द्विजेंद्र तिवारी मुंबई
पालन-पोषण और परिवार के मुद्दे पर मानव और पशुओं में विशाल अंतर है। आमतौर पर मानव अपनी हर संतान पर खूब ध्यान देते हैं और उन्हें मजबूत बनाने का हर प्रयास करते हैं, लेकिन पशु-पक्षियों में ऐसा नहीं होता। कई जानवर, जैसे पक्षी या स्तनधारी, सबसे मजबूत या सबसे होनहार संतान को प्राथमिकता देते हैं। उदाहरण के लिए, चील जैसे पक्षियों में, यदि भोजन दुर्लभ है तो केवल मजबूत चूजे को ही खिलाया जाता है, जबकि कमजोर मर जाते हैं। मादा बाघ अपनी देखभाल उन शावकों पर केंद्रित करती है, जिनके बचने की संभावना बेहतर होती है। कछुए या मेंढक जैसी प्रजातियों में, माता-पिता अक्सर सैकड़ों अंडे देते हैं, लेकिन बाद में कोई देखभाल नहीं करते हैं। इससे ज्यादातर बच्चे मर जाते हैं, पर जो बचते हैं, उनमें संघर्ष की क्षमता बहुत ज़्यादा होती है। हाथी या व्हेल जैसी कुछ प्रजातियां अलग होती हैं। वे कम संतानें पैदा करती हैं और उनकी गहन सुरक्षा करती हैं। झुंड की मदद से उन्हें जीवित रहने के कौशल सिखाती हैं।
मेंढक या हाथी?
तो इस कसौटी पर हम भारत के लोग खुद को रखें और देखें कि जिन बच्चों को हमने जन्म दिया है, उनके पालन-पोषण के लिए क्या कर रहे हैं? क्या हम मेंढक की सोच रखते हैं या हाथी की? यह प्रश्न इसलिए भी आवश्यक है कि भारत की आबादी में ऐसे माता-पिताओं की संख्या कम नहीं है, जो मेंढक की सोच रखते हैं। गली-नुक्कड़, आस-पड़ोस में हम ऐसे बहुत सारे ‘मेंढक’ देखते हैं। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हम अक्षम माता-पिताओं को ही कठघरे में खड़ा क्यों करें? क्या समाज (या सरकार) की जिम्मेदारी नहीं है कि इन कमजोर लोगों की मदद करें, ठीक वैसे ही जैसे हाथियों का झुंड करता है। भारत के जो परिवार कमजोर हैं, क्यों नहीं उन्हें संबल और कौशल प्रदान किया जा सकता?
जब ऐसा नहीं होता तो ज्यादा आबादी वरदान के बजाय अभिशाप होने लगती है। अगर हम एक बड़ी आबादी को ‘स्किल’ यानी कुशल नहीं बनाएंगे तो वह बोझ हो जाएगी, जैसा कि अभी हो रहा है। लेकिन इसी आबादी को बोझ के बजाय डिविडेंड (लाभ) में बदलने के लिए कोई अर्थशास्त्री या सरकारें नहीं सोच रही हैं। देश की इस सबसे बड़ी पूंजी यानी युवा वर्ग के श्रम की घोर उपेक्षा की जा रही है। भारत में अपनी आबादी को संभालने की पूरी क्षमता है। इन क्षमताओं के बावजूद यह देखने की जरूरत है कि पाकिस्तान की तरह आटे की बोरी लूटने जैसे हालात न पैदा हों। यह आशंका इसलिए बनी रहती है, क्योंकि देश में बेरोजगारी चरम पर है। १९९० और २००० के दशक की सॉफ्टवेयर-संचालित वृद्धि अब थम गई है। आखिरी ट्रेंड सॉफ्टवेयर का था, जो अब खत्म हो रहा है।
मध्य वर्ग परेशान
इस ट्रेंड ने हमें आज का ‘मध्य वर्ग’ बनाने में खूब मदद की। पिछले १५ वर्षों में शून्य नवाचार के साथ यह मध्य वर्ग टूट रहा है। इसका नतीजा यह है कि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलनेवाले कॉलेज ग्रेजुएट डिलीवरी बॉय के रूप में काम करते हुए दिख जाएंगे। भारत का युवा वर्क फोर्स समुचित सम्मान न मिलने और बेहद कम श्रम मूल्य के कारण ब्लू कॉलर नौकरियां नहीं करना चाहता और अपने हाथ गंदे नहीं करना चाहता। हमारी युवा आबादी कारखानों में काम नहीं करना चाहती। जिस तरह से एआई और ऑटोमेशन हो रहा है, हो सकता है कि भविष्य में कुछ वर्षों बाद केवल यही नौकरियां बचें। तो ऐसे में क्या रणनीति हो सकती है? जैसे पुराने जमाने में परिवार के पालन-पोषण के लिए कुछ सदस्य गांव छोड़कर रोजगार की तलाश में शहरों की ओर विस्थापित हुए, लेकिन अपनी जड़ों से जुड़े रहे। ठीक उसी तरह, जब लोग ज्यादा हैं और काम कम तो सबसे बेहतरीन रास्ता यह हो सकता है कि भारत सरकार ‘स्किल एक्सपोर्ट’ की रणनीति अपनाए और अपने मानव संसाधन को दुनिया भर भेजे। विकसित देशों में नर्स, भारी वाहन ड्राइवर, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, कंस्ट्रक्शन वर्कर जैसे शारीरिक श्रम आधारित सेवाओं के लिए श्रमिकों की भारी कमी है। इससे बेरोजगारी पर अंकुश तो लगेगा ही, विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ेगा। इस काम को शोषण करने वाली एजेंसियों और डंकी रूट वाले दलालों से मुक्त करने की जरूरत है। विदेश की सरकारों से सीधे समझौतों के जरिए व्यवस्थित और कारगर तरीके से भारत के युवाओं का पसीना विदेशी मुद्रा में बदला जा सकता है।
रोजगार और विदेशी मुद्रा
भारत दुनिया का सबसे बड़ा विदेशी धन प्राप्तकर्ता है। २०१५ में दुनिया की कुल रेमिटेंस (प्रवासियों द्वारा सभी देशों को प्राप्त राशि) के १२ प्रतिशत से अधिक धन की आवक (रेमिटेंस) भारत के खजाने में हुई। २०२३ में भारत में विदेशी मुद्रा आवक १२५ बिलियन डॉलर थी, जो २०१७ में ६९ बिलियन थी। यह ५५ बिलियन डॉलर की एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) से भी ज्यादा था। यह जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का लगभग ३.५ प्रतिशत था। इस कमाई में भारत सरकार का कभी कोई योगदान नहीं रहा इसलिए कोई भी सरकार अपनी पीठ थपथपाने की कोशिश न करे, तो बेहतर है। दुनिया भर में लगभग साढ़े तीन करोड़ प्रवासी भारतीय हैं। अमेरिका में सबसे ज्यादा लगभग ५५ लाख, संयुक्त अरब अमीरात में ३६ लाख, मलेशिया में करीब २९ लाख और कनाडा में लगभग २८ लाख प्रवासी भारतीय हैं। इन भारतीय प्रवासियों ने विदेशी मुद्रा कोष के साथ ही प्रौद्योगिकी, व्यापार और राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों में विदेश में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जिससे भारत का वैश्विक प्रभाव बढ़ा है। अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में भारत के लिए इस ‘सॉफ्ट पॉवर’ का भी विशेष योगदान है।
(लेखक कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं, फिलहाल राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)