मुख्यपृष्ठस्तंभराज की बात : लुभावनी अर्थव्यवस्था का सच

राज की बात : लुभावनी अर्थव्यवस्था का सच

द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई

पिछले सप्ताह प्रसिद्ध स्टैंड अप कॉमेडियन वीर दास ने जब ‘एक्स’ पर अपना एक अनुभव शेयर किया, तब सोशल मीडिया में भूचाल आ गया। उन्होंने लिखा कि जब वे अमेरिका के सैन जोस हवाई अड्डे से बाहर निकले, उन्हें एक भारतीय टैक्सी ड्राइवर मिला, जो आईआईटी बॉम्बे से पढ़ाई किया हुआ, पीएचडी धारक वैज्ञानिक था। अमेरिका में नौकरी छूटने के बाद वह एक वर्ष से टैक्सी चला रहा था।
यह कहानी सुनकर आप भी हिल गए होंगे। क्या ऐसे हालात हमारे देश में नहीं हैं? किसी सरकारी विभाग में चतुर्थ वर्ग की नौकरी के लिए पीएचडी धारकों का लाइन में लगना भारत में सुर्खियां बटोरता रहा है।
भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़नेवाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के दावों के साथ वैश्विक मंच पर आगे बढ़ रहा है, लेकिन जमीनी हकीकत कहीं अधिक जटिल और चिंताजनक तस्वीर पेश करती है। सरकार ऊंचे जीडीपी आंकड़ों और भव्य इंप्रâास्ट्रक्चर परियोजनाओं के माध्यम से अपनी आर्थिक शक्ति का बखान करती है, वहीं महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी के मुद्दे लाखों भारतीयों को परेशान कर रहे हैं। आवश्यक वस्तुओं-सब्जियों, अनाज, खाना पकाने के तेल और र्इंधन- की कीमतें आसमान छू रही हैं, जिससे औसत नागरिक का जीवन मुश्किल होता जा रहा है।
वेतन पर जीने वाले लाखों भारतीयों के लिए ये मूल्य वृद्धि जीवन स्तर में गिरावट का कारण बनती है। इसके विपरीत देश में रईसों की तादाद बढ़ रही है और कॉर्पोरेट लाभ बढ़ रहा है, जबकि आम आदमी बुनियादी जरूरतों का खर्च उठाने के लिए संघर्ष कर रहा है, आपात स्थिति के लिए बचत करना तो दूर की बात है। बेरोजगारी का मुद्दा, जिसे अक्सर सरकारी रिपोर्टों में नजरअंदाज कर दिया जाता है, एक महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुंच गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आधिकारिक डेटा से पता चलता है कि भारत की बेरोजगारी दर ८ प्रतिशत के आसपास है, लेकिन यह आंकड़ा भी सच्चाई से दूर है।
‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्किल इंडिया’ जैसी सरकारी पहलों के बावजूद, रोजगार सृजन पर्याप्त नहीं रहा है। विनिर्माण क्षेत्र, जिसे लाखों श्रमिकों को काम पर रखना था, असंगत नीतियों और बुनियादी ढांचे की कमी के कारण आगे नहीं बढ़ पाया है। यहां तक ​​कि तेजी से बढ़ते आईटी क्षेत्र में भी छंटनी आम बात हो गई है, क्योंकि वैश्विक आर्थिक अनिश्चितताएं भारतीय फर्मों तक पहुंच रही हैं।
ग्रामीण बेरोजगारी बड़ी समस्या है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) लाखों ग्रामीण श्रमिकों के लिए जीवन रेखा है। उसे भी भाजपा शासन के तहत बजट में कटौती का सामना करना पड़ा है। देरी से वेतन भुगतान और काम के अवसरों में कमी के कारण, ग्रामीण संकट गहरा गया है, जिससे काम की तलाश में बड़े पैमाने पर शहरों की ओर पलायन हो रहा है। शहरी केंद्र भी स्थिर रोजगार उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं, जिसके कारण अनेक लोग अनिश्चित, कम वेतन वाली नौकरियों में फंसे रहते हैं।
सरकारी रिपोर्ट गरीबी के स्तर में कमी का दावा करती हैं, लेकिन स्वतंत्र रिसर्च और पड़तालें अधिक परेशान करनेवाली तस्वीर पेश करती हैं। प्यू रिसर्च सेंटर के एक अध्ययन का अनुमान है कि महामारी के दौरान भारत के मध्यम वर्ग में लगभग तीन करोड़ की कमी आई, जबकि गरीबों की संख्या में साढ़े सात करोड़ की वृद्धि हुई। बीजेपी सरकार की नीतियां अक्सर कॉर्पोरेट हितों को खुश करने के उद्देश्य से बनाई जाती हैं, जो गरीबी को दूर करनेवाले संरचनात्मक मुद्दों को लागू करने में विफल रही हैं। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई स्पष्ट है। ऑक्सपैâम की २०२२ की रिपोर्ट के अनुसार, सबसे अमीर १ प्रतिशत भारतीयों के पास देश की ४० प्रतिशत से अधिक संपत्ति है, जबकि सबसे निचले ५० प्रतिशत के पास केवल ३ प्रतिशत संपत्ति है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के साथ इस घोर असमानता का मतलब है कि लाखों लोग गरीबी में और भी अधिक घिर रहे हैं। प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत मुफ्त राशन वितरण जैसी कल्याणकारी योजनाएं गरीबी के मूल कारणों को दूर करने में विफल रही हैं। इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं के लिए पर्याप्त धन नहीं है, जिससे गरीबों के पास अपनी परिस्थितियों से बचने के लिए सीमित रास्ते हैं। निजीकरण पर भाजपा सरकार के जोर ने वंचितों को और हाशिए पर धकेल दिया है, क्योंकि गुणवत्तापूर्ण सेवाओं तक पहुंच केवल अधिक इनकम वालों तक सीमित हो रही है।
भाजपा सरकार अक्सर भारत की जीडीपी वृद्धि को अपनी आर्थिक सफलता के प्रमाण के रूप में उजागर करती है, जबकि विकास के आंकड़े कागज पर प्रभावशाली लगते हैं, वे आबादी के एक बड़े हिस्से द्वारा अनुभव की जानेवाली असमानताओं और पीड़ा को दर्शाने में विफल रहते हैं। इस वृद्धि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्रौद्योगिकी और वित्त जैसे क्षेत्रों में केंद्रित है, जो भारत की विशाल आबादी के हिसाब से बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा नहीं करते हैं। इसके अलावा, सरकार का ज्यादातर ध्यान सुर्खियां बटोरने वाली परियोजनाओं पर रहा है – चाहे वह भव्य मूर्तियां हों, बुलेट ट्रेन हों या सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास – जबकि स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि में बुनियादी ढांचे की उपेक्षा की गई है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और निजीकरण पर निर्भरता भी दोधारी रही है। इसने पूंजी को आकर्षित किया है, लेकिन यह दीर्घकालिक, स्थायी रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए बहुत उपयोगी नहीं रहा है। इसके बजाय, लाभ कमानेवाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में हिस्सेदारी बेचने सहित विनिवेश पर ध्यान केंद्रित करने से अर्थव्यवस्था की दीर्घकालिक स्थिरता खतरे में आ सकती है। इन आर्थिक नीतियों का खामियाजा असमान रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों को भुगतना पड़ता है। दलितों और पिछड़े वर्ग के साथ ही महिलाओं पर इसका सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत की महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर दुनिया में सबसे कम लगभग २० प्रतिशत है। छोटे और मध्यम उद्यम (एसएमई), जो श्रमिकों के एक महत्वपूर्ण हिस्से को रोजगार देते हैं, ऋण की कमी और बढ़ती परिचालन लागत के कारण महामारी के बाद उबरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भारत को वास्तव में एक आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए प्रणालीगत मुद्दों को ईमानदारी और तत्परता से लागू करना होगा। सरकार को अपना ध्यान दिखावे से हटाकर कार्रवाई पर लगाना चाहिए, यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विकास समावेशी, न्यायसंगत और टिकाऊ हो। तब तक, ‘अच्छे दिन’ का सपना भारत की बहुसंख्य आबादी के लिए एक भ्रम ही बना रहेगा।
(लेखक कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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