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कविता: अदब-ओ-एहतराम

जो गायब हुआ अदब-ओ-एहतराम ढूंढ़ता हूं
मैं आदमी में ही कोई इंसान ढूंढ़ता हूं
गुम हुई जो मैं वो तहजीब तलाशता हूं
मिल जाए जिसमें मैं वो ईमान ढूंढ़ता हूं
एक वो भी खूब था वफा का दौर
उस वक्त के कदमों के निशान ढूंढ़ता हूं
शायद थोड़ी सी इंसानियत बची हो रही कहीं
एक उम्मीद लिए मैं वो मुकाम ढूंढ़ता हूं
कुछ नसीहतें ‘रुहानी’ हमने पढ़ी थीं स्फहों में
मैं खोये हुए उन हर्फों की ‘शान’ ढूंढ़ता हूं
वो मेरी शायरी चुरा ले गया त्रिलोचन
गम उठाकर मैं वो बेईमान ढूंढ़ता हूं
कुछ पत्थर चोट खाकर भगवान बन गए
उन पत्थरों में मैं बुतों का पैगाम ढूंढ़ता हूं
– त्रिलोचन सिंह अरोरा, नई मुंबई

रिश्ते
रिश्ते तो तह करके रख दिए हमने
कल के अखबार की तरह
कुछ चीख-चीख कर कुछ चुपचाप
हरेक अपना जमीर बेच रहा शाम के
अखबार की तरह
टूटी हुई असलियतों को जोड़ने
ऐ उम्मीद तू क्यों
चली आती है हर सुबह के
अखबार की तरह
इस तेज रफ्तार जिंदगी में
खुशी बन के रह गई
बस एक इतवार के
अखबार की तरह
इस अधपढ़े इतिहास का
बोझ कब तक उठाऊं मैं?
ऐ मौत! तू आके ले जा मुझे मुहल्ले के
अखबार की तरह
– डॉ. रवींद्र कुमार, दिल्ली

बदलाव
बदलाव हो रहा है
घर अब टूट रहा है
आंगन चीख रहा है
खप्पर भी रो रहा है
दीवारें सहमी सी हैं
मौन द्वार हो रहा है
खिड़कियां देखती हैं
पास कौन आ रहा है
छोड़ कोई जा रहा है
रिश्ता खत्म हो रहा है
गलतफहमी हो रही है
हकीकत भी लग रहा है
फूल व्याकुल हो रहा है
उद्यान सूखा जा रहा है
पक्षी प्यासे हैं कब से
पानी न कोई दे रहा है
कुआं भी सूखा पड़ा है
गांव भी शहर हो रहा है
नर-नर से दूर हो रहा है
बदलाव देखो हो रहा है
– प्रभात गौर, प्रयागराज (उ.प्र.)

समझे
मुमकिन है कि वो मुझको मुसाफिर समझे
वैसे आंखों में मेरे होता क्या है जाहिर समझे
समझ का फेर है जो हर तरफ फेरा है
खुद कि खातिर नहीं तो मेरे खातिर समझे
समझ की बात है कि समझदारी गुम है
मेरे खयाल को कहीं फिर से न काफिर समझे
मेरा जाना-सुना है ये जग सारा
कोई कह दो मुझे जमाने का माहिर समझे
गलतफहमी है कि मैं उसके दिल में नहीं
वो मुझे अपने दिल में हाजिर समझे
मैं चुपके से उसका दिल चुरा लाऊंगा
वो मुझे अब भी वही इश्क का शातिर समझे
– सिद्धार्थ गोरखपुरी

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