मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनापाठकों की रचनाएं : एक एहसास

पाठकों की रचनाएं : एक एहसास

एक एहसास
यादों को सींचा दिल में गुबार उठा
आंखें हो गईं नम कोई नहीं हमदम
दिल के दर पर इक दस्तक सी आई
पलकें झपकी गिर गई शबनम
खामोशी के दायरे में पड़े थे अल्फाज
जुबां ढूंढ़ने चल पड़ी लफ्ज
होंठों पे आ गई बरसों से अनकही बात
मन के किवाड़ से इक झांकी सी आई
किसी की आहट ने मन में आग सुलगाई
शाम-ओ-सहर की हलचल से गरमाई सी आई
खालीपन में भरमाई सी लाई
खुशियों की भरमार आई
ये इक पहेली थी या असलियत की सहेली थी
चंद पलों का आना था
झलक दिखलाना इक नजराना था
गहरी सांसों से इक महक सी आई
आंखों के इस दर्पण में कोई ठहर जाता
सूखा फूल महक कहां से लाता
फिजा की चाहत में खिजा से लिपट जाता
तरुवर की छाया में गहरी सांस ली काया ने
फलदायक था वो लम्हा कितना खुश था वो तन्हा
मन ने कोई गीतमाला गुनगुनाया
बेरहम के दामन से जा टकराया
लम्हा-लम्हा इकट्ठा कर वक्त गुजर जाता
धुएं के धुंध में कोई गुम जाता
वक्त की सुई हर घड़ी को निहारती गई
आने का पता न था जाने का वक्त बता गई
– अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

पर्वत का अहंकार
पांत में खड़ी पर्वत शृंखला को
आया है मानों गुमान कोई
कहां से कहां तक इंसान पहुंचा
लगता है उसने अपनी याददास्त खोई धरणि से नक्षत्र तक है मनुष्य पहुंचा किंतु उसमें आजतक न अहम आया
और भी प्रयत्न है सदा जारी चांद पर जा मनुज ने है गीत गाया
पहुंच मंगल, अन्य कई ग्रहों तक भी
अभी भी इंसान को संतोष न है
एक मंजिल पा विजय का गीत गाकर
चैन से इंसां नहीं जरा रुका है
कौन सा चश्मा पहनता तू
हो न ऐसा दृष्टि का ही दोष तुझमें
दूसरों की जीत पर खुशियां मनाने हेतु इसके चाहिए कुछ जगह दिल में
डॉ. हीरा नंद सिंह
मालाड, मुंबई

वो शख्स
जाड़ों की धूप, गर्मियों की शाम जैसा था
वो शख्स मेहनत के बाद आराम जैसा था
कोशिश के बावजूद लोग हमसे खफा रहे
हाल अपना वलीमे के इंतजाम जैसा था
सफर से सबकी उम्मीदें अलग-अलग थीं
मंजिल थी जो मुझे उसे मकाम जैसा था
तेरा जिक्र होते ही इबादत याद आती थी
तेरा नाम यारां मजहबे इस्लाम जैसा था
सच बोलने पर मुझको मुजरिम बना दिया
इल्जाम ये उनका मुझे एक इनाम जैसा था
– दिलावर टोंकवाला, नई मुंबई

क्या पाया
अपार संभावनाओं के नभ में
हर पल नई उड़ान भरने के लिए
बेताब रहता है मानव परिंदा,
जन्म से रहती व्यस्त मानव देह
झूठ-फरेब और अपनों से
दगाबाजी की विक्षिप्त सोच में!
बेशक जीवन की अंतिम मंजिल मौत है
किंतु फिर भी ना जाने क्यूं
उलझता रहा मानव जन्म भर,
जन्म-मृत्यु के अनसुलझे रहस्य में!
प्रश्न यक्ष सा देह का रहा जीवन भर
क्या पाया और क्या खोया,
जन्म इस धारा पर लेकर
सुकून तो मिल ना पाया कभी!
धरा पर भटकता रहा आजन्म
अनजान मंजिल की राहों पर,
मिला जितना भी जिंदगी में
लगा अल्पमात्र ही सदा
लालसा पाने की कुछ और में!
भटकता रहता जन्म मानस का
पता है जहां से जाना
खाली हाथ ही सबको है,
किंतु समान इकठ्ठा कर रहा
जहां भर का अपने जन्म से!
सब कुछ पाकर भी
खाली हाथ ही रहता है वो परिंदा
जो ऊंची उड़ान के बाद भी
आ ना सके अपनों के बीच!
– मनीष भाटिया, ऐरो सिटी, मोहाली

ख्वाहिश
आज फुरसत भी है, मौसम भी है,
तन्हाई भी है, सोचता हूं,
चलो, खुद से थोड़ी बात कर लूं।
मैं छोड़ आया, तन्हाई में
जिन्हें अपना कहकर,
उनकी यादों से ही,
कुछ पल यूं मुलाकात कर लूं।
बहुत है दूर बसा,
मेरा वो प्यारा सा शहर,
मगर दिली ख्वाहिश है,
उससे रू-बरू अपने जज्बात कर लूं।
ढूंढ़ता रहता हूं,
मैं भीड़ में अपनी मंजिल,
वो जो मिल जाए ‘पूरन’
जिंदगी नौशाद कर लूं।
– पूरन ठाकुर
‘जबलपुरी’, कल्याण

अन्य समाचार