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पाठकों की रचनाएं : मां से बड़ा न कोई

मां से बड़ा न कोई
मां से बड़ा इस दुनिया में न कोई है
जिसके पास मां नहीं वो बड़ा बदनसीब है।
मां के आंचल की छाया सबका नसीब बनाया
मां के आशीष के आगे कोई दु:ख टिक न पाया,
मां के आशीष से चंद्रगुप्त बना सम्राट,
मां से बड़ा इस दुनिया में न कोई है।
मां की ममता और प्यार जिससे यह संसार
जिसके पास मां नहीं वो है लचार,
मां से जगत मां से संसार
मां न होती तो कुछ न होता,
मां से बड़ा इस दुनिया में न कोई है।
मां हमें देती आचार, व्यवहार और संस्कार
यही गुण करते हैं जगत निर्माण,
मां जैसी होगी दुनिया वैसी होगी
मां ही करती है जगत निर्माण,
मां से बड़ा इस दुनिया में न कोई है।
मां है ममता का सागर
दृढ़ता, वीरता, सहनशीलता और गंभीरता में आगर,
मां है करुणा का सागर
इसके आगे सब तुच्छ यहां पर,
मां से बड़ा इस दुनिया में न कोई है।
कहे नरेंद्र सुनो संगी
मत बनो तुम सनकी
मां का न करो अपमान
अन्यथा फटेगी यह धरती
आकाश से बरसेगा आग,
मां से बड़ा इस दुनिया में न कोई है।
– नरेंद्र कुमार, भोजपुर, बिहार

न पूछ
न पूछ की हमने… क्या? कब? कुछ? जलाया है?
अपने आपको झूठा नहीं सचमुच जलाया है
जल के खाक हुए हैं और अब भी खाक ही तो हैं
लोगों को अब भी लगता है कि कुछ-कुछ जलाया है
वक्त की बात है की वक्त साथ नहीं
अपने पाले में अब भी हालात नहीं
किसी के टोक के खातिर…रुक-रुक जलाया है
न पूछ की हमने… क्या? कब? कुछ? जलाया है?
अपने आपको झूठा नहीं सचमुच जलाया है
जेहन का खाक हो जाना कहां? कब? मुनासिब है
अक्सर तन्हां होने पर वैसे बस रब मुनासिब है
अनेकों बार मैंने वैसे अपना बुत जलाया है
न पूछ की हमने… क्या? कब? कुछ? जलाया है?
अपने आपको झूठा नहीं सचमुच जलाया है
जल के खाक हुए हैं और अब भी खाक ही तो हैं
लोगों को अब भी लगता है कि कुछ-कुछ जलाया है
वक्त की बात है कि वक्त साथ नहीं
अपने पाले में अब भी हालात नहीं
किसी कि टोक के खातिर…रुक-रुक जलाया है
न पूछ की हमने… क्या? कब? कुछ? जलाया है?
अपने आपको झूठा नहीं सचमुच जलाया है
-सिद्धार्थ ‘गोरखपुरी’, गोरखपुर (उ.प्र.)

ख्वाहिश
आज फुरसत भी है, मौसम भी है,
तन्हाई भी है, सोचता हूं,
चलो, खुद से थोड़ी बात कर लूं।
मैं छोड़ आया, तन्हाई में
जिन्हें अपना कहकर,
उनकी यादों से ही,
कुछ पल यूं मुलाकात कर लूं।
बहुत है दूर बसा,
मेरा वो प्यारा सा शहर,
मगर दिली ख्वाहिश है,
उससे रू-बरू अपने जज्बात कर लूं।
ढूंढ़ता रहता हूं,
मैं भीड़ में अपनी मंजिल,
वो जो मिल जाए ‘पूरन’
जिंदगी नौशाद कर लूं।
– पूरन ठाकुर ‘जबलपुरी’, कल्याण

कहती है कलम
पूछ लेना गर कभी, मिल जाए
‘सियासत दा’ कोई, वैâसी होती भूख है?
क्यों ये तड़पाती है, जान।
एक दिन दहलीज पे, आकर
हैं बनते फिक्रमंद,
कुर्सी मिलते ही नहीं हैं,
इनके ‘नामों निशां’।
सच जो कहती है, कलम
हम भी लिख देते हैं, ये
वरना ‘उनको’ कहना सुनना,
है, नहीं इतना आसां।
पूछती आवाम है, जब
बेवफा होते हैं, ‘वो’
ले रहे क्यों हमसे, ‘पूरन’,
सब्र की ये इन्तहां।
-पूरन ठाकुर ‘जबलपुरी’, कल्याण

लौट आओ…
दिल रोशन करने को,
ख्वाहिशों की प्यास बुझाने,
ख्वाबों की रौनकी के लिए,
अनकही बातें कहने को,
खुशबू-सा महकाने के लिए,
लौट आओ इक बार,
जीवन में मेरे फिर से…!
थोड़ी-सी रोशनी बहुत,
मन का अंधेरा मिटाने के लिए,
थोड़ा यकीन बहुत,
गुमशुदा रास्तों पर मंजिल के लिए,
शिकवे-शिकायतों के साथ,
लौट आओ इक बार,
जीवन में मेरे फिर से…!
इम्तिहान यहां होता हर कदम पर,
कुछ अनकहा कुछ अधूरा,
रहता है हर इक के जीवन में,
मेरे खयालों के ऐवान में,
आशियाना है बस तुम्हारा,
लौट आओ इक बार,
जीवन में मेरे फिर से ..!
-मुनीष भाटिया, एरोसिटी, मोहाली

भारत-पाक विलय
भारत-पाक दोनों यदि मिलकर
हो जाएं इक देश,
तो जाएगा विश्व को
बहुत बड़ा संदेश।
दुनिया होगी चकित,
गौरवान्वित मानवता
सूख जाएगा दहशतगर्दी-
बहता सोता।
है न असंभव, यहीं,
जर्मनी उदाहरण है
दशकों तक थे अलग
आज हो एक मगन हैं।
फिर तो हथियारों पर पैसे-
का न होगा अपव्यय
जनता की खुशहाली का
अब होगा नव सूर्योदय।
सोच, ठान ले अगर,
यहां-वहां की जनता,
तो संभव है
मिट जाए आतंकी चिंता।
दोनों मिलकर एक देश
तो, ताकत बढ़ जाए अतिशय
फिर तो किसी अन्य को हमसे
पंगा लेने में हो भय।
डॉ. हीरा नंद सिंह `हीरा’
मालाड, मुंबई

गजल
हमारे लिए अमानत हमारी है जिंदगी।
भगवान की परोसी थाली है जिंदगी।।
मुफ्त में मिली है प्रभु की देन है।
कहला रही जहां में संसारी है जिंदगी।।
किसकी भला मजाल है औकात आंक ले।
अपने में एक हस्ती भारी है जिंदगी।।
मजबूरी है सिर्फ इतनी नश्वर शरीर है।
इसीलिए तो मौत से हारी है जिंदगी।।
पूछा किसी से क्या है इस देश की आजादी।
बोले शहीद हंस के हमारी है जिंदगी।।
प्रभु की कृपा है जब तक जहां में है।
सबको अपनी अपनी प्यारी है जिंदगी।।
– अच्छेलाल तिवारी ‘राही’, जौनपुर (उ.प्र.)

सीखा तो क्या सीखा
अपने अनुभवों से सीखा,
तो क्या सीखा।
दूसरों के अनुभवों से सीखा,
तो बहुत कुछ सीखा।
सीख तो अपनों ने भी दी,
पर अपनों में अनुभव कम था।
अनुभवों के खिलाड़ी थे हम,
भाव गैरों को दिया नहीं।
गैरों ने ठुकराया नहीं,
हमने किसी को अपनाया नहीं।
हम मिले हमनवां मिला,
मिलकर हुए पूरे।
पाया अपनों को वहां,
अपनों के भाव में ह्रदय की रसधार जहां।
अपने अनुभवों से सीखा,
तो क्या सीखा…
– डॉ. शंकर सुवन सिंह, प्रयागराज (यू.पी)

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