द्विजेंद्र तिवारी मुंबई
पिछले सप्ताह नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने गुजरात में एक जनसभा में महत्वपूर्ण बयान दिया। उनका कहना था कि जो आंदोलन आडवाणी जी ने शुरू किया था, जिसका केंद्र अयोध्या था, इंडिया अलायंस ने उस आंदोलन को अयोध्या में हरा दिया। उनके बयान का गूढ़ अर्थ यह है कि अयोध्या में सिर्फ भाजपा नहीं हारी है, एक पूरा आंदोलन वहां पराजित हुआ है। हार की कोई भी वजह बताई जा रही हो, पर कटु सत्य यही है कि जिस आंदोलन ने भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी बनाया, केंद्र में कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा समय तक सत्ता दी, उस आंदोलन के जन्मस्थल में ही भाजपा की पराजय हुई।
दरअसल, १९८४ के पहले राम मंदिर निर्माण कभी पार्टी के एजेंडे में था ही नहीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ १९२५ में बन चुका था। भारतीय जनसंघ १९५१ में अस्तित्व में आया और चुनाव लड़े गए। ६ अप्रैल १९८० को जब भाजपा की स्थापना हुई, तब लोकतंत्र, राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रवाद, सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता, गांधीवाद तथा साफ-सुथरी राजनीति ही उसके प्रमुख सिद्धांत थे। उसमें अयोध्या, मथुरा या काशी का कहीं जिक्र नहीं था। बल्कि भाजपा तो जब सत्ता में थी, तब भी मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग पर उसका रवैया ढुलमुल था। तब भाजपा नेताओं पर यह व्यंग्य कसा जाता था- ‘मंदिर वहीं बनाएंगे, तारीख नहीं बताएंगे’।
भारतीय जनता पार्टी ने १९८९ में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में हुए संकल्प शिविर में पहली बार अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का संकल्प लिया। इसके बाद दिसंबर १९८९ में हुए आम चुनाव में भाजपा ने राम मंदिर के निर्माण का विषय अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया। यह पहला मौका था, जब भाजपा ने खुलकर राम मंदिर पर राजनीतिक स्टैंड लिया। पार्टी को इसका फायदा भी मिला और १९८४ में दो सीट जीतने वाली भाजपा ने उस चुनाव में ८५ सीटें जीत लीं। भाजपा को राम मंदिर का मुद्दा लाभदायक दिखाई देने लगा और उस समय के पार्टी अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी ने सितंबर १९९० में रथयात्रा निकाली। आडवाणी जी ने देश का मूड भांप लिया था और एक नए तरह के राष्ट्रवाद का प्रयोग शुरू हो चुका था।
राम जन्मभूमि आंदोलन ने बिखरे हुए हिंदुओं को धर्म से जोड़कर इसे हिंदू राष्ट्रवाद के राजनीतिक आंदोलन में बदल दिया। १९८६ में शाहबानो मामले से राजनीतिक और धार्मिक माहौल गर्म था, जिसका नतीजा यह हुआ कि राम जन्मभूमि आंदोलन ने भारत में पहली बार हिंदू राष्ट्रवाद की भावना को जन्म दिया और पोषित किया।
आडवाणी जी की रथयात्रा ने भाजपा को एक ऐसा मंच दिया, जिससे भाजपा राष्ट्रीय पार्टी बन गई। उसके बाद तो पार्टी का राजनीतिक ग्राफ बढ़ता गया। १९९१ के मध्यावधि चुनाव में भाजपा ने १२० सीटें हासिल कीं जो १९८९ के ८५ के आंकड़े से ३५ सीटों का सीधा उछाल था। उसी वर्ष उत्तर प्रदेश में पार्टी पहली बार सत्ता में आई और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने।
इस तरह राम मंदिर आंदोलन से भाजपा को निरंतर लाभ मिला। ३५ वर्षों में इस एक आंदोलन से भाजपा को केंद्र में कई बार सरकारें बनाने का मौका मिला। राज्यों में सरकारें बनीं। लेकिन २२ जनवरी २०२४ को राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद उसी अयोध्या में पराजय से यह निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं कि अब भाजपा के इस आंदोलन की एक्सपायरी डेट आ गई है। राहुल गांधी के बयान ने यह बहस छेड़ दी है कि आखिर कब तक एक आंदोलन का दोहन करते हुए भाजपा को सत्ता मिलेगी।
भाजपा के लिए संकट यह भी है कि राम मंदिर आंदोलन और उससे निर्मित हिंदू राष्ट्रवाद की भावना के अलावा दिखाने या बताने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं है। तीस वर्ष से एक ही मुद्दे से सत्ता की मलाई खाते हुए अन्य किसी मुद्दे पर काम ही नहीं हुआ। पिछले दस वर्षों में तो ऐसा कोई काम नहीं हुआ, जिससे ऐसा लगे कि पिछली सरकारों से कुछ बेहतर हुआ है और सामान्य लोगों के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन हुआ है।
पांचवीं अर्थव्यवस्था बन जाने और तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की तैयारी का ढिंढोरा पीटने वाले यह नहीं बता पा रहे कि गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई क्यों बढ़ती जा रही है। चंद उद्योगपतियों की मार्वेâट वैâप और वैल्यू बढ़ने से अर्थव्यवस्था मजबूत होने का भ्रम पैदा हुआ। ऐसी स्थितियों में जीडीपी भी बढ़ता हुआ दिखता है। पर पूंजीपतियों की पूंजी बढ़ने से राष्ट्र कैसे मज़बूत होगा? भाजपा निजीकरण की अमेरिकी नीति की नक़ल कर रही है, जो देश के लिए हानिकारक है।
इसलिए यह समझना आवश्यक है कि भाजपा के पास राम मंदिर के अलावा कोई भी ऐसा विषय नहीं है, जिसके बल पर उन्हें लंबे समय तक देश की जनता चुनती रहे। एक सीधा सा सवाल किसी भी भाजपा नेता से पूछें कि भाजपा की अर्थनीति क्या है। उसके पास कोई जवाब नहीं होगा। मोदी जी की नोटबंदी इसका उदाहरण है कि भाजपा के पास अर्थनीति की कोई भी मूल अवधारणा नहीं है। किसी ने सलाह दी कि अमेरिका की तरह भारत में भी नोट १०० रुपए से ज्यादा के नहीं होने चाहिए, तो मोदी जी ने नोटबंदी ला दी। वे १०० रुपए से बड़ी नोट बंद करने की तैयारी में थे, पर नोटबंदी के भयावह दुष्परिणाम से उन्हें समझ में आ गया। पहले अमेरिका के १०० डॉलर की इंटरनेशनल वैल्यू देखो। उसके बराबर अपने रुपए की वैल्यू करो, तब जाकर शेखचिल्ली वाले ऐसे सपने देखो। अमेरिका में तो १९६९ तक दस हजार डॉलर की भी नोट चलती थी। डॉलर मजबूत होने लगा तब हजार, ५ हजार और १० हजार की नोटें रिटायर कर दी गर्इं। नकल से पहले अध्ययन, रिसर्च और चर्चा की जरूरत होती है, जिस पर ४ जून २०२४ से पहले मोदी जी को विश्वास ही नहीं था।
यही वजह है कि मोदी जी और उनकी मंडली न केवल बौखला गई है, बल्कि घबरा भी गई है। उनकी हालत उस विद्यार्थी की तरह हो गई है जो पढ़कर राम चरित मानस गया था, और सवाल आ गए महाभारत के। अयोध्या के नर-नारियों ने मोदी जी को सीख दे दी है कि अब सत्ता पाने के दूसरे आसरे ढूंढ़ो। विपक्षी नेताओं और दलों ने अयोध्या की आवाज सुनी और भाजपा के राम मंदिर के इस राजनीतिक आंदोलन को सरयू में समाधि दे दी है। भगवान राम की कथा युगों-युगों से चली आ रही है और आगे भी चलती रहेगी। भाजपा अब कोई और ठौर ढूंढ़ ले।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)