मुख्यपृष्ठस्तंभराज की बात : बहुत लुभावने नहीं हैं आर्थिक संकेत

राज की बात : बहुत लुभावने नहीं हैं आर्थिक संकेत

द्विजेंद्र तिवारी मुंबई

पिछले दिनों बजट में १२ लाख तक की आय कर मुक्त का ढोल बजाने में मस्त भाजपा और उनके भक्तों को भारत के आर्थिक सर्वे पर भी नजर डालनी चाहिए। कटु यथार्थ यह है कि कोविड महामारी के बाद राष्ट्र अब ठहराव के संकेतों से जूझ रहा है। शेयर बाजार लड़खड़ा रहे हैं, रुपया उम्मीद से ज्यादा तेजी से गिर रहा है और आर्थिक विकास के प्राथमिक चालक- घरेलू मांग और सार्वजनिक क्षेत्र के पूंजीगत व्यय (वैâपेक्स) लड़खड़ाते दिख रहे हैं। कहा यह जा रहा है कि टैक्स में १२ लाख की छूट घरेलू मांग को बढ़ाने के लिए दी गई है। इस तर्क का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है कि ज्यादा पैसा मिलने पर मध्य वर्ग ज्यादा खर्च करेगा।
मतलब यह कि हवाई सोच से सरकार अपनी नीतियां बना रही है। व्यवसायों को प्रोत्साहित करने के प्रचारित और कथित प्रयासों के बावजूद निजी निवेश ने वह गति नहीं पकड़ी है, जिसकी सरकार को उम्मीद थी।
ट्रंप की नीतियों के खतरे
वैश्विक व्यापार और कराधान पर ट्रंप सरकार ने भले ही पहली खेप में भारत को निशाने पर न रखा हो, पर उनका आक्रामक रुख स्थिति को और जटिल बना रहा है, जिससे भारत का आर्थिक भविष्य और भी अनिश्चित हो सकता है। वैश्वीकरण पीछे हट रहा है। जिस तरह माइग्रेशन विरोधी और नेशन फर्स्ट की आर्थिक नीति अमेरिका सहित कई देश बना रहे हैं, उससे भारी आबादी वाले भारत जैसे देशों के सामने विदेशी मुद्रा भंडार के कम होने का खतरा बढ़ रहा है।
इसी को ध्यान में रखकर सर्वेक्षण में इस बात पर जोर दिया गया है कि भारत को विकास को गति देने के लिए अपने घरेलू कारकों को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, न कि तेजी से कमजोर होते वैश्विक बाजार पर निर्भर रहना चाहिए। आर्थिक सर्वेक्षण ने चेतावनी दी है कि अगर देश को आवश्यक विदेशी निवेश आकर्षित करना है, जो उसके विकास पथ को फिर से जीवंत कर सकता है तो उसे प्रतिद्वंद्वी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने की आवश्यकता है।
जीडीपी की सुस्त रफ्तार
आर्थिक सर्वेक्षण ने अगले वित्त वर्ष के लिए भारत की जीडीपी वृद्धि का अनुमान ६.३ प्रतिशत से ६.८ प्रतिशत के बीच लगाया है, जो चालू वर्ष के लिए अनुमानित विकास दर ६.४ प्रतिशत से थोड़ा कम है। इस दर पर विकास पहली नजर में आशाजनक लग सकता है, लेकिन यह स्पष्ट है कि भारत की आर्थिक गति धीमी हो रही है और नई बाधाएं सामने आने लगी हैं। आर्थिक सर्वेक्षण के लेखकों ने इस बात पर जोर दिया है कि अगले दशक में ८ प्रतिशत वार्षिक वृद्धि से कम कुछ भी प्रधानमंत्री मोदी जी के २०४७ तक विकसित राष्ट्र बनने के प्रचारित सपने को हवा में उड़ा देगा।
आर्थिक सर्वेक्षण ने स्पष्ट रूप से चेतावनी दी है कि सामान्य रूप से व्यवसाय दृष्टिकोण केवल ठहराव की ओर ले जाएगा, इस बात पर जोर देते हुए कि राष्ट्र को विकास इंजन को चालू रखने के लिए जोर से धक्का लगाने की आवश्यकता है।
आर्थिक सर्वेक्षण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कड़े नियम-कायदे को समाप्त करने का आह्वान। इसमें तर्क दिया गया है कि हाल के वर्षों में किए गए सुधारों के बावजूद कई ऐसी अड़चनें व्यवसायों, विशेष रूप से छोटे और मध्यम आकार के उद्यमों (एसएमई) की विकास क्षमता में बाधा डालती हैं। सर्वेक्षण की दलील स्पष्ट है: सरकार को दूर हट जाना चाहिए और व्यवसायों को अत्यधिक विनियामक हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से कार्य करने की अनुमति देनी चाहिए।
शांति व्यवस्था की अहम भूमिका
सर्वेक्षण ने एक संवेदनशील मुद्दे को भी उठाया है, जो आमतौर पर किसी आर्थिक सर्वेक्षण में नहीं होता। इसके अनुसार, सरकार और उसके नागरिकों के साथ-साथ देश के विभिन्न समुदायों के बीच विश्वास की कमी को पाटना महत्वपूर्ण है। मतलब यह कि लोगों का सरकार पर भरोसा होना चाहिए। आम नागरिकों को यह लगना चाहिए कि सरकार जो कह रही है या कर रही है, उस पर उन्हें भरोसा है। इसके अलावा धार्मिक या सामाजिक तनाव विकास में बहुत बड़े बाधक हैं। समाज में बढ़ते धार्मिक विभेद और जातीय तनाव का सीधा असर बाजार पर पड़ता है। दुनिया के जिन देशों में आंतरिक अशांति है, वहां आर्थिक विकास ठप है। ताजा उदाहरण बांग्लादेश का सबके सामने है।
एसएमई पर फोकस जरूरी
आर्थिक सर्वेक्षण एसएमई को सशक्त बनाने की आवश्यकता पर भी ध्यान केंद्रित करता है। ये व्यवसाय भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, जो लाखों लोगों को रोजगार देते हैं और जीडीपी में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। फिर भी वे अक्सर पूंजी तक सीमित पहुंच, पुराने बुनियादी ढांचे और अत्यधिक विनियामक बोझ से जूझते हैं। यदि सरकार विकास को बढ़ावा देना चाहती है तो उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि एसएमई को सफल होने के लिए आवश्यक सुविधाएं प्रदान की जाएं। इसमें वित्त तक पहुंच में सुधार, विनियमन को सुव्यवस्थित करना और एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाना शामिल है, जहां छोटे उद्यमी बड़े-बड़े कॉर्पोरेट के साथ-साथ फल-फूल सके।
प्रतिस्पर्धा में आगे रहने की जरूरत
आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि भारत को अपनी घरेलू ताकत पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उन प्रतिद्वंद्वी बाजारों (देशों) के खिलाफ प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त बनानी चाहिए, जो समान विदेशी निवेश आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। अपनी गति को बनाए रखने के लिए भारत को इस बदलती वैश्विक व्यवस्था में सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना होगा तथा अपने बड़े उपभोक्ता आधार, कुशल श्रम और बढ़ते मध्यम वर्ग का लाभ उठाते हुए वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बनना होगा।
विदेशी निवेश के प्रति भारत के दृष्टिकोण में सुधार की आवश्यकता है, जबकि देश अंतरराष्ट्रीय पूंजी के लिए एक आकर्षक गंतव्य बना हुआ है, इसे निवेशकों के लिए बाजार में प्रवेश करना आसान बनाने के लिए अपनी प्रक्रियाओं को भी सुव्यवस्थित करना होगा। सर्वेक्षण में बेहतर विनियामक ढांचे के लिए अपील की गई है, विशेष रूप से विनिर्माण और सर्विसेज जैसे क्षेत्रों में विदेशी और घरेलू उद्यमियों के लिए अधिक आकर्षक निवेश माहौल बनाने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है।

(लेखक कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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