शिव का साथ
जब साथ तुम्हारा हो
तो डर किस बात का
हर रास्ते के मोड़ पर गर तुम मिलो
तो क्या चिंता रास्ता भटकने का…
मुश्किलें चाहे कितनी भी हो
वो तो बस आपके खयालों में ही कट जाएंगी
मंजिल की दूरी जितनी भी हों
आपके साथ होने से उसकी दूरी ही मिट जाएगी…
मुश्किल से मुश्किल दौर गुजर जाएगा
अगर आप मेरे साथ हो
खोई हुई खुशियां भी ढूंढ़ लूंगी
गर मेरे हाथ में आपका हाथ हो…
मेरे हर रास्ते, हर मंजिल
आप तक पहुंचने का जरिया है
यह सब उन फासलों को दूर करेगी
जिनकी वजह से हमारे बीच इतनी दूरियां हैं…
-पूजा पांडे `गार्गी’
हे मारुति नंदन
मारुति नंदन हे जग बंदन कृपा करो मोपे होहु सहायो।
को नहीं जानत है हम मुरख तुम तो रामसहाय कहायो।।
चैत्र पूर्णिमा त्रेता युग में अंजनी मातु की गोद में आयो।
लील लियो फल जानि सूर्य को हनुमान तब नाम कहायो।।
केसरी नंदन राम निकंदन हे जग वंदन मारुति आयो।
धाम धरा पर मानव के मन में बल बुद्धि विवेक जगायो।।
आपस में सब मिलकर आएं गाए नाचे खुशी मनायो।
भाईचारे का भाव भरे दुख-सुख में मिलकर साथ निभायो।।
ब्राह्मण रूप धरे किष्किंधा पे राम लखन कंधे पर बिठायो।
जाई मिले सुग्रीव के कानन राम से उनके मिताई करायो।।
भाई के दुख से प्रताड़ित सुग्रीव को किष्किंधा राज दिलायो।
सागर लांघि गयो लंका में मातु सिया का पता लगायो।।
जारि दियो तब सोने की लंका रावण का अभिमान मिटायो।
मांतु सिया को भरोसा भयो तब सागर में जाई पूछ बुझायो बाण लगे जब लक्ष्मण के तो लाई संजीवनी प्राण बचायो।
जानि विभीषण से सब भेद को,नाभि की अमृत बात बतायो।।
-सत्यभामा सिंह
काश! मैं बच्चा ही रहता
घर की दुनियां छोड़ के बाहर बसना अकारण नहीं होता,
दिमाग का ये पैâसला दिल के लिए साधारण नहीं होता।
दूसरे देश दूसरे शहर में बसना कोई आसान नहीं होता,
अकेलापन तो है पर वहां रिश्तों का घमासान नहीं होता।
अनकही बातें समझ पाता, काश इतना अनजान नहीं होता,
पढ़ पाता चेहरे अगर हमारी भावनाओं का इतना अपमान नहीं होता।
सबकी चाहतों का खयाल रहा, बस अपना कोई अरमान नहीं होता,
टूट गये सारे ख्वाब बेवजह, क्या इससे सस्ता कोई सामान नहीं होता।
किसी को दूसरे की उपलब्धि का संज्ञान नहीं होता,
गर खुद से खुद की सफलता का सम्मान नहीं होता।
काश मैं बच्चा ही रहता कभी जवान नहीं होता,
जिंदगी में बस मस्ती रहती, बारहा यूं ही परेशान नहीं होता।
सीरत प्यारी रख
बेशक दुनियादारी रख
लेकिन सीरत प्यारी रख
दुनिया कब जीने देगी
थोड़ी सी मक्कारी रख
जाने कब काम आ जाएं
चोरों से भी यारी रख
भूखा न लौटे दर से
दिल में वो दिलदारी रख
सम्मन किस दिन आ जाए
जाने की तैयारी रख
खाक वतन की चंदन है
इससे मत गद्दारी रख
आने न सके नफरत `प्रीतम’
दिल में चार दिवारी रख
-प्रीतम श्रावस्तवी
दिखाऊं तो कैसे
मेरा मुस्कुराना लगे गर बुरा तो, मैं रोनी सी सूरत बनाऊं तो वैâसे।
जो रोना भी चाहूं तो आंखे हैं सूखीं, वो घड़ियाली आंसू भी लाऊं तो वैâसे।।
नहीं आसरा है न कोई ठिकाना, बहाने कहां तक करूं जिंदगी से।
मेरी जिंदगी में न कोई तरन्नुम, मैं ख्वाबों की महफिल सजाऊं तो वैâसे।।
जिसे याद करते सुबह शाम बीती, वो दिन के उजाले औ रातों की स्याही।
छपी हैं मेरे दिल पे तहरीर उसकी, भुलाऊं तो वैâसे, मिटाऊं तो वैâसे।।
सफर की कहानी सुहानी थी लेकिन, बहारें भी आर्इं औ पतझड़ भी देखे।
मगर मुस्कुराते ही चलते रहे हम, लगे कितने ठोकर दिखाऊं तो वैâसे।।
-`शिब्बू’ गाजीपुरी
उस पार न जाने क्या होगा
इस पार बैठी नीर बहाऊं,
उस पार न जाने क्या होगा।
इस पथ पर नित्य हृदय दीप जलाऊं,
फिर स्वयं उसे बुझाऊं।
इस पार बैठी नीर बहाऊं,
उस पार न जाने क्या होगा।
इस राह बैठी, उस राह को निहारूं।
यह राह उस पथ तक जाती तो होगी।
इस पार बैठी नीर बहाऊं,
उस पार न जाने क्या होगा।
इस पार यह बदली रोज बरसती,
उस पार भी कभी तो बरसती होगी।
संग-संग अपने इन नैनों को भी,
उस पार भी कभी तो लेकर जाती ।
इस पार बैठी नीर बहाऊं,
उस पार न जाने क्या होगा।।
यह सांझ उधर भी ढलती तो होगी,
उस भोर की सुधि कभी तो लाती।
ये नयन इधर जो रोज बरसते,
उन नयनों में नमीं
कभी तो आती होगी।
यह कुंज जो गुजरे
बसंत का प्रतिबिंब बना,
उजड़े उपवन उस पार भी मूक निहारते तो होंगे।
इस पार बैठी नीर बहाऊं,
उस पार न जाने क्या होगा।।
-शालू मिश्रा `अपराजिता’
नारी
अपने मुख से पर्दा हटा दो,
ये शर्माने की हद बहुत हो चुकी।
कदम से कदम अब मिलने दो,
कदम चुराने की हद बहुत हो चुकी।
अब भी तो कुछ बोल दो,
यूं खामोशियों की हद बहुत हो चुकी है।
कहीं ससुराल कहीं दहेज के कारण,
तुम्हारी कुर्बानियों की हद बहुत हो चुकी है।
नारी है अबला है यह सुनकर अब,
आंसू बहाने की हद बहुत हो चुकी।
घटा की तरह उमड़कर सामने आओ,
गमों के बादल में छुपने की हद बहुत हो चुकी।
अब कलम को तकदीर बनाओ,
उस चूल्हे को फूंकने की हद बहुत हो चुकी।।
-मंजू कोशरिया ‘मेघा’
रिश्तों पर कुछ गाद जम गई
धन आया तो आंख जम गई
रिश्तों पर कुछ गाद जम गई।।
कंकड़ पत्थर ढूंढ़ रहे हैं
पथरार्इं नम आंख जम गई।।
मुद्दत से मुद्दत खोया है
पत्थर पर कुछ कांच जम गई।।
पानी पी-पी कर जोड़ा है
पापी पेट की आग जम गई।।
सबने शब्दों से खेला है
कोमल मन की राग जम गई।।
धरती से आकाश पुकारें
त्रिशंकु सा है भाग जम गई।।
पानी पानी पानी `उमेश’
बलखाती नदी धार जम गई।।
-डॉ. उमेश चंद्र शुक्ल
वृक्ष बचाओ
विश्व बचाओ
खुद सह सारे दुख, वेदना
बांटे है दुनिया को मुस्कान,
मानव के लिए ही वृक्ष करे
यहां संतों के जैसे सारे काम!
-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि