मुख्यपृष्ठस्तंभराज की बात : पालक मंत्री पद पर क्यों है घमासान?

राज की बात : पालक मंत्री पद पर क्यों है घमासान?

द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई

महाराष्ट्र में हाल ही में पालक मंत्रियों की घोषणा ने एक गरमागरम बहस को जन्म दिया है, जिससे सरकार के भीतर दरारें उजागर हुई हैं और मंत्रियों के बीच जिम्मेदारियों का असमान आवंटन उजागर हुआ है। कुछ मंत्रियों को दो जिलों के पालक मंत्री की भूमिका सौंपी गई, तो कुछ को आधा जिला ही दिया गया है। यानी एक जिले में दो मंत्रियों को प्रभारी और सह प्रभारी के रूप में नियुक्त किया गया है। कई मंत्रियों का नाम इस सूची से नदारद है, तो कई मंत्रियों को मनपसंद जिला नहीं मिला है।
चंद्रशेखर बावनकुले, अजीत पवार और एकनाथ शिंदे जैसे कुछ मंत्रियों को दो-दो जिले दिए गए हैं, वहीं कई मंत्रियों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है। इस वितरण ने सत्तारूढ़ ग’बंधन के भीतर आंतरिक दरार पैदा कर दी है, जिसमें दरकिनार किए गए मंत्री खुले तौर पर अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं। विवाद इस हद तक पहुंचा कि नासिक और रायगढ़ के पालक मंत्री पदों की नियुक्तियां रोक दी गईं।
इस घमासान से जनता के मन में यह प्रश्न उ’ने लगा है कि मंत्री बनने के बाद भी लोगों में और ज्यादा पाने की लालसा क्यों है। क्या मंत्री पद के बाद अब पालक मंत्री पद भी मलाईदार हो गया है?
क्या है यह पद
असम में चार वर्ष पूर्व पालक मंत्री पद की परंपरा शुरू हुई। उत्तर प्रदेश, गुजरात सहित कुछ राज्यों में जिले का प्रभारी मंत्री पद है, लेकिन उसका कोई महत्व नहीं है। वहां इस पद के लिए किसी तरह की मारामारी नहीं है। तो फिर महाराष्ट्र में ऐसी क्या बात है कि मंत्री बनने के बाद भी पालक मंत्री की होड़ मची है?
महाराष्ट्र में पालक मंत्रियों की अवधारणा बीस वर्ष पूर्व ज्यादा मजबूत हुई, जब पालक मंत्रियों को जिला नियोजन समिति का संयोजक या मुखिया बना दिया गया। यह निर्धारित किया गया कि पालक मंत्री पद का उद्देश्य राज्य के जिलों में प्रभावी शासन और विकास सुनिश्चित करना है। मंत्रियों को विशिष्ट जिले सौंपे जाने का पैâसला हुआ, जिससे उन्हें विकास परियोजनाओं की देख-रेख करने, राज्य और स्थानीय प्रशासन के बीच समन्वय करने और जिले की आबादी व भौगोलिक परिस्थितियों के मुताबिक विकास कार्य करने की जिम्मेदारी मिली। उसके बाद इन बीस वर्षों में पालक मंत्री पद काफी जिम्मेदारी वाला हो गया। पालक मंत्री अपने निर्धारित जिलों में राज्य सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं और उनसे योजनाओं और नीतियों के कार्यान्वयन में तेजी लाने की उम्मीद की जाती है।
बजट पर नजर
अनुमान है कि प्रति जिले में हर वर्ष कई हजार करोड़ का बजट आवंटित होता है। पालक मंत्री इस बजट के आवंटन की देख-रेख का मुखिया होता है। पालक मंत्री पद के लिए आकर्षण का यह बहुत बड़ा कारण होता है।
महाराष्ट्र में पालक मंत्रियों की नियुक्ति की परंपरा के कुछ वर्षों तक तो इसे अतिरिक्त जिम्मेदारी ही माना गया। तब शिकायतें उ’ती थीं कि पालक मंत्री जिले के विकास पर ध्यान नहीं दे रहे, या वे नदारद रहते हैं आदि आदि। समय के साथ जब इसमें बजट आवंटन का दौर शुरू हुआ और रुपयों की खनक तेज हुई, यह राजनीतिक नियंत्रण व संरक्षण और भ्रष्टाचार का एक साधन बन गया। कई सरकारों ने वफादारों को पुरस्कृत करने, पार्टी के भीतर असहमति की आवाजों को शांत करने और कुछ क्षेत्रों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए इस पद का इस्तेमाल किया है। ऐसा भी देखा गया है कि जिस मंत्री का विभाग मलाईदार नहीं है, उसे पालक मंत्री बनाकर संतुष्ट करने की कोशिश की जाती रही है।
संवैधानिक पद नहीं
पालक मंत्री प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण पहलू इसकी संवैधानिक वैधता का अभाव है। इस पद को भारतीय संविधान या किसी कानूनी ढांचे द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है। यह पूरी तरह से प्रशासनिक व्यवस्था है, जो मुख्यमंत्री और राज्य मंत्रिमंडल के विवेक पर काम करती है। कानूनी समर्थन की कमी ने इस प्रणाली को दुरुपयोग और राजनीतिक हेर-फेर के लिए असुरक्षित बना दिया है।
आलोचकों का तर्क है कि संवैधानिक सुरक्षा उपायों की अनुपस्थिति सत्तारूढ़ पार्टी को विकास को बढ़ावा देने के बजाय सत्ता को मजबूत करने के लिए पालक मंत्री प्रणाली का उपयोग करने की अनुमति देती है। नियुक्तियों की विवेकाधीन प्रकृति अक्सर पक्षपात के आरोपों को जन्म देती है, जैसा कि हाल ही में हुए विवाद में देखा गया है। इसके अलावा, प्रणाली की तदर्थ प्रकृति का मतलब है कि इसके कामकाज में कोई एकरूपता या जवाबदेही नहीं है, जिससे इस पद पर जनता का विश्वास और कम होता जा रहा है। खासकर स्थितियां तब बिगड़ जाती हैं, जब किसी पालक मंत्री का उस जिले से कोई राजनीतिक हित नहीं जुड़ा रहता। वह विकास कार्यों में उतनी रुचि नहीं लेता और ऐसे में भ्रष्टाचार की आशंका बढ़ जाती है।
आगे का रास्ता
पालक मंत्रियों की नियुक्तियों को लेकर हाल ही में उ’े विवाद ने व्यवस्था की व्यापक समीक्षा की आवश्यकता को रेखांकित किया है। पहले तो यह आकलन किया जाना चाहिए कि क्या राज्य में इस पद की आवश्यकता है? क्या यह व्यवस्था अपना उद्देश्य हासिल कर पा रही है? यदि इनके उत्तर नकारात्मक हैं तो इन्हें भंग किया जाना चाहिए। यदि किंचित सकारात्मक हैं तो सबसे पहले निष्पक्षता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार को पालक मंत्रियों के चयन के लिए अधिक पारदर्शी और योग्यता-आधारित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। प्रक्रिया को राजनीतिक निष्ठा या गुटीय विचारों के बजाय, मंत्री के अनुभव, विशेषज्ञता और जिले के मुद्दों की समझ जैसे वस्तुनिष्ठ मानदंडों द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त राज्य सरकार को कानूनी ढांचे के भीतर पालक मंत्रियों की भूमिका और जिम्मेदारियों को संहिताबद्ध करने पर विचार करना चाहिए। स्पष्ट दिशा-निर्देश और जवाबदेही तंत्र स्थापित करने से व्यवस्था में जनता का विश्वास बहाल करने में मदद मिलेगी और यह सुनिश्चित होगा कि यह विकास और शासन को बढ़ावा देने के अपने इच्छित उद्देश्य को पूरा करे।
(लेखक कई पत्र पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)

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