द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी पार्टी और उनके सहयोगी दलों के नेता अजीबोगरीब काम कर रहे हैं। पिछले सप्ताह पेश महाराष्ट्र के बजट को ही लें। महाराष्ट्र के लिए बजट २०२४ पेश करते हुए उपमुख्यमंत्री और राज्य के वित्त मंत्री अजीत पवार ने घोषणा की कि सरकार र्इंधन पर वैट में कटौती करेगी, जिससे पेट्रोल ६५ पैसे प्रति लीटर सस्ता हो जाएगा। अब जरा हिसाब लगाइए। अगर आप अपनी बाइक में ५०० रुपए का पेट्रोल डालेंगे तो आपको ३ रुपए की छूट मिलेगी। इतने में तो कटिंग चाय भी नहीं आती। इस पर हफीज जालंधरी का शेर सुन लें-
हमसे ये बार-ए-लुत्फ उठाया न जाएगा
एहसान ये कीजिए कि ये एहसान न कीजिए।
विकास और जनकल्याण के इस मोदी मॉडल की पोल पूरे देश में खुल रही है। कहीं सड़क लापता हो रही है तो कहीं रेलें पटरी से उतरकर जमीन पर दौड़ने लग रही हैं। उधर अयोध्या में सड़क पर नाव चल रही है और दिल्ली, जबलपुर व मोदी जी के गुजरात में वडोदरा एयरपोर्ट की छतें उड़ रही हैं। लोगों की जानें जा रही हैं, पर केंद्र सरकार को गड़े मुर्दे उखाड़ने से फुर्सत नहीं है। लोकसभा अध्यक्ष महोदय इमरजेंसी पर निंदा प्रस्ताव रखते पाए गए। मतलब यह कि सड़क पर नाव चले या पहाड़ टूटे, मोदी सरकार को अपना एजेंडा चलाना है। पचास वर्ष बाद इमरजेंसी पर निंदा प्रस्ताव का क्या औचित्य? जनता ने उसी वक्त इमरजेंसी के विरोध में अपना पैâसला सुना दिया था। उस घटना के बाद एक पूरी पीढ़ी गुजर गई है। किसे याद है इमरजेंसी और क्या हुआ था तब? यह हार की बौखलाहट का एक उदाहरण है।
हारने के बाद भी मोदी जी और उनकी पार्टी अपने ग़ुरूर को कम करना या पूरी तरह से त्यागना नहीं चाहते हैं। जनादेश अस्थायी होता है और मतदाताओं को हल्के में नहीं ले सकते। २०१४ में भाजपा की जीत ने पार्टी में यह दंभ भर दिया था कि विपक्ष उसका मुकाबला नहीं कर सकता। ४०० पार का नारा या आइडिया किसने दिया, यह शोध का विषय है। ‘दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है’ की लाइनें इस पर फिट बैठती हैं। रणनीतिक रूप से मोदी जी और उनके तथाकथित चाणक्य अमित शाह को राहुल गांधी ने ध्वस्त कर दिया। राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष दलितों और ओबीसी को उनके संवैधानिक अधिकारों को बचाने के मुद्दे पर लामबंद हुआ। विपक्ष के इस अभियान का मुकाबला भाजपा नहीं कर पाई। पैâजाबाद के पराजित भाजपा सांसद लल्लू सिंह और उनकी तरह के बड़बोले नेताओं ने विपक्ष की राह आसान कर दी।
वैâसर-उल जाफरी ने गुरूर पर लिखा है-
जमीं पे टूट के वैâसे गिरा गुरूर उस का
अभी-अभी तो उसे आसमां पे देखा था।
समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने से चुनावी अभियान सफल नहीं होते। भाजपा ने आरक्षण के मुद्दे पर कमजोर सामाजिक व आर्थिक स्थिति वाले हिंदू समुदायों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की, जो नाकाम रहा। भाजपा के अस्तित्व के लिए यह खतरे की घंटी है कि हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग उसके मुस्लिम विरोधी अभियान के प्रति उदासीन रहा। भाजपा की ध्रुवीकरण की रणनीति क्यों फेल हुई? ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब पार्टी खोज रही है, लेकिन सब कुछ साफ नजर आने के बावजूद भाजपा को समस्या के निदान की तरकीब नहीं सूझ रही।
इसी मुद्दे पर शायर बशीर बद्र लिखते हैं…
सात संदूकों में भर कर दफ्न कर दो नफरतें
आज इंसान को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत।
कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी ने एक अखबार में लिखे लेख में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशा पर गहरे सवाल उठाए हैं। मोदी जी बात सामंजस्य की करते हैं, पर रास्ता टकराव का अपनाते हैं। इस बात के कोई संकेत नहीं दिखते कि मोदी जी ने वर्तमान जनादेश को समझा है। वे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, जैसे कुछ बदला ही नहीं है।
सोनिया गांधी के इस लेख से पता चलता है कि पराजय के क्षोभ और आक्रोश से मोदी जी भरे हुए हैं। इससे पहले सत्ता और विपक्ष में ऐसी तल्खी कभी नहीं देखी गई। राहुल गांधी की संसद सदस्यता खत्म करना इसी तल्खी का एक रूप था। ऐसे टकराव से देश के मुद्दों पर सार्थक बहस होना कठिन लगता है। गहन मानसिक अवसाद से गुजर रहे मोदी जी शायद ही विपक्ष के साथ तालमेल रख पाएं। एक तरफ संसद में तगड़ा विपक्ष तो दूसरी तरफ देश में समस्याओं का अंबार। लगता नहीं कि मोदी जी इसे झेल पाएंगे।
मोदी जी को यह समझना होगा कि अब महंगाई और बेरोजगारी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। गांव से लेकर शहर तक युवा बेरोजगारी से परेशान हैं। केवल मुफ्त राशन देने से लोगों का जीवन नहीं सुधर सकता है और न ही इससे वोट मिलते हैं। ऐसे उपाय पर्याप्त नहीं होते हैं।
युवा मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग रोजगार के मुद्दे पर भाजपा की नाकामी को सबसे बड़ा जिम्मेदार मानता है। अग्निपथ योजना ने ग्रामीण युवाओं में भारी असंतोष पैदा किया है, जो सशस्त्र बलों को सम्मानजनक जीवन और दीर्घकालिक रोजगार पैदा करने के साधन के रूप में देखते हैं। विपक्ष को इस असंतोष और नौकरी की असुरक्षा का फायदा मिला। पेपर लीक ने भी सरकार की छवि को नुकसान पहुंचाया है और लाखों मतदाताओं को निराश किया है। मोदी जी २०१४ से ही हर चीज की कमान अपने पास रखे हुए हैं। केंद्रीय मंत्रियों से लेकर विधायकों और सांसदों को अपनी सरकार होते हुए भी उतने अधिकार नहीं प्राप्त हैं, जितने आमतौर पर होते हैं। मोदी पर अत्यधिक निर्भरता के कारण निर्वाचित प्रतिनिधि निष्क्रिय हो गए और क्षेत्र में अपना समर्थन आधार खो बैठे।
मोदी जी अपने व्यावसायिक मित्रों के लिए हमेशा मुफीद रहे हैं। उनके उद्योगपति साथियों को लेकर राहुल गांधी सहित पूरा विपक्ष हमलावर रहा है। जिस तरह से इन उद्योगपतियों की झोली में सार्वजनिक उपक्रम जा रहे हैं, उससे यह शेर सटीक बैठता है-
ये जमीं बिक चुकी आसमां बिक चुका है
अब हवा-धूप-पानी खरीदेंगे हम।
वह दिन दूर नहीं जब मोदी जी के ये पूंजीपति मित्र सांस लेने पर भी टैक्स लगाने की नौबत न ला दें।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)