द्विजेंद्र तिवारी मुंबई
पिछले दिनों कांग्रेस ने एक महत्वपूर्ण जानकारी सार्वजनिक की, जिस पर कोई चर्चा आगे नहीं बढ़ी। पार्टी ने दावा किया कि २०२१-२२ में जीएसटी राजस्व का लगभग ६४ प्रतिशत निचले पायदान की ५० प्रतिशत आबादी से आया, जबकि उच्च आय वर्ग के १० प्रतिशत द्वारा केवल ३ प्रतिशत का योगदान दिया गया। कांग्रेस के साथ यही दिक्कत है कि किसी मुद्दे पर पार्टी नेता ज्यादा समय तक टिके नहीं रहते। लेकिन कांग्रेस के इस मुद्दे पर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि देश अमीरों के टैक्स से नहीं चल रहा, बल्कि एक रुपए की माचिस की डिबिया खरीदने वाली करोड़ों की आबादी के टैक्स से चलता है।
एक आंकड़े के मुताबिक दिसंबर २०२२ में भारत के शीर्ष दस सबसे अमीर लोगों के पास ३८७ बिलियन डॉलर की संपत्ति थी, जो देश के जीडीपी का ११.१६ प्रतिशत था।
भारत की आबादी के शीर्ष १ प्रतिशत के पास देश की कुल संपत्ति का ४० प्रतिशत से अधिक हिस्सा है, जबकि निचले आय स्तर के ५० प्रतिशत के पास लगभग ३ प्रतिशत है। २०१३ से अमीरों के हाथों में धन का संग्रह बहुत अधिक नहीं बदला है। सबसे अमीर और उच्च आय वर्ग के १० प्रतिशत आबादी के पास भारत की कुल संपत्ति का ७२.५ प्रतिशत हिस्सा है।
आर्थिक विकास में आम आदमी की भूमिका
भारत अपनी विशाल आबादी और तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था के साथ आर्थिक असमानता की इस तरह की कठोर वास्तविकता का सामना कर रहा है। जबकि देश अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), बुनियादी ढांचे और कॉर्पोरेट क्षेत्रों में तेजी से वृद्धि देख रहा है। आम आदमी-मजदूर, किसान, छोटे व्यापारी और श्रमिक वर्ग-देश की आर्थिक नीतियों का खामियाजा भुगत रहे हैं। वास्तव में यह अक्सर आम आदमी ही होता है, जो विभिन्न करों के माध्यम से अर्थव्यवस्था में अनुपातहीन रूप से अधिक योगदान देता है, जबकि गरीबी और असुरक्षा के चक्र में फंसा रहता है। विडंबना यह है कि अर्थव्यवस्था को चलाने वाले वही लोग सबसे बड़ी कठिनाई का सामना करते हैं, जबकि कॉर्पोरेट और धनी अभिजात वर्ग काफी कम कर बोझ के साथ आर्थिक प्रणाली का लाभ उठाते हैं। कर संरचना में यह असंतुलन मुख्य रूप से एक ऐसी प्रतिगामी कर प्रणाली से उपजा है, जिसके कारण ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जहां गरीब और मध्यम वर्ग अपनी आय का अधिक हिस्सा करों में दे रहे हैं, जबकि अमीर वर्ग ऐसा नहीं कर रहा है।
निर्माण स्थलों पर काम करने वाले दिहाड़ी मजदूर से लेकर पड़ोस की दुकान चलाने वाले छोटे दुकानदार तक ये लोग भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि आम लोगों द्वारा दिया जाने वाला टैक्स योगदान भी महत्वपूर्ण है। अपनी अपेक्षाकृत कम आय के बावजूद वे जीएसटी के माध्यम से सरकार के खजाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। ये टैक्स उन वस्तुओं और सेवाओं पर लगाए जाते हैं, जिन्हें व्यक्ति अपनी आय की परवाह किए बिना खरीदता है। चाहे कोई व्यक्ति लक्जरी कार खरीद रहा हो या टूथपेस्ट जैसी बुनियादी जरूरत की चीज, जीएसटी की दर एक ही रहती है।
अमीर और कॉर्पोरेट योगदान: अनुपातहीन हिस्सा
भारत में कॉर्पोरेट और अमीर अभिजात वर्ग आर्थिक विकास के लाभों का आनंद लेने के बावजूद करों के लिए अपनी आय का काफी कम हिस्सा देते हैं। भारत में कॉर्पोरेट टैक्स की दर अधिकांश कंपनियों के लिए २२ प्रतिशत है और बड़ी कंपनियों के लिए २५ प्रतिशत है। हालांकि यह काफी अधिक लग सकता है, लेकिन यह आम आदमी द्वारा भुगतान की जाने वाली प्रभावी टैक्स दर से अभी भी बहुत कम है। खासकर जब आप इस बात पर विचार करते हैं कि कॉर्पोरेट अक्सर टैक्स छूट से लाभान्वित होते हैं। सबसे बड़ी बात कि उनके घर का साबुन, टूथपेस्ट, दाल आटा भी कंपनी के खर्चे में जाता है, जिसका लाभ उन्हें टैक्स में मिलता है।
इसके अलावा, भारत में सबसे अमीर व्यक्ति पूंजीगत लाभ, लक्जरी खरीद और विदेशी आय पर कम टैक्स दरों से लाभान्वित होते हैं, जिनमें से सभी पर कामकाजी वर्ग द्वारा भुगतान किए जाने वाले आयकर की तुलना में काफी कम दरों पर टैक्स लगाया जाता है।
इस स्थिति की विडंबना यह है कि जबकि आम आदमी अर्थव्यवस्था में इतना महत्वपूर्ण योगदान देता है, वही लोग सबसे बड़ी असुरक्षा का सामना करते हैं। अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, वे अक्सर खुद को उचित स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा या सामाजिक सुरक्षा तक पहुंच के बिना अभाव में जीते हैं।
एक प्रगतिशील कर व्यवस्था की आवश्यकता
कर योगदान और आर्थिक परिणामों में भारी असंतुलन को देखते हुए यह स्पष्ट है कि भारत की वर्तमान कर प्रणाली में पूरी तरह से बदलाव की आवश्यकता है। एक प्रगतिशील कर व्यवस्था समय की मांग है, जो अमीरों और कॉरपोरेट्स पर अधिक टैक्स लगाए और गरीबों पर बोझ कम करे। जीएसटी जैसे अप्रत्यक्ष करों को भोजन, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी आवश्यक वस्तुओं पर कम किया जाना चाहिए। कुछ दिनों पहले पॉपकॉर्न पर टैक्स बढ़ाने का मुद्दा खूब उछला था। इस तरह के अजीब टैक्स फरमानों से आम आदमी पर बेवजह बोझ बढ़ता है।
समाज के सबसे गरीब वर्गों के लिए यूनिवर्सल बेसिक इनकम या सीधे नकद हस्तांतरण शुरू करने से आर्थिक असमानता को कम करने और सबसे कमजोर लोगों के लिए सुरक्षा प्रदान करने में मदद मिलेगी। दुनिया के कई देशों में इससे मिलती-जुलती व्यवस्था लागू है। सरकार को स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसे कल्याण कार्यक्रमों को मजबूत करने पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि आर्थिक विकास का लाभ समाज के सबसे वंचित वर्गों तक पहुंचे।
(लेखक कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)