मुख्यपृष्ठस्तंभराज की बात : जरूरी हैं गरीबी और असमानता को दूर करनेवाली...

राज की बात : जरूरी हैं गरीबी और असमानता को दूर करनेवाली योजनाएं

द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई

पिछले कुछ समय से केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जन कल्याण के लिए लोगों के बैंक खातों में सीधे पैसा जमा कराने की घोषणाओं और योजनाओं पर पूरी दुनिया का ध्यान गया है। किसानों को हर महीने ५०० रुपए देने की योजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लागू की है। उनकी यह योजना मुख्यमंत्री रहे चंद्रशेखर राव से प्रेरित है। राव सरकार ने तेलंगाना में प्रतिवर्ष प्रति एकड़ किसानों को १० हजार रुपए ‘रायथु बंधु योजना’ के तहत देना शुरू किया था, जिसकी पूरी दुनिया में चर्चा हुई (परंतु उन्हें इसका कोई राजनैतिक फायदा पिछले वर्ष हुए चुनाव में नहीं मिला और कांग्रेस ने उन्हें हरा दिया।)
पिछले दिनों दो राज्य सरकारों ने भी महत्वपूर्ण घोषणाएं की हैं। दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने १८ वर्ष उम्र से ऊपर की लड़कियों और महिलाओं को एक हजार रुपए प्रतिमाह देने की घोषणा की है। इसी तरह हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने प्रतिमाह डेढ़ हजार रुपए महिलाओं को देने की घोषणा की है। ये योजनाएं उन सभी महिलाओं के लिए हैं, जिनकी आय का कोई स्रोत नहीं है। इससे यह नई बहस शुरू हो गई है कि अगर इन योजनाओं को ईमानदारी पूर्वक महिलाओं पर लागू किया जाए तो कुल आबादी का लगभग ३५-४० प्रतिशत कवर हो जाता है तो इसे विस्तार देकर १०० प्रतिशत आबादी यानी नर एवं नारी दोनों के लिए क्यों नहीं लागू किया जा सकता? इससे कुल रकम मुश्किल से ढाई या ३ गुना ही होगी। दुनिया के कई विकसित देशों में अलग-अलग समूहों के लिए योजनाएं हैं- जैसे बेरोजगार युवक अथवा आय विहीन वृद्ध व्यक्ति के लिए पेंशन। हमारे देश में भी विधवा पेंशन, बुजुर्ग पेंशन, मुफ्त राशन, महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा जैसी तमाम योजनाएं हैं।
पर लंबे समय से जिस यूनिवर्सल बेसिक इनकम की चर्चा होती रही है, उस पर दुनिया के किसी भी देश ने कदम आगे बढ़ाने की हिम्मत नहीं की है। यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) एक सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम है, जो सभी नागरिकों को उनकी कमाई या नौकरी की स्थिति की परवाह किए बिना एक निर्धारित राशि प्रदान करता है।
हाल के दशकों में यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) की अवधारणा ने भारत में लोकप्रियता हासिल की है। यूबीआई के तहत समाज के सबसे कमजोर नागरिकों के लिए एक सहायता प्रणाली के रूप में कार्य करना है, जिसमें गरीब और बेरोजगार शामिल हैं। इसे कम आय वाले समूहों के बीच बढ़ती आय असमानताओं को दूर करने और डिस्पोजेबल आय में सुधार करके आर्थिक विकास को बढ़ावा देने का प्रयास करने का एक साधन भी माना जाता है।
भारत के लिए अलग-अलग तरह के यूबीआई ढांचे की परिकल्पना की जा रही है। एक वर्ग का कहना है कि यूबीआई का आधार गरीबी और बेरोजगारी होना चाहिए। यूबीआई को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) जैसी कुछ अन्य कल्याणकारी योजनाओं से जोड़ने का विचार किया जा सकता है, ताकि केवल कमजोर आर्थिक वर्ग के लोग ही इस तरह की योजना का लाभ उठा सकें तो एक वर्ग किसी भी तरह के भेद विभेद को न मानकर प्रत्येक नागरिक के लिए एक विशिष्ट राशि निर्धारित करने का पक्षधर है।
कुछ लोग दावा करते हैं कि भारत जैसे देश में जहां प्रशासन पहले से ही मौजूदा खर्चों को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है, यूबीआई आर्थिक रूप से टिकाऊ नहीं हो सकता है। कई लोगों ने पहले ही चिंता जताई है कि यूबीआई कार्यशीलता को बाधित कर सकता है और लाभार्थियों के बीच सरकार पर आर्थिक निर्भरता की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित कर सकता है।
२०१६ में भारत के आर्थिक सर्वेक्षण द्वारा प्रस्तुत ‘बेसिक इनकम सपोर्ट’ कार्यक्रम भारत में यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) योजना का ही एक रूप था। कार्यक्रम में ७५ प्रतिशत गरीब परिवारों को सालाना ७,६२० रुपए देने का प्रस्ताव पेश किया गया था। कार्यक्रम का उद्देश्य उच्च उपभोक्ता खर्च के माध्यम से आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के साथ-साथ आय असमानता और गरीबी से निपटना था। उस समय यह सिफारिश ठंडे बस्ते में चली गई और भारत सरकार ने इस प्रस्ताव पर कोई कार्रवाई नहीं की।
भारत में असमानता और गरीबी के समाधान के रूप में यूबीआई की उपयुक्तता के बारे में व्यापक बातचीत और सार्वजनिक बहस हुई है। भारत में यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) योजना को लागू करने में कई संभावित चुनौतियां हैं। भारत एक उभरता हुआ देश है, जिसकी जनसंख्या तो बहुत है, लेकिन संसाधन कम हैं। प्रत्येक नागरिक को बुनियादी आय प्रदान करना बेहद महंगा हो सकता है।
यूबीआई योजना को लागू करने के लिए वर्तमान वेलफेयर स्कीमों में सुधार करने होंगे। राजनीतिक और प्रशासनिक चुनौतियां काफी होंगी। धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार का खतरा बना रहेगा। एक खतरा यह भी है कि यूबीआई व्यक्तियों की नौकरी पाने की इच्छा को कम कर सकता है और अवसरवादी व्यवहार को प्रेरित कर सकता है। यदि धन का सदुपयोग नहीं हुआ तो महंगाई बढ़ने का ख़तरा होगा।
इस कार्यक्रम से राजकोषीय बोझ न बढ़े और मुद्रास्फीति का दबाव न बने, इसके लिए इसे या तो खर्च में कटौती या करों में वृद्धि करके धन जुटाना पड़ सकता है।
खर्च में कटौती की गुंजाइश निश्चित रूप से मौजूद है। स्पष्ट सब्सिडी पर सरकार को सकल घरेलू उत्पाद का लगभग ४ प्रतिशत खर्च करना पड़ता है। करदाताओं को दी गई विभिन्न छूटों और रियायतों पर सरकार द्वारा छोड़ा गया राजस्व सकल घरेलू उत्पाद का ७ प्रतिशत है। यह कुल लगभग ११ प्रतिशत तक जाता है। सभी केंद्रीय और राज्य सब्सिडी में सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी) का ८ से ९ प्रतिशत तक जाता है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि सब्सिडी की बलि देकर यह योजना लागू करने के लिए क्या सामाजिक व राजनीतिक समर्थन होगा?
यूबीआई में भारत में गरीबी और आय असमानता को कम करने की क्षमता है। यह महत्वपूर्ण है कि किसी भी प्रस्तावित योजना को अच्छी तरह से डिजाइन किया जाए जो वित्तीय रूप से व्यवहार्य हो और इसके नतीजों को सख्ती से नियंत्रित किया जाए। किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले सरकार को सभी फायदे और कमियों पर विचार करना चाहिए। यूबीआई से करोड़ों लोगों के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा और अगर इसे कुशल और न्यायसंगत तरीके से किया जाए तो इसके चमत्कारिक नतीजे आ सकते हैं।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

अन्य समाचार