मुख्यपृष्ठनमस्ते सामना17 मई के अंक नमस्ते सामना में प्रकाशित पाठकों की रचनाएं

17 मई के अंक नमस्ते सामना में प्रकाशित पाठकों की रचनाएं

राम रसायन
राम हैं जिंदगी राम का नाम लो।
राम हैं बंदगी राम का नाम लो।
राम से ही धरा अग्नि आकाश है।
राम से ही हवा नीर का पाश है।
राम की मुट्ठियों में बंधी सृष्टि है।
राम से वृष्टि एवं अनावृष्टि है।
राम के नाम में लोक कल्याण है।
राम के नाम में जानकी प्राण है।
राम दीनों गरीबों के रखवार हैं।
डूबती नाव के राम पतवार हैं।
राम श्रापित अहिल्या समाधान हैं।
राम मुर्छित लखन हेतु हनुमान हैं।
राम सुग्रीव केवट विभीषण सगे।
राम शिव भक्ति में सर्वदा हैं पगे।
राम जूठे फलों संग में भाव हैं।
राम अंधे बधिर मूक के चाव हैं।
राम संगीत सांसें कला साज हैं।
राम भूतो भविष्यो सदा आज हैं।
राम से साधु हैं राम से संत हैं।
दीन-दुखिये सभी राम के कंत हैं।
राम से देवियां राम से देव हैं।
राम ही सत्य एवं सुसत्येव हैं।
राम राजीव हैं राम छविधाम हैं।
राम से है अवध औध से राम हैं।
– डॉ. अवधेश कुमार, अवध

मेरा सलाम
मां तुझे नमन, मां तुझे सलाम
तेरे बिना वीरान है मेरा जहान।
मां तो दुर्गा की ऊर्जा है, शक्ति है
मंदिर में होंगे पूज्यनीय भगवान
मां घर संसार की है दैविक वरदान
मुझे रिझाने, मेरा दर्द दूर भगाने
काफी है बस मां तेरी इक हल्की मुस्कान
तेरी मुस्कान में है मेरी खुशी, मेरी पहचान
मां तू है जननी मेरी शरणी तुझमें हैं मेरे प्राण
तू ही मेरी अर्चना, आराधना,
नहीं दूजा भगवान, तू ही संतोषी मां
गौरी का अभिमान, मां तुझसे है तुलसी का महत्व
तू मेरे लिए है वट वृक्ष है नीम की छांव
मां तुझे नमन मां तुझे बारंबार सलाम।
तेरी उपमा का मैं करूं क्या बखान
मैं जन्मा तेरी कोख से अदना सा नादान
मां तू जीवनदायिनी मैं तेरी कर्जीली संतान
सारा संसार एक तरफ, तू जग से है महान
मां… मां… मां… क्षमा करना
तू मेरी भूल स्वीकार करना
तू मेरा नमन मेरा सलाम।
-त्रिलोचन सिंह अरोरा

भीड़

भीड़ है
जगह-जगह
भीड़ में जो उपस्थित है
उनकी अपनी-अपनी जरूरत की भीड़ है।
भीड़ है
बेतरतीब भी है
पंक्तिबद्ध भी है।
किसी बस में
रेलगाड़ी में
विमान में भीड़ है
जो अपनी यात्रा में गतिमान है।
भीड़ है
जिसमें शामिल लोग
अपने-अपने लिए रोजगार की तलाश में है।
अपनी-अपनी
जरूरतों का भुगतान करती हुई भीड़ है।
किसी के दरवाजे पर
दान की आस लगाए हुए लोगों की भीड़ है।
ईश्वर से विनती करती हुई
भीड़
अपार भीड़
हाथ में फूलमाला, अगरबत्ती लिए
मन, हृदय में चाहे जो हो।
संतों की वाणी सुनती हुई
भीड़ है
सिर्फ सुनने के लिए
शामिल हुआ जताने के लिए
आचरण में लाने के लिए नहीं ।
कहीं
किसी प्रसिद्ध चेहरे की झलक पाने के लिए भीड़ है।
राजनेताओं के सामने
याचक बनकर खड़े लोंगों की भीड़ है।
भीड़ है
लुभावने भाषणों को सुनने के लिए
धोखा खाने के लिए आतुरता है भीड़ में।
हड़ताल में
अपनी मांगों को मनवाने की भीड़ है
जानते हैं कि सिर्फ आश्वासन ही मिलना है।
यहां देखिए
यहां रोज भीड़ है
दवाई की दुकानों और अस्पतालों में
देखकर लगता है
कि कितनी डरी हुई है भीड़।
भीड़ है
उस आदमी के लिए
जो कल तक कितनी जगहों की भीड़ का हिस्सा था
उसकी अंतिम यात्रा की भीड़ है।
इन सब जगहों की भीड़ में
कितने ही व्यक्ति ऐसे मिल जाएंगे
जो महसूस करते हैं
कि उनका चेहरा
भीड़ में विवश एक चेहरा है
बावजूद भीड़ के वह अकेला है ।
– सुधीर कुमार सोनी,
रायपुर, छत्तीसगढ़

दोस्त
जिन राहों पे, साथ चले थे,
हम तुम, कभी ‘हमदम’ बनकर,
उन राहों पे, अब मिलकर,
क्यों अनजानें बन जाती हो।
पूछ लिया होता, गर तुमने,
‘हाल-ए-दिल’ एक बार, मगर
वक्त क्या बदला, नजर फेर,
क्यों खुद पे तुम इतराती हो ।
खुद तन्हा-तन्हा कहता,
फिरता हूं मैं, महफिल में,
तुम महफिल में आती हो।
उन लम्हों का, जिक्र करे क्या,
भूल गया जिसको ‘पूरन’,
तन्हाई तो पूछती होगी,
वैâसे तुम बतलाती हो।
– पूरन ठाकुर ‘जबलपुरी’, कल्याण

गजल
कुछ दर्द गिनाने पड़ते हैं,
कुछ जख्म दिखाने पड़ते हैं।
मंजिल को पाने की खातिर,
कुछ कष्ट उठाने पड़ते हैं।
यज्ञ मोहब्बत का‌ करना हो,
तो हाथ जलाने पड़ते हैं।
आग लगे न किसी घर को तो,
कुछ दीप बुझाने पड़ते हैं।
गम की बाढ़ अगर आए तो,
फिर अश्क बहाने पड़ते हैं।
घाव हरे हों दिल के तो फिर,
नव गीत सुनाने पड़ते हैं।
-गोविंद भारद्वाज, अजमेर

समय बोल रहा है…
समय आंख अब
खोल रहा है।
धीरे-धीरे बोल रहा है।।
हवा और मौसम के भीतर।
थोड़ा खुशबू घोल रहा है।।
उम्मीदों का मौसम कोई।
मन के भीतर डोल रहा है।।
दक्षिण में जो हुआ जागरण।
वह बिल्कुल अनमोल रहा है।।
नासमझी का दरवाजा तो।
उत्तर हरदम खोल रहा है।।
मानवता की जगह उठाकर।
दानवता को घोल रहा है।।
तर्शीलता के दर्शन में।
हरदम पोलमपोल रहा है।।
दकियानूसी बातों को ही।
सुबह-शाम वह बोल रहा है।।
दक्षिण से जो आंधी आई।
उसमें आसन डोल रहा है।।
सारा किया कराया उसका।
भेद आज वह खोल रहा है।।
-अन्वेषी

तेरे ख्वाब तले, मेरी सांस चले
तेरे ख्वाब तले, मेरी सांस चले
नींद से उतरूं, तो ख्वाब को देखूं
दिल के चट्टान पे याद को रगड़ूं
जुबां जो खोलूं तो किसके दरमियां…
सब जादुई हैं रब के सितारे
इन अंधेरों में, इस तन्हाई में
ढूढूं कहां? इन भीगी आंखों से
जो वादियां लिबास बदल रही हैं
कितनी चुभती है उसकी याद, इस दिल में
कह भी नहीं पाता हूं, जां से अपने
जो कुछ पल के लिए वो खुशी थी मेरी
जो आज शक्ल बनाई है धड़कन ने, कमबख्त ये
हल्के से शाम ढल जाती है
जैसे हमसफर छूट गए हैं,
दिल में ऐसी गुदगुदी होती है
खबर क्या उसे इस दिल से
जो कभी प्यार किए हो,
तो पता होता!
-मनोज कुमार, गोंडा (उत्तर प्रदेश)

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