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पाठकों की रचनाएं : चलिए लड़ते हैं

चलिए लड़ते हैं
रह गई हैं बातें करने को
इतने अतीत इतने भविष्य में चल रहे हम
छूटा जा रहा वर्तमान चलने को
कभी सोचा समय पास इतना कम क्यों है
हार रहे सेनापतियों की संख्या बढ़ रही है
घटनाएं उनके आसपास घट रही हैं
युद्ध से भागकर मरना होगा भाई
क्योंकि जीने के लिए युद्ध शाश्वत है
हर घड़ी हर क्षण हर कदम हर जगह
युद्ध ही युद्ध करना होगा भाई
ईश भजन कर रहे लोगों को कौन बताए
युद्ध में भगवानों की हिस्सेदारी बढ़ रही है
सारी दुनिया उन्हीं के नेतृत्व में लड़ रही है
जीना जरूरी है
क्योंकि लड़ने के लिए तैयारी अभी अधूरी है
कभी पिता से लड़ते हुए सोचा आपने
उन्होंने क्यों पैदा किया आपको
आपने तो अपने बेटे के लिए भी
नहीं सोचा होगा
क्यों पैदा किया उसे
वैसे मैं बता दूं आप जान लें
वह जो लड़ रहा आपसे आपका पुत्र
उसे आपने वैसे ही
अपने लिए लड़ने को पैदा किया था
जैसे आपके पिता ने आपको
भागे-हारे सेनापतियों ने
मठ बना लिए हैं
लड़ रहे लोगों को बहला-फुसलाकर
न लड़ने को मनाकर
दुनिया से बदला लेना चाहते हैं वे
अपने हार की
मैं कहता हूं छोड़िए उन्हें
चलिए लड़ते हैं
बाकी बहुत रह गई हैं
लड़ाइयां अभी लड़ने को!
– डॉ. एम.डी. सिंह

जागता हूं तन्हाई में
आखिर कौन यहां जागता है
राफ्ता-राफ्ता ताकता है
बदन के खूं में क्यों उलझन
जो चेहरा डरा-डरा सा है
आखिर कौन है जोर से बेखुदी में
जो टपकती है कतरा-ए-शबनम चट्टान से
कोई तो जुदा है, अपने सनम से खुद…
ये कैसी हालत है इक सनम बिन
जो हंसते भी नहीं, वो ख्वाब से
पानी है पलकों पे तरबतर ही…
जो चिंगारियों से सुलगकर निकली है मुहब्बत
क्या करें इस अंदाज से वो
जो चाहत बहुत थीं मुश्किलों में,
आंखें लड़ी थीं बेखौफ सफर में
अब न रहा वो चांद इस जमीं पे,
जिसे चाहा था, खूब मैं जमीं पे
कितना टुकड़ा हो गया दिल जमीं पे,
सूखे फूल बाग के मेरे, जो पास नहीं
क्यों रहा तन्हा-तन्हा जो प्यास नहीं
नजर-नजर से धोखा खाकर
मैं खुद इस तरह हुआ
जैसे बेवफाई ने कभी यूं,
मेरे जिस्म को आहिस्ता छुआ!!
-मनोज कुमार, गोंडा, उत्तर प्रदेश

कठिन है जीना
करूं दिन-रात मैं फिर भी काम कुछ छूट जाता है
रखूं ध्यान मैं सबका फिर भी कोई रूठ जाता है
बहुत कठिन है जीना यहां बनके सरल मनु
जिसे मौका जब भी मिला मुझको लूट जाता है
संभाल कर रखा था जिसका हाथ अपने हाथों में
वक्त की तेज रफ्तार में वो साथी पीछे छूट जाता है
एहसासों की नमी से बांध लो सारे रिश्तों को तुम
नेह की बारिश बिना प्यार का पौधा सूख जाता है
लचक शाख में अच्छी है गर चली दर्प की आंधी
बड़े-बड़े दरख्तों का पल में घमंड टूट जाता है
तूफान से बचकर निकलने का हुनर था जिसमें
सुना है आजकल किसी की यादों में डूब जाता है
दिल में बसा है गांव अपना इस कदर
रहते हैं शहर में पर इससे दिल ऊब जाता है
– प्रज्ञा पांडेय मनु, वापी, गुजरात

गजल
शहर में मुहब्बत के चर्चे बहुत हैं,
छपे नाम अपने भी पर्चे बहुत हैं।
चलो तो सही जानिबे इश्क यारों,
जहां में मुहब्बत के रस्ते बहुत हैं।
पढ़ा कीजिए दास्तानें मुहब्बत,
जमाने में मशहूर किस्से बहुत हैं।
वसीयत लिखूं भी तो कैसे लिखूं मैं,
जरा सी जमीं के भी हिस्से बहुत हैं।
बिके हैं गवाही में दौलत की खातिर,
यहां पे भी कुछ लोग सस्ते बहुत हैं।
हुई खुश्क आंखें, नहीं अब नमी है,
कहां से मगर अश्क रिसते बहुत हैं।
हुआ आज दुश्वार जीना सभी का,
जरा सी कमाई में खर्चे बहुत हैं।
– गोविंद भारद्वाज, अजमेर, राजस्थान

दोनों
जो है
उसमें दोनों है।
सकारात्मक भी
नकारात्मक भी।
मेरी मानो तो
सकारात्मक को
स्वीकारो
और नकारात्मक को सुधारो।
इस सुखद संघर्ष यात्रा में
तुम
तीसरे को पुकारो
जो छिपा है
उसी में
जो है मौजूद
पहले से
तिरोहित होकर
तुम्हारे भीतर
सुसुप्तावस्था में
उसे जगाओ
और प्राप्त कर लो
पूर्णता को
अपने अभ्यास से
एक दिन।।
– अन्वेषी

कर्म की गठरी
कर्म की गठरी सिर पर लादे
बढ़ता जा आगे-आगे
राह की चिंता तू न करना
कर्म हैं नेक तो फिर क्यों डरना
ईश्वर तेरा है रखवाला
फिर क्यों तूने वहम है पाला
देर सही सब हासिल होगा
बस इतना न करना काम
बैठ डगर न करना आराम
चलते जाना अंत सफर तक
लेकर हृदय में राम का नाम
ईश्वर तेरा है रखवाला…
– श्रवण चौधरी, मुंबई

खत पाते ही
तुम चले आओ खत पाते ही
जहां तक बादल हैं
रास्ता साफ है
और आज धूप भी नहीं
समुद्र हिलोरें ले रहा
चांदनी से मिलने को
दूर बस एक अकेली नाव है
और आज धूप भी नहीं
कोयल की कूक है
नये फूल और खुश बहार है
कुछ मेरा भी खुशी पर हक है
और आज धूप भी नहीं
तमन्ना जवान है
दिल पे काबू
न कल था न आज
और फिर आज तो धूप भी नहीं
– डॉ. रवींद्र कुमार

हवा
ऐ कमसिन हवाओं क्यों
परेशान कर रखा है इन बादलों को
अपनी उंगलियों के इशारे पर
इनसे जो चाहो करवा लेती हो
कहीं तूफान कहीं बर्फबारी
मानो यह सब हमारा गुनाह है
तेरी नजर में हम सब गुनहगार हैं
सारी दुनिया पस्त हो गई है
मानो अस्त-व्यस्त हो गई है
ऐ पवन हमने तुमसे ही तो सीखा था
गगन में उड़ना बेखौफ पहाड़ों से भिड़ना
पर आज इसका मायना बदल-सा गया है
आज दिल में एक डर है
हर तरफ हर ओर है
ऐ कमसिन हवाओं क्यों
परेशान कर रखा है इन बादलों को…
– डॉ. अंजना मुकुंद कुलकर्णी

मां
खुशियों की तलाश में
हर गली, मोहल्ला घूमा
कहीं तो मुकम्मल होगी
इसलिए हर दरबार चूमा
अंत में लगी मायूसी ही हाथ
बस जिस जगह होती है जन्नत
भूल गया था मां के
उन चरणों को छूना…
– श्रवण चौधरी

मन्नत के धागे
मन्नत के धागे बांध गए
पूरा करने को साध गए
धागे हजारों बांधे थे मगर
ऊपर तक एकाध गए
बड़ी उम्मीद टिकी थी धागे पर
कि दुआ कबूल हो जाएगी
किस्मत थोड़ी-सी जागेगी
और झट से सरपट भागेगी
पर किस्मत ऐसे जाग गई
कि अच्छे दिन भी भाग गए
धागे हजारों बांधे थे मगर
ऊपर तक एकाध गए
जो किस्मत से हारे रहते हैं
वो दुआ के सहारे रहते हैं
एक हम ही हैं शायद जग में
जो मारे-मारे फिरते हैं
हर काम में बाधा आती है
वो भी बेतहाशा आती है
फिर न जाने बुरे दौर तक
हम कैसे निर्बाध गए
धागे हजारों बांधे थे मगर
ऊपर तक एकाध गए
फिर एक लहर आ जाती है
सब कुछ बहा ले जाती है
आखिर सुनामी से जाके कहता
है कौन?
हम समंदर के किनारे रहते हैं।
हम बहकर भी जिंदा हैं अभी
पर गहराई तक अगाध गए
-सिद्धार्थ गोरखपुरी, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

चंद शब्द
किसी के चंद शब्दों को
अपने दिल पर बोझ बनाना मत
जो किसी की बात बुरी लगे तुम्हें
तो दिल से उसे लगाना मत
जो किसी ने कुछ कह दिया
तो अपने अनमोल अश्रु तुम टपकाना मत
जो किसी की बात बुरी लगे तुम्हें
तो दिल से उसे लगाना मत
जो कोई तुम्हें कम समझे,
तो उसे अपने आत्मविश्वास पर
हावी होने देना मत
जो किसी की बात बुरी लगे तुम्हें
तो दिल से उसे लगाना मत
हां, परखना जरूरी है खुद को
पर सुन कर किसी की बातों को
तुम रुक जाना मत
जो किसी की बात बुरी लगे तुम्हें
तो दिल से उसे लगाना मत
-खुशी धनगर, आगरा

 

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