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पाठकों की रचनाएं : यादों की तपिश

मुझे तेरी मोहब्ब्त में बहुत सुकून मिलता है
देखता हूं जब भी तुझे तो जुनून मिलता है
हम वैसे ही घायल हैं कटे शाखें की तरह…
जिस शाखें में महीना कभी जून मिलता है
तेरी नजर ने मेरा सबकुछ लूटकर ले गई
अब क्या करूं जाना वो सब कुछ टूटकर ले गई
अब तो तेरे खयाल आते-जाते हैं इन सियाह में
मैं खुद बताऊं क्या हमदम जो आंखें डूब कर ले गई।
परवाज की जगह निगरानी क्या चाहिए मुझे
डूबा हूं तुझमें तो आसमानी क्या चाहिए मुझे
तेरे ही आंखों में ये दुनिया भी डूबी है हरपल…
डूबा हूं मैं भी तो समंदर का पानी क्या चाहिए मुझे
मैं तेरे पास आऊं इतना पास आऊं मन नहीं लगता है
तू जो नहीं है मकां पे मेरे तो दरपन नहीं लगता है
सफर में चलना तो कोई हमसफर भी होना चाहिए
अकेले चल के यूं ही कोई अपनापन नहीं लगता है
तुझसे दूर रहकर इन तन्हाइयों में कैसे जी लूंगा
दर्द बहुत है दिल में मेरे तन्हा रहकर कैसे सी लूंगा
तू हर घड़ी रहें पास मेरे तो मुझे खत की क्या जरुरत है
देखूं तुझे इन आंखों से तो सारा दर्द भी अपना पी लूंगा
खिले हैं गुलशन में फूल सभी बस तेरा आना बाकी है
चली आना वो मेरे गम की दवा बस तेरा हंसना बाकी है
कांटों से भरी मेरी बगिया हैं और आंखें मेरी पत्थर है
तू जो न आईं वो महबूब मेरी तो मेरा मर जाना बाकी है।
-मनोज कुमार,गोंडा, उत्तर प्रदेश

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