विमल मिश्र
जयपुर का ‘गुलाबी सौंदर्य’, दिल्ली के लुटियंस जोन का सौम्य आभिजात्य और चंडीगढ़ का सुगठित सौष्ठव अगर पूरी दुनिया में मशहूर है तो इसमें इन शहरों की पथ-सज्जा का सबसे बड़ा योगदान है। अपने सौंदर्य के लिए सबकी चाहत मुंबई इस मामले में पिछड़ा क्यों है?
मुंबई के स्ट्रीट फर्नीचर, यानी पथ-सज्जा को देखकर संभव है आपके दिमाग में भी कुछ सवाल उठे हों। सड़क अंधेरे में किस लिए है? बेंच टूटी-फूटी क्यों हैं? वॉश रूम ढूंढ़ने में इतनी देर क्यों लग रही है? कचरादान छलक क्यों रहा है? बस स्टॉप पर मुसाफिर कम, होर्डिंग क्यों ज्यादा दिख रहे हैं? जहां जाना है, उसे दर्शाने वाले स्ट्रीट मैप और साइनेज कहां छिप गए हैं?
‘मुंबई के नगर नियोजन में पथ-सज्जा उपेक्षित विषय है’, जाने-माने वास्तुकार पंकज जोशी बताते हैं कि दरअसल, जिस अर्बन डिजाइन रिसर्च इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक पंकज हैं उसने कोई डेढ़ दशक पहले राहुल मेहरोत्रा, वृंदा सोमैया, पी. के. दास जैसे विख्यात वास्तुविदों की मदद से मुंबई के विभिन्न क्षेत्रों के लिए संकेत चिह्नों से लेकर बेंच और बाड़ों तक-स्ट्रीट फर्नीचर वाली दो हैंडबुक्स बनाई थीं। इन्हें संबंधित मनपा अधिकारी बदलते ही ठंडे बस्ते में भेज दिया गया। इन हैंडबुक्स में कुछ की डिजाइनों का बाद में काला घोड़ा क्षेत्र में उपयोग किया गया।
जरूरी माना गया है कि स्ट्रीट फर्नीचर क्षेत्र विशेष की ऐतिहासिक संवेदनशीलता के अनुसार ही होना चाहिए। इसके लिए १९९८ में सबसे पहले आवाज उठाई थी जानी-मानी विरासत संरक्षण वास्तुकार आभा नारायण लांबा ने। उन्होंने डी. एन. रोड के १०० मीटर क्षेत्र के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट भी बनाया था, जिसे लागू करने में नागरिकों से लेकर दुकानदारों व बैंकों और जिंदल फाउंडेशन से लेकर एमएमआरडीए-सबने सहयोग दिया था। यूनेस्को ने इस पायलट प्रोजेक्ट को पुरस्कृत भी किया था।
आभा की सुझाई योजना से पहले मनपा महानगर के हर हिस्से में एक जैसा ही बंदोबस्त करती थी। मसलन, पेंग्विन के आकार की डस्टबिन आपके हर जगह मिल जाती थी। आभा अनुभव सुनाने लगीं, ‘महानगरपालिका ने पथ सज्जा के नियोजन और डिजाइन के लिए एक कमिटी बनाई थी। अतिरिक्त मनपा आयुक्त के रूप में आर. ए. राजीव को यह जिम्मेदारी दी गई थी। पर, उनके तबादले के बाद मामला अटक गया।’ इस कमिटी की सदस्य रह चुकीं आभा बताती हैं, ‘लंबाई में पैâला होने और ट्रैफिक की समस्याओं के कारण मुंबई में पथ-सज्जा का काम सरल नहीं है, फिर भी हमारा प्रयास एकरूपता बनाए रखने का होना चाहिए।’ वे बताती है, ‘दिल्ली के लुटियंस जोन के नयनाभिराम दिखने में पथ-सज्जा की एकरूपता का बड़ा योगदान है। जयपुर का आकर्षण इसी ने बढ़ाया है। चंडीगढ़ की खूबसूरती में भी इसका योगदान है। पर, मुंबई इसमें पिछड़ गया है।’
पथ-सज्जा के लिए एकरूपता के अलावा अनुकूलता एक दूसरी शर्त है। पर, मुंबई की पथ-सज्जा में इसकी पूरी तरह अवहेलना कर दी गई है। विरासतदानों का मानना है कि पथ-सज्जा सब कहीं एक जैसी नहीं जंचती। मसलन, मलबार हिल-जो हिल स्टेशन जैसा आभास देता है वहां वह पथ-सज्जा शोभा नहीं देगी, जो ईस्ट-इंडियन ईसाई रिहाइश वाले बांद्रा में होगी। पथ-सज्जा वही अच्छी मानी जाएगी, जो स्थान विशेष अलग पहचान को झलकाए और वहां के मूल स्थापत्य में मिल जाए। सही पथ-सज्जा नागरिक सुविधाएं देने के साथ शहर को आकर्षक तो बनाती ही है, सैलानियों और दूसरे राहगीरों को सही रास्ता दिखाने में भी सहायक होती है। इससे शहर की सकारात्मक छवि बनाने और अंतर्राष्ट्रीय छवि बनाने में भी मदद मिलती है। पथ-सज्जा किसी शहर के बुनियादी ढांचे का मुख्य अंग होती है।
शुरू ही नहीं हो पाई योजना
गड़बड़ी आखिर कहां हुई? दरअसल, कुछ वर्ष पहले मुंबई महानगरपालिका ने कंपनियों के सहयोग से मरीन ड्रॉइव, वर्ली सी-फेस, कार्टर रोड व महालक्ष्मी प्रॉमीनॉड और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर टेलिफोन बूथ, अखबार और सूचना बूथ, कियोस्क, बेंच, कचरादान, बिलबोर्ड, नियोन होर्डिंग, बोलार्ड लाइट्स, डिस्प्ले बोर्ड, रेलिंग्स, साइकिल स्टैंड, वगैरह लगाने की योजना बनाई थी। नगर के प्रमुख स्थानों और शौचालयों का संकेत देने वाले नक्शे लगाने की प्लानिंग भी थी। ‘पब्लिक आर्ट’ और पथ-सज्जाकारी इसका हिस्सा थी। बिजली की रोशनी, मूत्रालयों व शौचालयों का प्रावधान तो महानगरपालिका के मुख्य बजट खर्च का ही हिस्सा था। इन सुविधाओं के बदले संबंधित कंपनियों को इन स्थानों पर अपने विज्ञापन प्रदर्शित करने की अनुमति दी जानी थी। पर, पहले टेंडर आमंत्रित करने की प्रक्रिया और आमदनी के बंटवारे को लेकर हुए विवाद से योजना शुरू ही नहीं हो पाई। यह तब हुआ, जब उसे मुंबई हेरिटेज कंजर्वेशन कमिटी की ‘हां’ भी मिल गई थी। अब नई योजना डी वॉर्ड के मलबार हिल, ग्रांड रोड, ब्रीच वैंâडी और हाजी अली की सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण १०० जगहों पर ‘लीगेसी फ्लेक’ लगाने की है।
परियोजना से जुड़े एक पूर्व बीएमसी अधिकारी ने बताया, ‘अलग-अलग इलाकों के लिए अलग-अलग स्ट्रीट फर्नीचर होंगे-इसके साथ मुंबई के आठ जोनों में उसे स्थापित करने वालों के नाम भ्ाी लगभग तय कर लिए गए थे। ‘मरीन ड्रॉइव मेकओवर’ के तहत विक्टोरियन गोथिक शैली के कुछ स्ट्रीट फर्नीचर लगा भी दिए गए थे, जिसके चुनाव पर स्थानीय नागरिकों ने आपत्ति जाहिर की। मरीन ड्रॉइव की तरह की एक परीक्षण परियोजना बांद्रा-कुर्ला कांप्लेक्स में भी प्रयोग में लाई गई। पर, अदूरदर्शिता से मामला आगे नहीं बढ़ पाया। मसलन, योजना बनाने में बेस्ट स्टॉप को छोड़ देना-इन्हें विकास और रखरखाव के लिए निजी हाथों में सौंप दिया गया था। फुटपाथ की आदर्श चौड़ाई क्या हो इसकी भी ऐहतियात नहीं रखी गई। परिणाम वही हुआ जो होना था-योजना बढ़ने से पहले ही ठप हो गई।’ २०२३ में मुंबई की सड़कों पर २६३ करोड़ रुपए की स्ट्रीट फर्नीचर योजना को लेकर महानगरपालिका और विपक्ष के बीच तकरार बहुत तनाव का कारण रही। यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना ने टेंडर के जरिए महानगरपालिका और कांट्रेक्टरों के बीच मिलीभगत का आरोप लगाते हुए अदालत की शरण में जाने की धमकी तक दे डाली। आखिरकार, राज्य सरकार को यह योजना वापस लेनी पड़ी।
हर पांच सौ मीटर पर बदल जाती है पथ-सज्जा
स्ट्रीट फर्नीचर नगर नियोजन में बहुत ही उपेक्षित विषय है। इस लिहाज से मुंबई की स्थिति, पश्चिमी देशों से तो क्या तुलना करें? हम एशिया के अपने कुछ पड़ोसियों से भी तुलना करने लायक नहीं है। जाने-माने वास्तुकार और विख्यात अर्बन डिजाइन रिसर्च इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक पंकज जोशी ने बताया, ‘लगभग हर बड़े शहर के दो हिस्से होते हैं-पुराना शहर और नया शहर। नगर नियोजन में दोनों हिस्सों के लिए अलग-अलग प्रकार के स्ट्रीट फर्नीचर का प्रावधान किया जाता है। नगर सज्जा के लिए एकरूपता जरूरी होती है, पर मुंबई में आप देखो हर पांच सौ मीटर पर कहीं लकड़ी का, कहीं स्टील का तो कहीं प्लास्टिक का नया स्ट्रीट फर्नीचर मिल जाएगा। बस स्टॉप पर तो मुसाफिर कम होर्डिंग के ज्यादा दर्शन होंगे।’
जोशी ने इसकी वजह बताई, ‘दरअसल, मुंबई में कांट्रैेक्टर्स की लॉबी बहुत ताकतवर है। हमारे कर्णधारों को भी एकरूपता और गुणवत्ता का विचार गवारा नहीं है। क्योंकि इससे जिम्मेदारी तो बढ़ती ही है, कमाई पर भी असर पड़ता है।