मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनाशनिवार के अंक नमस्ते सामना में प्रकाशित पाठकों की रचनाएं

शनिवार के अंक नमस्ते सामना में प्रकाशित पाठकों की रचनाएं

पर्यावरण का बिगड़ता संतुलन
धरती का तापमान बढ़ रहा है
विश्व समस्याओं से जूझ रहा है,
कहीं भूकंप तो कहीं चक्रवात
गर्म हवाओं का ताप बढ़ता ही जा रहा,
हर पल प्रकृति का बदलता
स्वरूप पशु पक्षी भी
लाचार बेबस अपना
अस्तित्व खो रहे
जंगल कट रहे नदियां सूख रहीं
झील-सागर सबका
स्तर गिर रहा
विकासवाद के नाम पर
विस्तारवाद की नीति
परिणाम मानव जीवन
अस्त-व्यस्त हो रहा
स्वास्थ्य आज संकट में है
विकास और भौतिकवाद
हमें रोग ग्रस्त कर रहा
आइए संकल्प लें
प्रदूषण से मुक्त जन जीवन
और इस धरा को बचाएं।
– नूतन सिंह कनक
(अमेठी -उत्तर प्रदेश)

मित्रता
गौरैया की तरह घर भी आया करो।
दोस्ती का भी फर्ज निभाया करो।
मत करो इंतजार बुलाने का तुम,
याद आए तुम्हें मेरी तो आया करो।
बात ही बात में ढल न जाए उमर,
संग मेरे समय भी बिताया करो।
सोचना तुम कही थीं जो बातें तुम्हें,
बेवजह बात को ना बढ़ाया करो।
साथ मिलके गुजारे खुशी के दो पल,
वक्त हो तो कदम तुम बढ़ाया करो।
माना मशगूल हो जिंदगी में तो भी,
वक्त दोस्तों के लिए भी चुराया करो।
मित्र है वो जो बताए भला या बुरा,
बात को दिल से यूं ना लगाया करो।
है मरासिम तुम्हारा हमारा यही,
हक जरा सा सही पर दिखाया करो।
फूल मुरझा गए हैं बहारों में भी,
मेघा बनके कभी बरस जाया करो।।
– मंजू कोशरिया ‘मेघा’
कांकेर छत्तीसगढ़

अजनबी तुम कौन हो
चांदनी रात में चमक रही है
दिन के उजाले में मुखड़ा दिखाओ
ऐसे शर्मा रही है
जैसे पहले का तेरा मेरा वास्ता है
ऐ अजनबी वैâसे हो, अपना भी हाल बताओ
कब तक यूं खामोश बैठी रहोगी
कुछ अपना हाल बताओ
तुम्हारी सुंदरता की क्या तारीफ करूं?
तुम इतना हसीन हो
कभी मिलकर पूछो मेरा भी हाल मैं वैâसा हूं?
मुझमें कहीं जगह बनाई है वो मेरी जानां
दूर से आकर मेरी आंखों में झांक जा
तुझे तब पता चलेगा कितना खुशी है
सागर की लहरों में उठती है
किसी की आंखों की लिखी लकीर
मिटाने से नहीं मिटती
अजनबी तुम कौन हो।
-जयप्रकाश सोनकर

 

‘आखिरी मंजिल’
चलते-चलते हम इतनी दूर निकल गए
कि हम मुड़ना भूल गए।
जिंदगी दो पल की है, इसे हम जीना भूल गए।
मुस्कुराना आजकल सिर्फ ‘सेल्फी’ में होता है
वर्ना ‘मुस्कराहट’ का मतलब हम भूल गए।
‘कॉन्टेक्ट लिस्ट’ इतनी भर गई, बढ़ गई
कि हम पड़ोसी का नाम भूल गए।
‘नेटफ्लिक्स’ इतना अहम हो गया है कि हम ‘बुजुर्गों’ के साथ वक्त गुजारना भूल गए।
‘महंगा मोबाइल’ तो खरीद लिया हमने
परंतु ‘दान पुण्य’ करना हम भूल गए।
इस टेव्नâोलॉजी भरी जिंदगी में हम खुद भी ‘मशीन’ बन गए।
जिंदगी का सही रूप, लक्ष्य क्या था,
मगर हमने ‘क्या से क्या’ बना दिया है?
हम जीवन में आने का मकसद भूल गए हैं
चलते-चलते हम इतनी दूर आ गये हैं
कि अपने ही घर का रास्ता
यानी अपनी ‘आखिरी मंजिल’ भूल गए हैं।
– गुरमीत कौर

वृक्ष बचाओ विश्व बचाओ
कंटीली कोई बबूल की झाड़ी
या हो लंबा खजूर का पेड़,
इनके लाभ सभी पाते हैं
बच्चे, बूढ़े या हों अधेड़!
-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि

जिंदगी की रफ्तार…
रोकनी पड़ जाती है रफ्तार जीने की कई दफा,
हादसे यूं चुपके से शामिल हो जाते हैं, जिंदगी में।
यकीन डगमगाने लगता है खुदा पर से भी,
सोचने लगते हैं क्या रखा है उसकी बंदगी में।
तमाम उम्र काट दी इंसानियत के रास्ते चलकर,
सोच तक भी कभी शामिल न रही दरिंदगी में।
मुखौटा लगाए रहे जो लोग शराफत का उम्र भर,
नकाब उतर गए उन सबके सच की ताबिंदगी में।
चेहरे शामिल थे सब अजीजों के तबाही में हमारे,
हम उनके नाम तक न ले पाए शर्मिंदगी में।
भेज दी है अर्जी जिंदगी का हिसाब करने की,
खुदा के पास अपने गुनाहों की नुमाइंदगी में।
-एडवोकेट बृज लाल तिवारी
गोंडा (उ.प्र.)

‘अश्कों के पैमाने’
हमने ‘उनको’ अपना जाना, हम कितने ‘दीवाने’ हैं
फूलों का ‘भ्रम’ पाल रखा है, ‘कांटों के जमाने’ हैं।
नया इलाज रास न आया, ‘जख्म सदियों पुराने’ हैं
‘उलफत’ में ये वैâसी ‘आफत’? तेवर अभी आजमाने हैं।
मुहब्बत पर ‘पहरे की बातें’ ये तो ‘कोरे बहाने’ हैं
जिनको मिलने आना होता,चले आते ‘सीना ताने’ हैं।
‘गीत / गजल’ मेरे लिखे ‘नगमें’ तुम्हीं को सुनाने हैं
लिख गया हूं ‘धुन में तेरी’ तुम्हीं को आकर गाने हैं।
दिख रहे जो ‘दाग वफा के’  बेवफा  तेरे ‘तानें’ हैं
‘निगाहें समंदर’ में तेरी, ‘हर्फ’  मेरे बह जाने हैं।
प्यार हमारा एक ‘हकीकत’ बाकी सब ‘अफसाने’ हैं
लौट के आजा ओ ‘बेदर्दी’ हम नहीं ‘बेगाने’ हैं।
कितने ‘पल मिलन के’ गुजरे, कितने ही ‘गुम’ जाने हैं?
ठहर गए जो ‘खुश्क’ आंखों में ‘अश्कों के पैमाने’ हैं।
– त्रिलोचन सिंह ‘अरोरा’

वह
बालक
अबोध
जब किसी का
पहला चरण भ्रष्ट हो
आचरण विशिष्ट
विचार क्लिष्ट
भाषा समझने में कष्ट हो
सतर्क हो जाइए वह गिरने वाला है
समझदारी दिखाइए
लपक कर हाथों हाथ लीजिए
जो मांगता है उसे दीजिए
गिर रहा है तो उठाइए
छाती से चिपकाइए
पीठ ठोक गले से लगाइए
फिर वह चलेगा
जो चाहेंगे करेगा
हाथी को ऊंट गधे को घोड़ा
जो कहेंगे कहेगा
वह बालक अबोध
उसे दोनों हाथ में लड्डू चाहिए
फिर वह मुंह भी खोलेगा
उसमें भी एक रख दीजिए
फिर वह आपके पीछे दौड़ेगा
छिछिले गहरे पौंड़ेगा
आपके कहे बोलेगा
आपके कहे डोलेगा
तब आप खुश होंगे
उसकी तरह हसेंगे बोलेंगे
खिलखिलाएंगे तुतलाएंगे
उसे अपना बताने में
मनचाहा चलाने में
फूले नहीं समाएंगे
मित्र!
सोते समय
बस उसी के नहीं
अपने आचरण पर भी
विचार कीजिएगा…
-डॉ. एम डी सिंह,
गाजीपुर, उ.प्र.

पतझर

हर पतझर में छुपी हुई हैं, जीवन की बुनियादें।
मौसम बिरही बिरह जगाए, मधुर मिलन की यादें।।
जल्दी ही उगने वाला है, सुख का सूरज घर में।
नव कोंपल नव पल्लव पुष्पित, होगा तरु घर घर में।।
नहीं दुखी होना रे साथी, तोड़ न देना वादे।
हर पतझर में छुपी हुई हैं, जीवन की बुनियादें।।
पावस के सुखमय मौसम में, रोने का मन होता।
चार दिनों की धवल चांदनी, खोने का डर होता।।
जब दुनिया त्योहार मनाए, करता मैं फरियादें।
हर पतझर में छुपी हुई हैं, जीवन की बुनियादें।।
देख संपदा दर्प निगोड़ी, मुझको भी ललचाती।
बार-बार उजले दामन पर, काजल लेप लगाती।।
तोड़ नहीं पाता मन चंचल, मेरे अचल इरादे।
हर पतझर में छुपी हुई हैं, जीवन की बुनियादें।।
-डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’

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