अगर सुलझे न जब कोई मुश्किल, खुद को रब से जोड़ लो
फिर जो होना हे, वो ‘रब’ पे छोड़ दो।
खुदा हमें वो नहीं देता, जो हमें अच्छा लगता हुआ
बल्कि खुदा हमें वो देता है, जो हमारे लिए अच्छा होता है।
फर्क होता है ‘खुदा और फकीर’ में
फर्क होता है ‘किस्मत और लकीर’ में
यदि कुछ चाहो और ना मिले, तो सोच लो
‘कुछ और अच्छा’ लिखा है तकदीर में।
मगर खुदा से कभी शिकायत मत करना
के वो हमारी ‘दुआ’ जल्दी नहीं सुनता है,
बल्कि शुक्र मनाओ कि वो हमारे गुनाहों की सजा
हमें जल्दी नहीं देता है…
दरअसल ‘वो’ हमें सुधरने का मौक़ा देता है
नेकी पर चलने की मोहलत देता है।
उस “मालिक” पर इल्जाम लगाना बेबुनियाद है।
मसलन कामयाबी की मंजिल को पाना है
तो मुश्किल में थमना नहीं, जीवन को चलाना है ।
चलना ही जिंदगी है, रुक गए जो हार मान कर,
तो समझो, मरने की तारीख से पहले ही ‘मौत’ है!
‘जीवन’ संघर्ष की बुनियाद पर टिका मिलता है
कदम कदम पर ‘जोखिम और जख्म भरी राहें’ मिलेंगी बहुतेरी,
सहर्ष, निर्विवाद, स्वीकार के चुनौतियों का सामना करना है।
किनारा हमसे मिलने से रहा
किनारे को छू लेने के उद्देश्य से हमें ही आगे बढ़ना है।
थक कर बैठ गया तो ‘पंछी प्यारे’ मंजिल कैसे पाएगा?
कब तक बैठा आंखें मुंदे, इस ‘देह रूपी पिंजरे’ के गुण गाएगा?
एक कोशिश नाकाम तो क्या? फिर उड़ने को खोल दे पर
आस्मां इतना भी ऊंचा नहीं है अपने हौसले पर यकीन तो कर
फिर देखना, बहार मुस्कुराएंगी हथेली पे तेरी
और खूब पहचानेगा तुझको तेरा शहर।
वास्तव में, “जीने का जज़्बा” कुछ ऐसा होना चाहिए
फिर देखना सफलता तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडराएगी।
-त्रिलोचन सिंह अरोरा