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पाठकों की रचनाएं : नोटों की भटकती आत्मा

कल फिर एक भयानक काली रात आई थी
जिसने दो हजार के नोटों को मौत की सजा सुनाई थी
कल रात दो हजार के नोट मेरे सपने में आए
आंखों में आंसू लिए बड़ा फीका से मुस्कुराए
मैं झट से उठा उनको भी गले लगाने को
वह पीछे हटते हुए बोले- शर्मा जी, क्या तैयार हो जेल जाने को
हमारे साथ तो आतंकियों से भी बुरा हुआ है सलूक
हमें तो बिना वॉर्निंग के ही कर दिया गया शूट
अरे एहसान फरामोशों, हमसे तो रखते अच्छा व्यवहार
याद करो कि, बिना हमारे पूरा नहीं होता था कोई लेनदेन और व्यापार
पूरा का पूरा सिस्टम हमें ही चलाते थे
हम ही थे जो दलबदलूओं को भाते थे
हमारे ही कारण तुम ऊंची कुर्सी तक पहुंच पाते थे
क्योंकि जमीन से लेकर जमीर खरीदने तक हम ही काम आते थे
हम तुम्हारा जमीर नहीं थे कि यूं ही मार दिया
पहले गले लगाया फिर मिट्टी में गाड़ दिया
मित्रों-यह कहते-कहते नोटों की आंखों से आंसू बहने लगे
वे फूट-फूट कर रोने लगे और कहने लगे
`वास्तव में यह इंसान कितना निराला है,
खुद करता है काले काम और कहता है कि नोट काला है’
`खुद करता है काले काम और कहता है कि नोट काला है’
जय हिंद
आर.पी. शर्मा, इंदिरापुरम

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