द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई
सुप्रीम कोर्ट में जब से इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर केंद्र की भाजपा सरकार को कटघरे में खड़ा किया गया है, तब से भाजपा की हालत खराब है। चुनावी चंदे का यह आइडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसने दिया, यह शोध का विषय हो सकता है। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द कुछ ऐसे ‘अव्वल’ दर्जे के लोग हैं, जो उन्हें नोटबंदी, जीएसटी, इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे वाहियात और तुगलकी नुस्खे बताते रहते हैं। बात जब इलेक्टोरल बॉन्ड की हो रही है तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर दुनिया के बाकी देश अपने चुनावी खर्च किस तरह उठा रहे होंगे, तो इसमें सबसे पहले नाम आता है दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका का।
अमेरिका के फेडरल इलेक्शन कमीशन (एफईसी) का काम अमेरिका के चुनावी चंदे पर नजर रखना है। अमेरिका के राजनीतिक दलों के नेताओं का दावा है कि यह ऐसी प्रणाली है जो सार्वजनिक पारदर्शिता पर आधारित है। ज्यादातर पैसा निजी तौर पर जुटाया जाता है, लेकिन इसका खुलासा नियमित आधार पर करना पड़ता है। एफईसी के पास अमेरिकी सदन, सीनेट, प्रेसीडेंसी और उपराष्ट्रपति के लिए अभियानों पर नजर रखने का अधिकार है। भारत के चुनाव आयोग के विपरीत, एफईसी में सदस्यों की नियुक्तियां राजनीतिक हैं। वर्तमान एफईसी में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों से तीन-तीन सदस्य हैं।
अमेरिका में चंदा विदेशी नागरिकों, कॉर्पोरेट्स या श्रमिक संघों का नहीं, बल्कि आम अमेरिकी नागरिकों और ग्रीन कार्ड धारकों का होना चाहिए। यह पैसा ऑनलाइन सहित कई तरीकों से जुटाया जाता है, जो काफी महत्वपूर्ण है। राजनीतिक दलों की समितियां एफईसी को रिपोर्ट करती हैं और उस जानकारी को अपनी वेबसाइट पर पोस्ट करती हैं। इसके विपरीत भारत में इलेक्टोरल बॉन्ड में करोड़ों के चंदे को छुपाने की व्यवस्था और कोशिश की गई।
यह दावा नहीं किया जा सकता कि यह अमेरिकी व्यवस्था उत्तम है। अलग-अलग देशों ने अलग-अलग प्रणालियां विकसित की हैं, लेकिन पारदर्शिता अमेरिकी सिस्टम की खूबियों में से एक है। कई स्वतंत्र थिंक टैंक और विशेषज्ञों का मानना है कि लॉबिंग समूहों और विदेशी कंपनियों से आनेवाला काला धन भी अमेरिका में चुनावी चंदे में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। काला धन दुनियाभर में लोकतांत्रिक प्रणाली में व्याप्त है। कुछ तथाकथित गैर-लाभकारी संस्थाओं को अपने दानदाताओं की पहचान का खुलासा किए बिना राजनीतिक अभियानों पर बड़ी रकम खर्च करने की अनुमति है। भारत में चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द करने का न्यायालय का सर्वसम्मत निर्णय स्वागत योग्य है, भले ही इसमें बहुत देर हो चुकी हो। ऐसे समय में जब देशों को राजनीतिक फंडिंग में अधिक पारदर्शिता की ओर बढ़ना चाहिए, चुनावी बांड की अपारदर्शिता भारत को विपरीत दिशा में ले गई।
सरकार के पास अब एक नई, अधिक पारदर्शी वित्त व्यवस्था तैयार करने का अवसर है। इस बात पर चर्चा और बहस के बीच कि क्या इस प्रक्रिया ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है, सभी को यह स्वीकार करना होगा कि राजनीतिक धन उगाही दुनियाभर में एक जटिल प्रक्रिया है। लोकतंत्र को चुनाव की जरूरत है और चुनाव को पैसे की जरूरत है और जहां राजनीति में पैसा है, वहां भ्रष्टाचार के लिए जगह है। हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक दलों को अभियानों के लिए धन की आवश्यकता होती है और इसे प्राप्त करने के कई वैध तरीके हैं। धन उगाही अवैध तरीकों से भी हो सकती है, जैसे कि प्रभाव, जबरन वसूली, भ्रष्टाचार, रिश्वत और गबन। इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले में इसका सबूत मिल चुका है जब फ्यूचर गेमिंग और मेघा इंजीनियरिंग पर ईडी के छापे डाले गए और उनसे करोड़ों रुपए वसूले गए। विभिन्न सरकारों ने राजनीतिक फंडिंग को कानूनी तरीकों तक सीमित करने के लिए अलग-अलग नीतियां बनाई हैं। कुछ देशों में व्यक्तिगत दान की अनुमति है, कुछ में कॉर्पोरेट द्वारा चंदे की अनुमति है और कुछ देशों में चुनाव अभियानों के खर्च के लिए सरकारी खजाने में भी प्रावधान हैं। दुनिया के लगभग ५० देशों में कॉर्पोरेट जगत से सीधे राजनीतिक दलों को चंदा नहीं दिया जा सकता है। भारत में कॉर्पोरेट से चंदे की अनुमति है, जबकि अमेरिका, कनाडा, ब्राजील या रूस में यह अपराध है। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेसी एंड इलेक्टोरल असिस्टेंस के अनुसार, १६३ देशों में से ७९ देशों में राजनीतिक फंड के लिए औपचारिक बैंकिंग प्रक्रिया से गुजरना जरूरी नहीं है, जबकि ६७ देशों में यह अनिवार्य है। भारत और रूस समेत १७ देशों में यह उतना आवश्यक नहीं है। बेशक, चुनाव के बाद राजनीतिक धन उगाही खत्म नहीं होती है। चंदे का उपकार लौटाने का काम शुरू होता है। यह निजी हितों के लिए अनुचित प्रभाव डालने का एक साधन भी हो सकता है। राजनीतिक दल और नेता सार्वजनिक हित से हटकर कुछ खास लोगों अथवा कॉर्पोरेट के हित साधने लगते हैं। उसका सीधा असर आम जनता की जेबों पर पड़ता है और चंदे में दी गई रकम वसूलने के लिए कॉर्पोरेट उसका भार आम जनता पर ही डालते हैं। इसका उदाहरण है महंगी होती बिजली। आधे से ज्यादा यूरोपीय देशों में नेशनल इलेक्शन फंड हैं, जिसमें नागरिकों और कॉर्पोरेट को दान देने की सुविधा है। इसका फायदा ये है कि किसी एक को दिया तो दूसरा नाराज होगा, यह समस्या नहीं होती। चुनाव के समय पार्टियों की हैसियत के अनुसार फंड आवंटित किए जाते हैं। भारत के संदर्भ में इसमें कुछ समस्याएं हैं। हजारों निर्दलियों के अलावा यहां सैकड़ों छोटे दल चुनाव लड़ते हैं। उन्हें लेकर व्यापक फॉर्मूला बनाने की जरूरत पड़ सकती है, पर इस व्यवस्था को लागू करने पर सोचा जा सकता है। भारत सहित दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में करोड़ों अरबों रुपए की कॉर्पोरेट फंडिंग पर रोक लगाने की नितांत आवश्यकता है। चंदे की अधिकतम सीमा चंद हजार कर दी जानी चाहिए। इसके दो फायदे होंगे। पहला तो यह कि अमीरों से पैसा लेकर उनका उपकार लौटाने की नौबत नहीं आएगी। दूसरा यह कि पैसे कम आएंगे तो चुनावों में खर्च भी कम होगा। इससे सामान्य व गरीब वर्ग के उम्मीदवारों को ज्यादा संख्या में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होने का अवसर मिलेगा।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनैतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)