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4 अगस्त के अंक नमस्ते सामना में प्रकाशित पाठकों की रचनाएं

मातृभूमि के रखवाले
हम मातृभूमि के रखवाले
इस पर जीना-मरना जाने
यह जन्मभूमि हमारा है
हम भारत मां के राजदुलारे।।
ना किसी से डरने वाले
ना किसी से दब के रहनेवाले
शौर्य-वीरता देखकर
दंग रह जाते दुनिया वाले।।
यह प्यारा देश हमारा है
इसकी रक्षा का दायित्व हमारा है
अपने पथ से ना डिगने वाले
प्राणों से अपने खेलना जाने।।
दोस्ती, दुश्मनी हमारी दुनिया पहचाने
दिल के साथ दिमाग भी रखनेवाले
जंग युद्ध का हो या खेल का
हर मैदान को जीतना जाने।।
हर क्षेत्र में हमने अपना
कौशल, हुनर दिखाया है
रियो ओलंपिक हो या हॉकी, क्रिकेट
हर जगह भारत का मान बढ़ाया है
ज्ञान मंदिरों के विध्वंस के बावजूद
अपनी संस्कृति का वजूद बचाया है
नृत्य, कला, विज्ञान, टेक्नोलॉजी
हर क्षेत्र में भारत का परचम लहराया है।।
भारत पर हंसने वालों को
सच का आईना दिखाया है
अब सिर्फ धरती ही नहीं बल्कि
मंगल, चांद पर भी तिरंगा लहराया है ।।
– पूजा पांडेय ‘गार्गी’,
मुंबई

पुराने दिन
वही धुंधली सुबह थी
अपने शहर के आम आदमी की वही पहचान थी
चले थे मस्तानी हवा में टहलते हुए
आशा के सपने निगाहों में लिए
पेड़ों पे कल-कल करते पक्षियों की भरमार थी
बादलों से घिरा आसमान था
मूसलाधार वर्षा का अंदेशा था
फूल-पत्तों पे गिरी शबनम थी
आंखों में वही पुराना सबेरा था
सड़कों पर भीड़ कम थी
लोग आंखें मलते हुए दुशाला ओढ़े
दिन की शुरुआत करते दिखते हुए
अपनी आंखों में आंसुओं की भीड़ थी
सांझ की कोलाहल आई थी फिर नजर
आंगन में तख्तपोश पे बैठे थे
पेड़ पर मकड़ी के सख्तकोष थे
स्मृतियों को समेटे थे
नजर आते वही रास्ते वही स्कूल के बस्ते
मोहल्ला था वही पुराना रोज छत पर आना-जाना
धूप थी वही सुहानी प्यारी किरणें बरसात का पानी
अब वो समा निकल गया था
अपने घर का नक्शा बदल गया था
अब वो किसी और का हो गया था
– अन्नपूर्णा कौल, नोएडा

मनभावन सावन
मनभावन सावन मस्त महीना,
धरा पर हर्ष हरियाली छाई है।
मेंढक दादुर पपिहा गीत गाये,
कोयल‌ ने मिठी कूक लगाई है।
नीले नभ पर श्यामल बादल,
घनघोर घटा उड़ उमड़ आई है।
हरी धानी चुनर पहन वसुंधरा,
मंद-मंद पवन संग मुस्का‌ई है।
खेतों में नाना तरह के फसल,
लहराती लेती खूब अंगड़ाई है।
भैया किसान फूले न समाते,
खेतों में फसल लहलहाई है।
विरहन विरह में पिया पुकारे,
बरखा बड़ी बेदर्द हरजाई है।
सेज सजाकर बाट जोहती,
राहों पर अंखियां बिछाई है।
बारिश की बूंदें भीगते ‘गौतम’
प्रिय की याद बरबस आई है।
– घूरण राय ‘गौतम’, मधुबनी, बिहार

जीवन का संघर्ष
सुबह उठाना, फ्रेश होना और
व्यायाम करना फिर
गुडमॉर्निंग मैसेज करना
शेविंग और नहाना नाश्ता करना
फिर काम पर निकल जाना
शाम को लौटना चाय पर नाश्ता
बच्चों से थोड़ा लाड़ टीवी से थोड़ा संवाद
फिर डिनर और गुडनाइट संदेश
फिर मोबाइल से लिपट जाना
फिर सुबह उठना?
सोचिए! यह जीवन वैâसा?
कुछ छूट रहा, कुछ रूठ रहा
जीवन की आपाधापी में
जीना था जो वह सब छूट रहा?
– प्रभुनाथ शुक्ल

गजल
जिंदगी चलती नहीं है आजकल जज्बात से।
जूझना पड़ता सभी को रात-दिन हालात से।।
गीत गजलें और नज्में भूल जाता आदमी।
जिंदगी जब रूबरू होती है अखराजात से।।
क्यूं चलाते गोलियां क्यूं लड़ रहे सब इस कदर।
रंजिशों के मामले अक्सर हुए हल बात से।।
अब के बारिश झूम के आई है बंगलों में मगर।
मुफलिसों के घर टपकते बेरहम बरसात से।।
बंट रहे घर उठ रही दीवार बीचों-बीच में।
बेतहाशा रो रही है मां सुना कल रात से।।
मुंह पे मीठी बात पीछे जो बुराई कर रहे।
बच के रहना चाहिए इस तरह के हजरात से।।
देखकर चादर पसारो पांव तुम अपने नयन।
खर्च करना चाहिए बढ़कर नहीं औकात से।।
– सीमा ‘नयन’

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