मां का व्यवहार
मां ने जन्म दिया संतान को
पिता के सहयोग से…
सारी उम्र खपती रही मां
बच्चों के ‘विलोल’ में
दस-दस घंटे खपते रहे
पिता ‘कारखाने और दफ्तर’ में
मां के हिस्से आई नित की रसोई
कभी सब्जी, कभी दाल भिगोई
क्या खाना और क्या पकाना
बच्चों को क्या ‘नया छकाना’
इसी चिंता में मां मग्न है रहती
मगर समस्या अपनी किसी से न कहती
कोई, खाए न ‘बैंगन’ की भाजी
कोई ‘करेला’ खाने को न हो राजी
लौकी लाई थी मां, कितनी ताजी
पर पड़ी-पड़ी मुरझाई वो ‘मासी’
सबकी फरमाइश है जुदा-जुदा
सब बच्चे मेरे दिल के टुकड़े,
किसको मनाऊं और किसे दूं रुला?
पति को है ‘आलू’ ही भावे
स्वाद ले वो जी भर खावें
पर रोज-रोज क्या आलू खाना
मना करूं तो करें ‘बहाना’ या फिर ‘मुंह फुलाना’
लौट घर आते पिता थककर चूर
मां चाय पिलाकर करती उनकी ‘थकान’ दूर
कभी ‘पैर दबाती’, कभी ‘सिर सहलाती’ यूं भी मां ‘प्यार’ है जताती
मन की बात क्या खूब है मनवाती
‘खातिरदारी’ मां को खूब आती
अपनी चिंता नहीं है मां को
‘परिवार की सुविधा’ है उसे सताती
इतनी ‘ऊर्जा’ मां कहां से है लाती?
सुबह ‘आटा’ है गूंधती, पसीने से तरबतर है, फिर भी ‘घी के परांठे’ है पकाती
शाम, सांबर या कढ़ी’ चाह से बघारती
इतने में भी मां ‘खिलखिल मुस्काती’…
जूठे बर्तन खुद वो मांजती,
‘झा़़ड़ू कटका’ हमें लगाने ना देती
कहती, पढ़ लो बच्चियों किताबें चार
झेलनी न पड़े कभी ‘समय की मार’
मैं कम पढ़ी पर मिला प्यार अपार
पिता तुम्हारे का पाकर ‘लाड़-दुलार’
दंग रह गए बच्चे देखकर मां का व्यवहार
आज की ज्यादा पढ़ी-लिखी ‘आधुनिक युवतियों’ में
शायद ही मिले ये संस्कार, ये शिष्टाचार!
धन्य हो तुम अम्मा मेरी
तुममें दिखती ‘संतुष्टि’ घनेरी
इतना समाधान व सब्र का माद्दा
मां मेरी, तू कहां से लाई?
कभी न जुबां पर तेरे कोई शिकायत आई।
धन्य हुए हम जो हमें मिली ऐसी देवी माई।
– त्रिलोचन सिंह अरोरा
दिल के तहखाने में
दिल के तहखाने में
बहुत से कमरे हैं
कुछ छोटे-बड़े, लंबे-चौड़े,
रंग-रोगन से सजे कमरे
रेखाओं और चित्रों के
प्रारूप की बुनावट को ओढ़े,
आधुनिकता और विलासिता
के गीत गाते गुनगुनाते
हर पल कुछ कहते हैं।
हमने सुना अनसुना किया
किंतु गाहे-बगाहे
वो अक्सर आवाज देते,
कुछ मीठे कुछ कड़वे
उस क्षण के शब्द चित्र
चलचित्र की तरह,
वर्तमान, भूत, भविष्य के
वो सारे दृश्य हमारी
आंखों में उभरते हैं।।
कुछ कमरे भरे हैं
जीवन के सारे भोग-विलास
के साधन से परिपूर्ण हैं,
अतिथियों के आवभगत
के लिए वो सारे सामान
खानपान आरामगाह हैं,
भावना, संवेदना
इच्छा, त्याग, समर्पण
सब एक साथ रहते हैं।
मन के मानसरोवर में
मानवता, प्रेम, करुणा, दया
सबके सब पलते हैं,
काम, क्रोध, धोखा, फरेब हां
इनका भी एक कमरा है
इनके दरवाजे रोज खुलते हैं,
छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच
जाति-धर्म की सोच सब
मन की चौखट पर रहते हैं।
हां, कुछ कमरे खाली हैं
भविष्य की अगवानी में
और कुछ खंडहर भी हैं,
कभी कहीं से कुछ तो
कोई एक लहर उठे
क्या किया क्या धरा,
उसकी परछार्इं तो देखूं
अच्छे-बुरे का आकलन करूं
यही तो चाहते हैं…
पर चेतना की खिड़की पर
हवस, लालच, अहंकार
का बड़ा सा ताला है,
वे अक्सर हमें
सूरज की पहली किरन के साथ
एक आस भरी आवाज देते,
बार-बार हमसे कहते हैं
ये ताले कब खुलेंगे
हम सुनते हैं वे कहते हैं…
दिल के तहखाने में
बहुत से कमरे हैं
कुछ छोटे-बड़े, लंबे-चौड़े,
रंग रोगन से सजे कमरे
रेखाओं और चित्रों के
प्रारूप की बुनावट ओढ़े,
आधुनिकता और विलासिता
के गीत गाते गुनगुनाते
कमरे कुछ कहते हैं…
– अनिल कुमार राही
खर्राटों का सफर
आमतौर पर हम रात में
चार-छह आठ घंटे सोते हैं
दरअसल, वह हमारी नहीं
नींद की आरामगाह है
जिसमें हम भी
शरीक होते हैं
वैसे गौरतलब यह कि
चंद निद्राहीनों को छोड़
अपने मुल्क, शहर, गांव में
चौबीसों घंटे सोने वाले ही
काबिज हैं दिन-रात पर
तंद्रा में खुसुर-फुसुर करते
गाल, हाथ, सीने, ललाट पर
मच्छर मार जम्हाई लेते
लोगों की जमात के
जिनमें कभी नींद शरीक नहीं होती
सपने चोरी होने से
बौखलाए लोग
अक्सर नींद से आंख बंद होने का
सबूत मांगते पक्ष के
चुनिंदा फरीक होते हैं
समय की हत्या में शामिल
लोगों के नाम
समन जारी कर
अदालत भी सो जाती है
खर्राटों का सफर जारी रहता है…
– डॉ. एम.डी. सिंह, गाजीपुर (उ.प्र.)
गजल
हर दिन एक नया इम्तिहान देना पड़ता है,
जीने के लिए यहां जान देना पड़ता है।
रिश्ते बन तो जाते हैं गुमनाम भी कई बार,
निभाने के लिए कोई-न-कोई नाम देना पड़ता है।
सजाएं सुना दी जाती हैं बेगुनाहों को जब,
बिना जुर्म के भी इल्जाम लेना पड़ता है।
ये दुनियादारी फकत दिल का खेल नहीं है,
काम हमेशा दिमाग से लेना पड़ता है।
– एड. बृजलाल तिवारी,
गोंडा (उ.प्र.)
हर बार उसी तीर से घायल नहीं होते
सब लोग मेरी तरह तो पागल नहीं होते
मुश्किल से कभी आते हैं आंखों में या लब पर
हमसे गिले-शिकवे भी मुसलसल नहीं होते
जज्बात अगर जहन पे पड़ने लगे भारी
फिर ऐसे मसाइल कभी भी हल नहीं होते
पहचान लिए जाते हैं वो खुशबू से अपनी
शौकीन-ए-शुहरत कभी संदल नहीं होते
मजबूरियों के नाम पे झुठला न हकीकत
जो आज हैं वो मसले क्या कल नहीं होते
बखूबी समझते हैं तेरी उलझनों को हम
बेवजह तो माथे पे कभी बल नहीं होते
हर लफ्ज तेरा खुश्क है बिल्कुल धुएं जैसा
बनते हैं धुएं से जो वो बादल नहीं होते
-मनस्वी अपर्णा, भोपाल