क्या हुआ, ऐसा क्या कुछ
यार मेरे आपसे
बेजुबां खामोश हो तुम
इस तरह चुपचाप से
हर कोई होता नहीं
दुनिया में ऐसा खुशनसीब
उसने पाया जो मिला हो
सिर्फ इत्तफाक से
पालते हो दुश्मनी क्यों
तुम दिलों में दोस्तों
होता है सुकून-ए-दिल
सिर्फ एक माफ से
देखा था कल जिनको मैंने
हाथ खूनों से रंगे
मुस्कुराते वो खड़े हैं
देखो पाक साफ से
– पूरन ठाकुर ‘जबलपुरी’, कल्याण
परोपकारी बादल
खुशी अपने मन में वो कब तक छुपाता
धरती से मिलने जब भी वो आता
अंबर से पहले वो नीर बरसता
आवारा नहीं वो बादल कहलाता
ग्रीष्म की तपिश शीत करने वो आता
प्यासों की प्यास हरने वो आता
स्वयं नहाए ना नहलाने वो आता
पागल नहीं वो बादल कहलाता
पेड़-पौधों में जान फूंकने वो आता
बागों की रंगत लौटाने वो आता
स्याह काला आप हरित क्रांति वो लाता
परोपकारी है वो जो बादल कहलाता
परिंदों को बारिश का मौसम सुहाता
पशु भी धारा में लोटपोट हो जाता
जल बिन जीवन अस्तित्व गंवाता
आभास विधाता का बादल करवाता
प्रेयसी का सोया अहसास जगाता
फासले ये दूरियां करीब ले आता
उमड़-घुमड़ नभ पे नगाड़ा बजाता
देवी-देवों के संग अपने खूब नचाता
बरखा को पृथ्वी की रानी बनाता
इक ऋतु उससे राज करवाता
बादल वो बादल से बढ़कर है लोगों
सृष्टि का वो मेघराज कहलाता
– त्रिलोचन सिंह ‘अरोरा’, नई मुंबई
नया मौसम
मन ही मन मुस्काता चल।
मौसम नया बनाता चल।।
मायूसी के इस मौसम में।
कुछ तो नया सुनाता चल।।
एक जगह पर बैठ कहीं भी।
दिल को बहलाता चल।।
दिल मिलने पर आगे बढ़कर।
दिल के भीतर गाता चल।।
लक्ष्य साधकर सही राह पर।
संयम को समझाता चल।।
मंजिल देखो दूर नहीं है।
आगे कदम बढ़ाता चल।।
व्यवधानों के बीच जरा सा।
मन से भी बतियाता चल।।
बाहर से जो हवा आ रही।
उस पर अकल लगाता चल।।
आजादी की राह पकड़ कर।
गाता और बजाता चल।।
सोने की चिड़िया थी अपनी।
उसका पता लगाता चल।।
मन के भीतर सपनों में ही।
झंडे को लहराता चल।।
केवल यह उत्साह बड़ा है।
उसका मान बढ़ाता चल।।
मन मारे जो बैठ गए हैं।
उनको जरा उठाता चल।।
सोए हैं जो आंख मूंदकर।
उनको जरा जगाता चल।।
मन ही मन मुसकाता चल।
मौसम नया बनाता चल।।
– अन्वेषी