ए बादल जरा साहिल पर खड़ी कश्तियों से कहना
इतना आसान नहीं है जमी पर टिके रहना
पता नहीं किस आबो हवाओं से मिलकर तूफान आ जाए
घर-गृहस्थी, खेत-खलिहान उड़ा ले जाए
फिर मत कहना आसमानी हवाओं को पता था
या इंसानी हस्तियों को इसकी खबर थी
यह सब कर्मों का हेर फेर है
कहीं बारिश तो कहीं ठंड हवाओं का जोर है
कुछ पता नहीं काहे भगवान नाराज हैं
लहलहाते फसलों को लेकर हर हलधर परेशान हैं
हे मां तुझसे है विनती फसल पकने को है
एक बार फसल पक जाने देना घर आ जाने देना
फिर अपने गुस्से को उन सप्तऋषियों से कह देना
जो कभी बदलते नहीं अपने स्थान
घनघोर बारिश हो या आए विकट तूफान
ए बादल जरा साहिल पर खड़ी कश्तियों से कहना…
-डॉ. अंजना मुकुंद कुलकर्णी