मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनापाठकों की रचनाएं : लहरें

पाठकों की रचनाएं : लहरें

लहरें
ए साहिल से टकराने वाली लहरों
जरा कश्तियों का भी हाल पूछ लेना
इन तूफानों को तटों से टकराने की वजह क्या है
लहरों आखिर क्यों इतना बवंडर मचा रखा है
साहिल पर खड़ी कश्तियां भी अब डरने लगी है
अपना दुख-दर्द बयां करने लगी है
बंधे रहना जमीं से भी अब आसान नहीं है
कभी तूफान कभी भूचाल से हिले है धरा
फिर भी आसमानी करतब दिखा रहे है चांद-तारे
वहीं कुछ फर्जी बादल चोंच से मिला रहे हैं चोंच
जैसे घर बसाया जा रहा हो
कहीं का ईंट कहीं लगाया जा रहा हो
भानमती ने कुनबा जोड़ा जो गलत है
भानमती सिर्फ कुनबे को जोड़ सकती है
लेकिन उन बड़े बादलों का संगठन नहीं तोड़ सकती
लेकिन ऐ लहरों तुम डरना नहीं
तूफान हो भूचाल हो या मनचले फर्जी बादलों का जमघट हो
विचलित न होना अडिग खड़े रहना…
– डॉ. अंजना मुकुंद कुलकर्णी

चौराहा
भटक जाता हूं अक्सर
पहुंचकर चौराहे पर
लगने लगता है
एक अजीब सा भय
और दिशा भ्रम वहां
जानता हूं मंजिल को अपनी
बहुत हैं रास्ते पहुंचने के वहां
जन्म लेने लगती हैं आशंकाएं
दिल और दिमाग में मेरे
देखकर जिंदगी में हारे हुए
बहुत लोगों को
एक पशोपेश में वहां
भटकते हुए तलाश में
रास्ते की पाने को अपनी मंजिल
बहुत लोग नहीं ढूंढ पाते कोई रास्ता
होकर भ्रमित गुजार देते हैं
एक दशा में अपनी
पूरी जिंदगी पाने को मंजिल
होकर दिशाहीन वहां
भटक जाता हूं अक्सर
पहुंचकर चौराहे पर
– सुधीर केवलिया, बीकानेर (राज.)

आए बदरा
घुमड़ घुमड़ के आए बदरा,
चहुंओर देखो गगन में,
तरुवर पे वैसी कोयलिया,
कुहू कुहू गीत सुनाए।
झुम-झूम के बरसे बादल,
देखो प्यासी धरा पर,
चातक की पीऊ-पीऊ सुनकर,
याद पिया की आए।
सरिता, ताल,तलैया,पोखर,
जल भये सराबोर ,
खेत चले हल लेकर हलधर,
नई उम्मीद जगाए।
प्रियतम की बस आस लिए
राह तकू द्वारे पर,
मिलने को व्याकुल सजना से
हाल कहा नहीं जाए ।
-पूरन ठाकुर ‘जबलपुरी’, कल्याण

मां-बाप को मत भूलना

मां-बाप को मत भूलना
मां-बाप को मत भूलना
मां-बाप शिखर हैं, सागर हैं,
अमूर्त हैं, अनंत हैं,
ढूंढ़ लेते अपनी खुशियां गलतियों में तेरे,
बनाते हुए तुझे महान और ढकते हुए तेरे करतूत।
ऐसे मां-बाप को मत भूलना
मां-बाप को मत भूलना
नहीं देख पाते कभी,
दुख से तेरे चेहरे को उतरते।
रहते हैं इंतजार में तेरे,
सूजी हुई अपनी पलकों को झपकते।
खत्म कर देते हैं अपने सुर्ख खून,
बोते हुए तेरे लिए मुस्कान और काटते हुए आंसू।
ऐसे मां-बाप को मत भूलना
मां-बाप को मत भूलना
तुम कभी रूठ जाते अगर,
खुद को कसूरवार हैं ठहराते।
कभी खुद पर फुसफुसाते,
कभी फरिश्तों को फटकार लगाते,
तो कभी आवेशित होकर अपने भाग्य को धिक्कारते।
ऐसे मां-बाप को मत भूलना
मां-बाप को मत भूलना।
एक पिता जो दिन-रात परिश्रम करता,
खिलौने गंदे हैं कह कर कभी शांत करा देता,
तो कभी बाजार से कई खिलौने एकसाथ ला देता,
कभी कर्ज लेकर बेटी को व्याहता,
तो कभी सांस रोककर मृत बेटे को पंचतत्व में मिलाता।
उस बाप को मत भूलना,
मां-बाप को मत भूलना
मां-बाप को मत भूलना
रत्नेश कुमार पांडेय, मुंबई

अन्य समाचार