मुख्यपृष्ठनमस्ते सामना20 जून के अंक नमस्ते सामना में प्रकाशित पाठकों की रचनाएं

20 जून के अंक नमस्ते सामना में प्रकाशित पाठकों की रचनाएं

सवाल
इतने सारे सवालों के बीच
मुख्य सवाल को ढूंढ़ते हुए
उसने कहा
यह हवा
यह मौसम
यह आपाधापी
यह अंधेरा
और यह अंधापन।
आखिर कौन सा है
मुख्य सवाल
जिसे देखना
तलाशना
ढूंढ़ निकाला
जरा मुश्किल है
इतने सारे सवालों के बीच से।
इसलिए
सीधा सवाल है कि
मुख्य सवाल
गुम है
जखीरे में
सवालों के।
जिसे हम
ढूंढ़ रहे हैं
बैठकर
बाहर
सवालों से।
और वह
बैठा है जाकर
आराम से
गोद में
मुनाफे की।।
-अन्वेषी

नजर चुराते हो
जब नजर चुराते हो
सपनों में क्यों आते हो।
रोकूं, कर जीवन अधीर
ओट करे न सजग पीर
कण-कण सौंप रहा तुम्हें
जैसे सागर को नीर
पर अविराम पुकार कर
फिर क्या समझाते हो
जब नजर चुराते हो।
रात सी नीरव पहचानी
तम सी अगम कहानी
तिरते नयनों में मोती
सित तम का क्षणिक पानी
जला कर नेह पुलकित
किस आतप बचाते हो
जब नजर चुराते हो।
शून्य में अब कहां तेरे
विद्युत भरे निश्वास मेरे
झंझा झुंड समेटे उर में
है इंगित, होगा सवेरे
पुलक का चिर निबंध
क्या नया रचाते हो
जब नजर चुराते हो।
निमेष तुम्हारा अमर छंद
स्पंदन है लहरी अमंद
जाने कितने रूप तुम्हारे
अगोचर तेरे भाव बंध
जनपथ, अभिसार अकथ
क्या हाथ बटाते हो
जब नजर चुराते हो
सपनों में क्यों आते हो।
– डॉ. वीरेंद्र प्रसाद, पटना

अंतराल
जिंदगी चाहती है आओ
महसूस करें इक दूजे के
विश्वास की मीठी सरगम को
और जिंदादिल रखें अपनी
मोहब्बत की दीवानगी को
पर अंतराल से क्यों हैं
ना जाने उन्हें बेहद प्यार
जीने की हमारी ख्वाहिशों को
मिलता दिल में काश आशियाना
पलटकर देख लेते इक बार तुम
कड़ी धूप में छाया कोई
लगता ढूंढ़ ली है अब तुमने
रिश्तों के अंतराल को ही क्यों
बना लिया सारा जहां तुमने
वफाओं को इंसाफ अब
किसी साहिल पर देना होगा
आज तो वक्त ही वक्त है
आओ तस्सवुर से बात करें
अपने जख्मों का हिसाब करें
और रिश्तों के अंतराल को
लफ्जों का हसीन आकार दें
– मुनीष भाटिया, मोहाली

भव्य जवान दिव्य किसान
दोनों भारत मां के संतान
एक जन-जन का अन्नदाता
दूजा देश के सुरक्षा प्रदाता
एक खेतों में बहाए पसीना
दूजा खून बहाए जा‌ सीमा
एक उगाते फसल फल-फूल
दूजा दुश्मन को चटाते धूल
किसान कंधों पर होता हल
जवान के हाथ में बंदूक बल
गर्मी हो बरसात हो या सर्दी
दोनों का अलग-अलग वर्दी
पर दोनों करते देश की सेवा
दोनों का सबसे बड़ा देश देवा
– घूरण राय ‘गौतम’, मधुबनी, बिहार

बच्चे बड़े हो गए
हजार मसले घर में खड़े हो गए
जब मां बूढ़ी और बच्चे बड़े हो गए
हर बात पे जो जिद करते थे
उनको बरसों मां से लड़े हो गए
पिज्जा, बर्गर, फास्ट फूड ही खाते हैं अब
रसोई से गायब पकौड़े, दही बड़े हो गए
मम्मी-मम्मी कहकर लिपट जाते थे जो
मिलने पे अब बस मुस्कुरा के खड़े हो गए
मां सुलझाती थी जिनकी हर उलझन
उनके लिए जरूरी अब दोस्तों के मशविरे हो गए
अपने आप में ही सिमटा रहता है बेटा
मुद्दत मां को सर पे हाथ धरे हो गए
आओ मां बैठो ना पास मेरे
बेटे को अरसा ऐसे कहे हो गए
सन्नाटा सा पसरा रहता है हरदम
नाराज घर से कहकहे हो गए
साथ-साथ खाते थे हंसते-बोलते बतियाते थे
उनकी सूरत देखने वास्ते मां के रतजगे हो गए
बातों में तकल्लुफ होता है अब
फासले इस कदर दरमियां हो गए
अब रोज ही लड़खड़ाते कदमों से आते हैं घर
जब से बच्चे अपने पांवों पे खड़े हो गए
– प्रज्ञा पांडे ‘मनु’, वापी, गुजरात

प्रेम
प्रेम में पागल
एक लड़की
तोड़ती है जब मर्यादा
छोड़ती है जब घर
तो वह अकेले नहीं जाती
ले जाती अपने साथ
अनगिनत लड़कियों के सपने
छीन लेती है
कितनी उम्मीदों का आसमान
उड़ा ले जाती है
न जाने कितनी खिलखिलाहट
जला देती है
विश्वास की डोर
और रोप देती हैं आंगन में
शंका की एक विषैली बेल।
प्रेम में पागल
एक लड़की
लांघते ही चौखट
उछाल देती है
बाबा की पगड़ी
रौंद देती है अपने पैरों तले
कुल की मान-मर्यादा
घोंट देती है गला
मां के निश्छल प्यार का
जी हां, एक भागी हुई लड़की
छोड़ जाती है अपने पीछे
मां के आंसुओं के साथ
शर्म से झुका हुआ
लाचार बाप का चेहरा
– एड. राजीव मिश्रा

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