डॉ. रमेश ठाकुर
राजनीति अपने बुने जाल में लोगों को इस कदर उलझाए रखती है कि उनका ध्यान दूसरे मसलों की तरफ जाए ही न? देश में हर वक्त चुनावी माहौल रहता है, जिसमें शासन-प्रशासन व समूची सरकारी व्यवस्था उसमें व्यस्त रहती है। इस बार एक ऐसी समस्या पर चर्चा करते हैं जो घर-घर की है। समस्या का नाम है ‘डिजिटल लत’। दूसरे मुल्कों के मुकाबले भारत में ‘आटा’ से भी सस्ते मोबाइल ‘डाटा’ के घोर नकारात्मक परिणाम अब दिखने लगे हैं। अभी हाल ही में एक सर्वे हुआ, जिसमें बताया गया है कि इंटरनेट, साइबर संसार, स्मार्टफोन व सोशल मीडिया की लत युवाओं में ऐसी लग चुकी है जिससे वह न सिर्फ वास्तविक दुनिया से कट चुका है, बल्कि उसके शिक्षा स्तर और बौद्धिक क्षमता में भी गिरावट आई है।
अमेरिकी कंपनी `साइबर वर्ल्ड ओरिजनल’ और ‘ए.टी. कियर्नी’ द्वारा संयुक्त रूप से दर्जन भर देशों में करीब लाख से ज्यादा लोगों से बातचीत की गई, जिनसे पूछा गया कि उनके बच्चे ज्यादातर समय वैâसे बिताते हैं? उत्तर में बताया गया कि स्कूलों से आने के बाद बच्चे मुश्किल से ही अपनी स्कूली ड्रेस चेंज करते हैं। घर पहुंचते ही सीधे मोबाइलों पर झपट्टा मारते हैं। खाना-पीना, स्कूल बैग्स रखना भी गवारा नहीं समझते। अमूमन बच्चों का शाम के वक्त खेलने-कूदने का वक्त होता है, वहां भी स्मार्टफोन ले जाकर बच्चे गेमों में मटरगश्ती करते हैं। दरअसल, बच्चों में मोबाइल फोनों की ऐसी लत चिपक चुकी है, जिससे सब कुछ भूलते जा रहे हैं। वैश्विक स्तर के मुकाबले भारत के हालात कुछ ज्यादा ही खराब है। स्मार्टफोन के इस्तेमाल में हिंदुस्थानी बच्चे अव्वल श्रेणी में हैं, जिसकी एक वजह ये भी है कि हमारे यहां मोबाइल डाटा अन्य देशों के मुकाबले काफी सस्ता है। मोबाइल के छोटे से छोटे रिचार्ज में भी करीब डेढ़ जीबी डाटा मुफ्त मिलता है।
कक्षा पांच से ऊपर वाले अधिकांश बच्चे फोन में घुसे हैं। उन्हें दुनियादारी से कोई मतलब नहीं है? समय पर खाना-खाना, स्वस्थ्य रहने के लिए खेलकूद में रमना, स्कूल-होमवर्क आदि सब भूले पड़े होते हैं। सर्वे की मानें तो सेकेंडरी लेवल के बच्चों में शिक्षा के स्तर के गिरने का कारण डिजिटल लत है। बच्चे शारीरिक विकास में भी पिछड़ रहे हैं और समय से पहले उनकी आंखें भी बूढ़ी हो रही हैं। यही वजह है कि ज्यादातरों की आंखों पर चस्मे चढ़ चुके हैं। इसके बावजूद बच्चे स्मार्टफोन की लत छोड़ने को राजी नहीं हैं। पारिवारिक सदस्य हों या अभिभावक, शिक्षक, चिकित्सक सभी इंटरनेट, स्मार्टफोन व सोशल मीडिया के नकारात्मक पक्षों से भली-भांति वाकिफ हैं। पर वो भी कुछ कर नहीं सकते। दरअसल, उनमें एक डर ये भी होता है कि ज्यादा सख्ती दिखाने पर बच्चे गलत कदम उठाने में देरी नहीं करते।
डिजिटल ऐसा युग है जिसमें वास्तविक रिश्ते पीछे छूटते जा रहे हैं। युवाओं को सिर्फ स्मार्टफोन और डिजिटल संसार से मतलब रह गया है, दुनिया-समाज से नहीं? साइबर एडिक्शन के नुकसान एक नहीं, अनेक हैं। मन-मस्तिष्क में इंटरनेट की सोहबत घुसने से बच्चे स्टडीज की मूल मौलिकता से अनभिज्ञ हो रहे हैं। अभी हाल में यूपीपीसीएस का परिणाम घोषित हुआ, जिनमें जिन बच्चों ने सफलता पाई, उन्होंने अपने इंटरव्यू में कहा भी कि कोई भी परीक्षा पास करने के लिए प्रतिभागियों को सोशल मीडिया से दूर रहना होगा। इंटरनेट के सकारात्मक पक्ष के संबंध भी हैं जिनका भी जिक्र उन्होंने किया पर ज्यादातर बच्चे सदुपयोग की जगह दुरुपयोग ही करते हैं। इंटरनेट में व्यस्त होने के चलते ही प्रतियोगिताओं में प्रतिभागी पिछड़ रहे हैं, जबकि जो बच्चे दूर रहते हैं, उन्हें बाजी मारने में कोई मुश्किल नहीं होती। कई सफल बच्चे तो ये भी कहते हैं कि अब प्रतिस्पर्धा कम है, क्वालिटी स्टडी के प्रतिभागियों की संख्या सीमित होती है, क्योंकि बहुतेरे बच्चे तो मोबाइल-इंटरनेट में घुसे रहते हैं। साइबर एडिक्शन के चलते युवाओं में देश की वास्तविक समस्याओं को जानने-समझने की क्षमता भी कुंद होती जा रही है। सर्वे ने ये भी खुलासा किया है कि बच्चे साइबर एडिक्टेड क्यों हुए हैं? जिसका एक वाजिब कारण भी है। दरअसल, कोरोना काल में लगाए गए लॉकडाउन ने बच्चों में फोन की लत को और बढ़ाया था। वो ऐसा वक्त था, जब बच्चे घरों में वैâद थे और स्कूलों की बीच में छूटी पढ़ाई को फोन के जरिए ऑनलाइन पढ़ते थे। तब अभिभावक भी यही मानते थे कि बच्चे पढ़ने में मग्न हैं। पर उन्हें क्या पता था कि बच्चे मोबाइल एडिक्शन के शिकार हो रहे हैं। समय की मांग यही है, युवाओं और आनेवाली पीढ़ी को इस समस्या से किसी भी सूरत में बचाने के मुकम्मल उपाय खोजे जाएं। वरना युवा शक्ति विकास की जगह विनाश की ओर बढ़ती रहेगी।
(लेखक राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान, भारत सरकार के सदस्य, राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)