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सियासतनामा : सरकार का तोता

सैयद सलमान मुंबई

पूर्व मंत्री बाबा सिद्दीकी की हत्या ने महाराष्ट्र की राजनीति में हलचल मचा दी है। शरद पवार, भाई जगताप और प्रियंका चतुर्वेदी जैसे कई नेताओं ने इस घटना की निंदा करते हुए सुरक्षा में चूक के सरकार पर आरोप लगाए। हालांकि, एक हिंदी भाषी पूर्व सांसद ने सरकार का बचाव करते हुए शरद पवार की टिप्पणी पर सवाल उठाया। बजाय इसके कि कोई उनका पक्ष लेता, लोगों ने श्रीमान को गद्दार और न जाने क्या-क्या कहते हुए ट्रोल करना शुरू कर दिया। उनकी आलोचना करते हुए कहा गया कि जिस शरद पवार पर आप टिप्पणी कर रहे हैं, नरेंद्र मोदी सरेआम उन्हें अपना गुरु कह चुके हैं, तो क्या आप मोदी से बड़े हो गए? एक पूर्व मंत्री की हत्या पर अगर सरकार पर उंगलियां उठें तो गलत क्या है? इस से पहले भी अजीत पवार गुट के एक नेता की हत्या हो चुकी है। कारण जो भी रहे हों, इन हत्याओं से राज्य की कानून व्यवस्था पर सवाल तो उठेंगे ही। सरकार के पक्ष में बयानबाजियां करने वाले इन महाशय की स्थिति एक तोते जैसी हो गई है, जिसे जब-तब केवल बोलना है और अपने मालिकों को खुश रखने का प्रयास करना है।

ओवैसी की नसीहत
असदुद्दीन ओवैसी ने हाल ही में कांग्रेस को एक महत्वपूर्ण नसीहत दी है। उन्होंने कहा कि यदि कांग्रेस पार्टी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को हराना चाहती है तो उसे सभी को साथ लेकर चलने की आवश्यकता है। यह बयान ओवैसी ने हरियाणा विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के संदर्भ में दिया, जहां उन्होंने कांग्रेस की रणनीतियों पर सवाल उठाए हैं। धर्मनिरपेक्ष पार्टियां अक्सर उन पर आरोप लगाती हैं कि वे भाजपा विरोधी मतों में सेंध लगाकर भाजपा की मदद करते हैं। लोग तो उन्हें भाजपा की ‘बी’ टीम भी कहते हैं। इसी बात के सिरे को पकड़कर ओवैसी ने यह भी पूछा कि जब एमआईएम ने हरियाणा में कोई उम्मीदवार नहीं उतारा, तब भी कांग्रेस वैâसे हार गई? सवाल तकनीकी रूप से सही हो सकता है। लेकिन खुद ओवैसी गैर-भाजपा मोर्चे में शामिल होने की ऐसी शर्तें रख देते हैं कि मामला जम ही नहीं पाता। पहले ओवैसी को खुद अपनी रणनीति बदलने की जरूरत है। वैसे उनकी नसीहत इस बात का संकेत है कि भाजपा को हराने के लिए सहयोग, विश्वास और एकता की जरूरत कितनी महत्वपूर्ण है।

कटघरे में विश्वसनीयता
चुनावी नतीजों के बाद जम्मू-कश्मीर की सियासत में अब्दुल्ला परिवार, कांग्रेस और भाजपा की रणनीतियों में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिल रहे हैं। फारूक अब्दुल्ला ने घोषणा की है कि उनके बेटे उमर अब्दुल्ला अगले मुख्यमंत्री होंगे। यह अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी का नेतृत्व है, जो कश्मीर की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। उमर अब्दुल्ला ने केंद्र सरकार के साथ बेहतर समन्वय की आवश्यकता पर जोर दिया है। हालांकि, उन्होंने चुनाव कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था। यह चुनाव अनुच्छेद ३७० के निरस्त होने के बाद पहली बार हुए हैं। अब अगर उमर अब्दुल्ला भाजपा और मोदी की तारीफ करते रहते हैं तो उनकी विश्वसनीयता कटघरे में होगी, क्योंकि दोनों पिता-पुत्र ने ३७० को दोबारा लागू करने की बात कही थी। जाहिर सी बात है केंद्र की तरफ से इसका विरोध होगा। शायद अब्दुल्ला परिवार अपनी नजरबंदी के उस दौर को भूल गया, जब मोदी सरकार ने उनके सहित सभी विपक्षी नेताओं को उनके घरों में महीनों वैâद कर रखा था, लेकिन वह सियासत ही क्या जो चौंकाए नहीं।

अर्बन नक्सल बनाम आतंकवादी
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बीच तीखी बयानबाजी हुई है, जिसमें मोदी ने कांग्रेस को ‘अर्बन नक्सल’ करार दिया, जबकि खरगे ने भाजपा को ‘आतंकवादी पार्टी’ कहा। प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए कहा कि वह देश में अस्थिरता पैâलाने वाले तत्वों का समर्थन करती है। खरगे ने भाजपा पर लिंचिंग जैसी घटनाओं में शामिल होने और अनुसूचित जाति-जनजातियों पर अत्याचार करने का आरोप लगाया। इस प्रकार की बयानबाजियां देश की राजनीतिक छवि को मलिन करती हैं। यह केवल चुनावी लाभ के लिए किया गया खेल मात्र नहीं होता, बल्कि इससे समाज में गहरा असर पड़ता है। पीएम जैसे पद पर बैठा व्यक्ति अगर भाषा की शालीनता नहीं रखता तो विपक्ष से आखिर कैसे उम्मीद रखी जाए। सियासी बयानबाजियों के गिरते स्तर का समाज पर भी गहरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपनी बातों को अधिक संयमित और विचारशील तरीके से रखें, ताकि लोकतंत्र और सामाजिक ताने-बाने की रक्षा हो सके।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

 

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