सावन आया झूम झूम के
मिटा ताप का तेजस काया
झूम-झूम के सावन आया
काले बादल बरखा भाया
मस्त-मगन सावन है आया
धरती मां का भीगा आंचल
बरसे बरखा फटते बादल
बच्चे, बुढ़े, युवा हैं पागल
सावन मे हर शख्स है घायल
गरम जलेबी गरम सिंघाड़ा
कहीं छन रहा सांभर वड़ा
झूम रही थी बरखा रानी
जोर चली आंधी तूफानी
अंगड़ाई मे सभी जवानी
प्रसन्न मेघ, बाबा बरफानी
निर्झर-निर्झर बहता पानी
प्रकृति छटा सौंदर्य दीवानी
हर सावन की यही कहानी
मस्त मगन हैं बरखा रानी
आसमान की छटा निराली
भक्ति भाव सबकी मतवाली
चढ़े वस्त्र केसरिया रंग वाली
झुंड केसरिया बोल बम वाली
नदियों से लोटा जल वाली
थके न कंधे कांवर वाली
जयकारा बोल बम बम वाली
शिव की महिमा औघड़ वाली
देते सब को भर भर थाली
माह सावन की अजब निराली
– संजय सिंह ‘चंदन’
अजर मिटने का अधिकार
अजर मिटने का अधिकार
अज्ञात देश से आनेवाले
मलयज की मृदुल झंकार
दीप, पुष्प हो या तारक
अजर मिटने का अधिकार
मुस्काता है प्रात सुनहरा
विभा धरा को छू सुरंजित
ज्योति तमस मिलकर करते
हृदय के रागों को स्मित
कलिका, ओट पल्लव घूंघट
कहती मादक है संसार
अजर मिटने का अधिकार
पवन छीन लेती पंखुड़ी
पुष्प वात को सौरभदान
सुना यही अमरत्व असीम
कुसुम भरी अनंत मुस्कान
गुजन भ्रमर का बोले अब
यही धरा का अनंत शृंगार
अजर मिटने का अधिकार
कौन पुष्प जिसने नहीं जाना
खिलना, मुस्काना मुरझाना
जिस पथ बिछे है कली वही
आंखों में धूल डाल तड़पाना
पल-पल मर्मर रोदन कहता
किसने रचा अभिनव प्यार
अजर मिटने का अधिकार
अब स्वप्नलोक के पुष्पों से
करता जीवन का निर्माण
तेरा मेरा संग क्षणिक हो
पर जुड़ जाए प्राण से प्राण
करुणामय अब तो आ जाओ
जानता डूबकर होना है पार
अजर मिटने का अधिकार
– डॉ. वीरेंद्र प्रसाद, पटना, बिहार
गुजरे हुए दिन
वो गुजरे हुए दिन वो किस्से कहानी
कैसे सुनाऊं मैं अपनी जबानी
वो वादों इरादों के सपनों का मौसम
मोहब्बत की राहों में अपनों का मौसम
हंसी के फव्वारे वो खुशियों का आलम
हसीनों के छक्के छुड़ाते वो बालम
मैं कैसे भुला दूं वो चंचल जवानी
वो गुजरे हुए दिन वो किस्से कहानी
यादों के पहलू में पलती उम्मीदें
ज्यों बिरहा की अग्नि में जलती उम्मीदें
वो परियों के गांव में ऊंची उड़ानें
वो अम्मा से बाबा से झूठे बहाने
वो अल्हड़ सी बोली ही गुड़िया दीवानी
वो गुजरे हुए दिन, वो किस्से कहानी
कभी दर्द सुनते सुनाते वो अपने
कभी टीस उठकर के आती थी डंसने
कभी खत्म होती ना जीवन की बातें
कभी स्वर्ग जैसी वो खुशियों की रातें
कभी मुझको लगती वो नानी सयानी
वो गुजरे हुए दिन वो किस्से कहानी
कभी रूठकर आंख हमसे छिपाना
कभी बंद होंठों का वो मुस्कुराना
बिगड़कर कभी बात अपनी मनाना
न पूछो फिर गजब उनका ढाना
गजब ढाकर हंसना थी आदत पुरानी
वो गुजरे हुए दिन वो किस्से कहानी
वो पल पल में छिन छिन में घूंघट उठाना
वो शर्म-ओ-हया का था अजब था जमाना
वो गुस्से में चेहरे पे सूरज की लाली
ज्यों अंगार रखे हों जुल्फों में काली
वो रंगों की मूरत या किरणें नूरानी
वो गुजरे हुए दिन वो किस्से कहानी
वो सर्दी की शामें वो बारिश की रातें
वो छुप-छुपकर मिलने बिछड़ने की रातें
मैं यादों की सौगातें कैसे भुला दूं
जो दिन फिर न आते मैं उनको बुलाऊं
यादों की डोली तो है आनी-जानी
वो गुजरे हुए दिन वो किस्से कहानी
कैसे सुनाऊं मैं अपनी जुबानी
– नंदलाल थापर, सायन, मुंबई
झूठ के पांव
कहते हैं झूठ के पांव नहीं होते
यहां तो झूठ के हाथ-पांव सिर सब हैं
साफ-साफ साबूत
जो पसार रहा है पांव यहां-वहां
सब जगह दिमाग में भी बेअकली के
इस पूरी बस्ती में
जहां से चलता है
यह झूठ वह तो खुद-ब-खुद
बहुत बड़ा पावर हाउस है झूठ का
जिसे सुनते ही नाचने लगता है
झूठ उछलने लगता है झूठ
गाने लगता है झूठ
चिल्लाने लगता है झूठ
गला फाड़कर और महाझूठ
हंसने लगता है बैठकर
सिंहासन पर नीचे
बेतहाशा दौड़ने लगता है
झूठ बिना पांव के और हम
बेवजह कहने लगते हैं
झूठ के पांव नहीं होते
जबकि झूठ के हजारों पांव
दिखाई देते हैं साफ-साफ
हमको उनको अंधभक्तों को भी
और हम कहते हैं झूठ के पाँव नहीं होते
लगता है हम भी
झूठ बोलते में शरीक हैं
निडर हैं, निर्भीक हैं झूट्ठों की तरह
जो बैठ गए हैं शरण में झूठ के
– अन्वेषी