसके उलट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जनसभाओं में उमड़ी भीड़ भी कुछ और ही कहानी कहती है। कुछ जानकर बताते है कि दरअसल बंपर वोटिंग के प्रतिशत के आधार पर कयासबाजी करने से पहले ये भी विचार आवश्यक है कि पिछले कई चुनावों में मतदान को लेकर लोगों मे जनजागृति आई है और लोग जो शहर या देश से भी बाहर हैं, बड़ी संख्या में मतदान के लिए अपने शहर लौटते हैं। इसका एक और कारण भी है और वो है दिवाली का त्योहारी सीजन, जिसके कारण पश्चिमी मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों में कहीं-कहीं पर ९० प्रतिशत मतदान हुआ है क्योंकि गुजरात जानेवाले अप्रवासी मजदूर इस बार भी और २०१८ में भी दिवाली के त्योहारी सीजन में मत डालने के बाद ही अपने काम पर लौटे थे।
अब यदि बात की जाए ‘लाडली बहना’ योजना के प्रभाव की जिसे महिलाओं की बंपर वोटिंग से जोड़ कर देखा जा रहा है तो इतनी ही भीड़ २०१८ के मतदान के समय भी देखी गई थी, जिसमें कांग्रेस को ११४ सीटें मिली थीं। सत्ता के गलियारों में और बाकी हलकों में ये भी चर्चा है कि लाडली बहना जैसी योजना को लेकर हालांकि भाजपा अपना दावा मजबूत मान रही है, लेकिन ग्वालियर चंबल में कांग्रेस की स्थिति ज्यादा मजबूत है। इसके अलावा विंध्य और महाकौशल जैसे क्षेत्रो में कांटे की लड़ाई दिखाई पड़ रही है। मालवा निमाड़ में बागियों और भितरघात करनेवालों ने दोनों ही दलों की अच्छी खासी फजीहत की हुई है।
कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह से ज्योतिरादित्य सिंधिया को ग्वालियर और चंबल में घेरा है और पूरे प्रदेश में ग्रामीण मतदाताओं में परिवर्तन की इच्छा देखी गई है, वो प्रदेश में कमलनाथ की विजय निश्चित कर सकती है।
बहरहाल, सारे विश्लेषण यही बता रहे हैं कि १ प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा वोटों से ही सत्ता इधर-उधर होगी। हां, ये बात जरूर है कि जो भाजपा लगभग सत्ता की लड़ाई से दूर हो चुकी थी, वो आखिरी समय पर यानी ४५ दिनों की अवधि में ही मुख्य लड़ाई में वापस होती दिखी। ‘एमपी के मन मोदी जैसे नारों’ ने भी अपना असर दिखाया है और मोदी की गारंटी जैसे जुमलों ने यदि अपना काम किया तो भाजपा २३० सीटों में से ८० सीटों पर विजयी हो सकती है। इसके उलट कुछ ज्ञानी ये भी बता रहे हैं कि जिसकी भी सरकार आएगी, १३५ का स्पष्ट बहुमत लेकर आएगी। बहरहाल, चुनावी परिणामों के आने तक एमपी के मन में कौन है, इसकी थाह लेना इस बार तो थोड़ा मुश्किल ही नजर आता है।

प्रणव पारे
(लेखक मध्यप्रदेश की राजनीतिक पत्रकारिता में गहरी पकड़ रखते हैं, सामाजिक-आर्थिक विषयों पर लगातार काम करने के साथ कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेखन भी करते हैं।)

 

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