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पाठकों की रचनाएं : `क्या पाया जन्म धरा पर लेकर…’

अपार संभावनाओं के नभ में
हर पल नई उड़ान भरने के लिए
बेताब रहता है मानव परिंदा,
जन्म से रहती व्यस्त मानव देह
झूठ फरेब और अपनों से
दगाबाजी की विक्षिप्त सोच में!
बेशक जीवन की अंतिम मंजिल मौत है
किंतु फिर भी ना जाने क्यूं
उलझता रहा मानव जन्मभर,
जन्म मृत्यु के अनसुलझे रहस्य में!
प्रश्न यक्ष सा देह का रहा जीवन भर
क्या पाया और क्या खोया,
जन्म इस धारा पर लेकर
सुकून तो मिल ना पाया कभी!
धरा पर भटकता रहा आजन्म
अनजान मंजिल की राहों पर,
मिला जितना भी जिंदगी में
लगा अल्प मात्र ही सदा
लालसा पाने की कुछ और में!
भटकता रहता जन्म मानस का
पता है जहां से जाना
खाली हाथ ही सबको है,
किंतु समान इकठ्ठा कर रहा
जहां भर का अपने जन्म से!
सब कुछ पा कर भी
खाली हाथ ही रहता है वो परिंदा
जो ऊंची उड़ान के बाद भी
आ ना सके अपनो के बीच!
-मुनीष भाटिया, मोहाली

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