मेरी कलम
आज मेरी कलम ने,
मुझसे कहा…
सुनते हो महोदय,
आप शायद समय के
विपरीत चल रहे।
आप अपनी लेखनी में,
सच्चाई, वास्तविकता का
मसाला कम डालिए,
चापलूसी, व्यक्तिपूजा का
छौका ज्यादा लगाएं,
क्योंकि वर्तमान में
ऐसे ही स्वाद का जमाना है।
अत: आपका लेखन
उनके लिए अनजाना है।
मैनें कहा…
सच में कलम
तूने तो मेरी आंखें खोल दी,
अब भविष्य में
तेरो बात अमल में लगाऊंगा
स्वाद पूरक ही रचना बनांऊगा।
– पूरन ठाकुर `जबलपुरी’,
कल्याण
कहानियां
लिख रहे हैं लोग अदावत की कहानियां
पढ़ रहे हैं लोग बगावत की कहानियां
गज अभी गया है कोई मदमस्त रौंदता
कह रहे हैं लोग महावत की कहानियां
मशालों के पीछे दौड़ते हाथ अंधे थे
गढ़ रहे हैं लोग यथावत की कहानियां
सच जहां जाकर कर लेता है आत्मदाह
सुन रहे हैं लोग सियासत की कहानियां
भूख और प्यास पर जीत अब कठिन नहीं
भुन रहे हैं लोग शिवबरत की कहानियां
– डॉ. एम.डी. सिंह
उजालों ने पूछा
उजालों ने पूछा तस्कीन क्या ऐसे मुलाकातों से
जो बिक रहे दर्द तेरे किसी के खयालातों में
हम सिमट गए हैं तेरे हर्फ के जज्बातों में
जिंदा वैâसे है तू बिन दिल के ऐसे हालातों में
उदास है तू क्या मेरे होने से इस तरह लब से
जो समेटकर बैठा है तू इंतजार में कबसे
ऐसे मुलाकातें कभी पानियों पे छीलते हैं
इश्क करके किसी से वे सीसे पे चलते हैं
– मनोज कुमार, उत्तर प्रदेश
जब उठा हृदय में लोल लहर
मधुमास के नव अंगड़ाई सा
मलयज के रव परछाई सा
पतझड़ तट पर, छिटक ठहर
जब उठा हृदय में लोल लहर।
चिर शीतल कोमल सा अनुरक्त
नित आतप ज्वाला का आसक्त
आंख-मिचौली के मधुर खेल में
चंद्र हृदय बन जा किसी पहर
जब उठा हृदय में लोल लहर।
छाया सृजन करता कुतूहल कांत
अलसाये हृदय की भावना है भ्रांत
मधुस्वप्न सदन चलता ही रहे
घनी रात रहे, न हो, कोई सहर
जब उठा हृदय में लोल लहर।
जल उठा मधुर पल हलके
फिर उर में छाले बन झलके
तू लौट, कहां जाते हो, हठीले
भर कर अपने तरल जहर
जब उठा हृदय में लोल लहर।
आना जाना, फिर फिर आना
सख्त शैल पर निशान बनाना
उर सीपी, वह बूंद स्वाति के
चिर वंचित कर, कपट कहर
जब उठा हृदय में लोल लहर।
एक संकेत, मन को है उलझाए
आस-पास है, लट को छिटकाए
ज्वाला जलती, कलुष जलाकर
तुम आओ, जब हो विरस अधर
जब उठा हृदय में लोल लहर।
– डॉ. वीरेंद्र प्रसाद
है बस यही ‘मलाल’
क्या होगा इस देश का कोई न जाने हाल
सब की अपनी डफली अपनी अपनी ताल
मंदिर-मस्जिद भिड़ गए धर्म हुए हलाल
मानवता छलनी हुई लहू से लथपथ लाल
कनखी नजर दाग रही एक आशंकित सवाल
इंसानियत क्यों जलील हुई बंदे भए दलाल
सुथरे जिनके चेहरे घिनौनी उनकी खाल
लहू ने लहू का खून किया है बस यही मलाल
सियासत का सर्वत्र बिछा साजिशों का जाल
पुरखों की कमाई इज्जत क्या खूब रहे उछाल
आशाएं हताश हुईं सपने हुए निढाल
भ्रम सुनहरे कल का अब न मन में पाल
पल पल जीवन घुट रहा सच्चाई तू न टाल
रामराज्य आएगा निकाल फेंक ये खयाल
कुआं प्यास बढ़ा रहा सागर में बवाल
शराफत की त्रिलोचन अब न गली दाल
– त्रिलोचन सिंह ‘अरोरा’, नई मुंबई
खुद
है हमारा क्या जहां में
इस जहां में हम जो ठहरे
हो भला क्यों न ऐसा
खुद में हम… कम जो ठहरे
खुद से खुद की दूरियां
हो सकी हैं तय न अब तक
बस दूजे तक सीमित रहे हैं
हासिल हुआ है जय न अब तक
खुद को खुद पर खर्चने का
हुनर अभी आया नहीं है
गलतफहमी पाल ली है
के कोई पराया नहीं है
खुद को खुद पर खर्च करके
अपव्ययी कहलाना चाहूं
खुद को खुद से मिलाकर
मितव्ययी कहलाना चाहूं
मौन होकर… मूक सा मैं
खुद से खुद की बात करता
है भला कौन जग में
जो खुद के खातिर खुद है मरता
जोड़कर ख्वाबों को अपने
इक नया रस्ता बनाया
खुद को है महंगा बनाया
शौक को सस्ता बनाया
अब जिऊंगा खुद के खातिर
खुद-ब-खुद… खुद से कहा है
आखिर मेरा भी तो मुझसे
इक पुराना रिश्ता रहा है
खुद से खुद की खामियों को
इक न इक दिन ढूंढ़ लूंगा
अब तो हूं ना मैं मुकम्मल
खुद ही खुद से पूछ लूंगा
– सिद्धार्थ गोरखपुरी