द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई
भारतीय वित्तीय क्षेत्र में हाल के वर्षों में जिस तरह के विवाद और आरोप उभरकर सामने आए हैं, उसने इस क्षेत्र की साख पर गहरा सवाल खड़ा कर दिया है। ताजा मामला है हिंडनबर्ग रिसर्च द्वारा सेबी (भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) की प्रमुख माधवी बुच पर लगाए गए गंभीर आरोपों का। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इन आरोपों पर मोदी सरकार की ओर से कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं आई है। इससे पहले भी अडानी समूह पर वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोप लगे थे, लेकिन सरकार ने उस पर भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं की।
अमेरिका के हिंडनबर्ग रिसर्च ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में आरोप लगाया है कि सेबी की चेयरपर्सन माधवी बुच और उनके पति ने बरमूडा और मॉरीशस में उन्हीं अज्ञात ऑफशोर फंड में गुप्त हिस्सेदारी रखी है, जिनका इस्तेमाल विनोद अडानी ने किया था। वैसे भी आजकल खूबसूरत मॉरीशस देश काले धन का केंद्र बनता जा रहा है। पहले सेंट किट्स, पनामा जैसे देश इस काम के लिए चर्चा में आ चुके हैं। भारतवंशियों की बहुलता वाले मॉरीशस देश के लिए भी यह आगे आने वाले संकट का कारण बन सकता है, जिस पर वहां की सरकार को ध्यान देने की जरूरत है। कांग्रेस ने केंद्र से ‘अडानी के खिलाफ सेबी की जांच के लिए तुरंत कार्रवाई करने’ का आह्वान किया और जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की स्थापना की मांग की।
आरोपों के मुताबिक, माधवी और धवल बुच की अडानी समूह की भ्रष्ट विदेशी कंपनियों में हिस्सेदारी है। गौतम के बड़े भाई विनोद अडानी ने इन विदेशी कंपनियों का इस्तेमाल फंड की हेराफेरी के लिए किया। इससे सेबी की निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं और अडानी समूह के खिलाफ कार्रवाई न किए जाने को संदिग्ध बताया गया है।
हिंडनबर्ग रिसर्च ने सेबी प्रमुख माधवी बुच पर जो आरोप लगाए हैं, वे बेहद गंभीर हैं। इन आरोपों में वित्तीय गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार से जुड़े कई मामले शामिल हैं। सेबी, जो कि देश के वित्तीय बाजार को नियंत्रित और नियमित करता है, उसकी प्रमुख पर ऐसे आरोप लगना न केवल संस्था की साख पर सवाल उठाता है, बल्कि पूरे वित्तीय क्षेत्र की विश्वसनीयता को भी कमजोर करता है।
भारत सरकार के वित्त मंत्रालय का इस पूरे मामले पर चुप रहना न केवल संदिग्ध है, बल्कि इससे यह संकेत भी मिलता है कि सरकार इन गंभीर आरोपों को नजरअंदाज कर रही है। मोदी सरकार की इस चुप्पी से यह सवाल उठता है कि क्या वाकई में सरकार वित्तीय अनियमितताओं के खिलाफ सख्त है या फिर वह अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों को साधने के लिए इन मामलों पर पर्दा डाल रही है?
अडानी समूह पर पहले भी वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लग चुके हैं। हिंडनबर्ग रिसर्च ने पहले भी अडानी समूह पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने अपने व्यापारिक लेन-देन में पारदर्शिता का अभाव रखा है और भारतीय कानूनों का उल्लंघन किया है। लेकिन सरकार ने इन आरोपों पर भी कोई कार्रवाई नहीं की। इससे यह संदेह और गहरा हो जाता है कि सरकार अडानी समूह जैसे बड़े कॉरपोरेट्स के खिलाफ कार्रवाई करने में संकोच कर रही है।
एक वर्ष से ज्यादा समय हो चुका है, जब अडानी समूह पर हिंडनबर्ग ने पहली बार आरोप लगाए थे। इन आरोपों पर कुछ तो कदम उठाए जाने चाहिए थे, ताकि लोगों का भरोसा सरकार और जांच एजेंसियों पर बना रहता। लेकिन जितनी भी शिकायतें आर्इं, उसमें से किसी पर भी कोई जांच या कार्रवाई नहीं हुई। ऐसा पहली बार हो रहा है कि इतने बड़े घोटाले के बाद भी सरकारी तंत्र का एक पत्ता भी नहीं हिला।
इन घटनाओं का सीधा प्रभाव भारतीय वित्तीय क्षेत्र की साख पर पड़ा है। जब शीर्ष संस्थाओं और उनके प्रमुखों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं और सरकार उन पर कार्रवाई करने से बचती है, तो इससे घरेलू और अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का भरोसा टूटता है। निवेशक जो कि भारतीय बाजार में निवेश करने के इच्छुक होते हैं, उन्हें यह लगता है कि यहां कानून का पालन नहीं हो रहा है और सरकारी संरक्षण में अनियमितताओं को बढ़ावा दिया जा रहा है। इससे भारतीय वित्तीय बाजार की साख को भारी नुकसान पहुंचता है और इसका दीर्घकालिक प्रभाव हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है। इन घटनाओं का सबसे बड़ा नुकसान आम आदमी को होता है। वित्तीय संस्थाओं की अनियमितताओं का सीधा असर बाजार में निवेश करने वाले छोटे निवेशकों पर पड़ता है। जब निवेशकों का भरोसा टूटता है, तो वे अपने निवेश को असुरक्षित मानकर बाजार से बाहर निकलने लगते हैं। इसका असर यह होता है कि बाजार में अस्थिरता बढ़ जाती है और इसका सबसे ज्यादा नुकसान उन छोटे निवेशकों को होता है, जो अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा बाजार में निवेश करते हैं।
इसके अलावा, वित्तीय अनियमितताओं के कारण अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। जब निवेशकों का भरोसा कम होता है, तो विदेशी निवेशक भी अपने निवेश को वापस खींचने लगते हैं। इससे अर्थव्यवस्था में धीमापन आता है और बेरोजगारी बढ़ने लगती है।
मोदी सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इन गंभीर आरोपों की निष्पक्ष जांच कराए और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे। सेबी जैसे महत्वपूर्ण संस्थान की साख को बनाए रखना न केवल सरकार के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए भी महत्वपूर्ण है। अगर सरकार इन आरोपों को नजरअंदाज करती है, तो इससे देश के वित्तीय क्षेत्र की साख को और भी गहरा नुकसान हो सकता है। अब समय आ गया है कि विदेशी संस्थाओं द्वारा लगाए जाने वाले आरोपों को सरकार गंभीरता से ले। सिर्फ विदेशी साजिश कहकर पल्ला झाड़ने से काम नहीं चलेगा। यह शुतुरमुर्गी सोच है। रोग पैâलने से पहले निदान जरूरी है। जरा सी भी उंगली उठे, तो उसका समाधान निकालने की प्रवृत्ति और मनोदशा होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो इसका दीर्घकालिक प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था और आम आदमी के जीवन पर पड़ सकता है, जिससे उबरना मुश्किल हो जाएगा।
(लेखक कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)