बीरन के बीर पुकार!
जब संताबनि के रारि भइलि, बीरन के बीर पुकार भइलि।
बलिया का ‘मंगल पांडे के बलिबेदी से ललकार भइलि
‘मंगल’ मस्ती में चूर चलल पहिला बागी मसहूर चलल।
गोरन का पलटनि का आगे बलिया के बांका शूर चलल
गोली के तुरत निसान भइल जननी के भेंट परान भइल।
आजादी का बलिवेदी पर ‘मंगल पांडे’ बलिदान भइल
जब चिता-राख चिनगारी से धुधुकत तनिकी अंगारी से।
सोला निकलल, धधकल, फइलल, बलिया का क्रांति
घर-घर में ऐसन आगि लगलि भारत के सूतल भागि जगलि।
अंगरेजन के पलटनि सारी बैरक से भागि चललि
बिगड़लि बागी पलटनि काली जब चललि ठोंकि आगे ताली।
मचि गइल रारि पड़ि गइलि स्याह गोरन के गालन के लाली
भोजपुर के तप्पा जाग चलल मस्ती में गावत राग चलल।
बांका सेनानी कुंवर सिंह आगे फहरावत पाग चलल
टोली चढ़ि चलल जवानन के मद में मातल मरदानन के।
भरि गइल बहादुर बागिन से कोना-कोना मयदानन के
ऐसन सेना सैलानी ले दीवानी मस्त तूफानी ले।
आइल रन में रिपु का आगे जब कुंवर सिंह सेनानी
खच-खच खंजर तरुवारि चललि कृपान, कटारि चललि।
बर्छी, बर्छा का बरखा से बहि तुरत लहू के धारि चललि
बंदूक दगलि दन-दनादन गोली दउरलि सन-सनासन।
भाला, बल्लम, तेगा, तब्बर बजि उठल उहां खना-खन
खउलल तब खून किसानन के जागल जब जोश जवानन के।
छक्का छूटल अंगरेजनि के गोरे-गोरे कपतानन के
बागी सेना ललकार चललि पटना-दिल्ली ले झारि चललि।
आगे जे आइल राह रोक रन में उनके संहारि चललि
बैरी के धीरज छूटि गइल जन्नु घड़ा पाप के फूटि गइल।
रन से सब सेना भागि चललि हर ओर मोरचा टूटि गइल
तनिकी-सा दूर किनार रहल भारत के बेड़ा पार रहल।
लउकत खूनी दरिआव पर मंजलि के छोर हमार रहल।
-रत्नेश मिश्र
उलझी है ये दुनिया!
चार मुर्खों के वसूल में
उलझी है ये दुनिया
हिंदू, मुस्लिम, सिंख,ईसाई
कहती है जिसे दुनिया
अपने-अपने धर्मों को
सब अच्छा कहते हैं
जब इंसान में इंसानियत ही
नहीं तो फिर ये क्यों कहते हैं।
चार रंगों के वसूल में
उलझी है ये दुनिया।
फिर काले गोरे का
भेद न मिटाती ये दुनिया
नालंदा जला बंगाल जल रहा
जल रही सारी दुनिया
इस आग में राजनीति की
सेंकती है सब रोटियां
चार मुर्खों चतुर बन वर्ना
जल जाएगी तेरी दुनिया
धर्म के दलदल में न फंस वर्ना
मुरझा जाएगी तेरी कलियां
प्यार से बड़ा कोई धर्म नहीं
मेरी बातों को मानो तो सही
फिर स्वर्ग बनेगी तेरी दुनिया
चार मुर्खो के वसूल में
उलझी है ये दुनिया।
संजीव कुमार पांडेय, नालंदा
वृक्ष बचाओ विश्व बचाओ
मानव के लिए ही धरती पर
रहते हर जगह वृक्ष मौजूद,
वृक्षों के बिना तो धरती पर
नहीं मानव का कोई वजूद!
-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि
आदर्श
भ्रष्टाचार की नदी पर
आदर्श के पुल ढहने लगे हैं
नदी के किनारे पर काई
आभास कराती है दूर से
फिसलन का आशा से भरी दुनिया में
कभी न पूरे होनेवाले
सपनों का बोझ लिए
आंखों में एक अजीब-सी
चाहत लिए पार पाना चाहता है।
वह आम इंसान दुश्वारियों से
स्वाभिमान के साथ
जाकर उस किनारे
मानवीय संवेदनाओं से परे
काठ की कश्ती पर होकर सवार
कर रहा है वह कोशिश पार करने की
अपेक्षाओं और उपेक्षाओं के
मंडराते घने बादलों के नीचे
धीरे होने का
नाम नहीं ले रही `सुधीर’
तेज गति से बहती नदी!
-सुधीर केवलिया, बीकानेर
आ जाओ, लौटकर आ जाओ!
आ जाओ, लौटकर आ जाओ।
तुम हमारे थे तुम हमारे हो,
तुम हमारे ही रहोगे
ये बात समझ लो तुम।
बंधन अटूट वर्षों का है
मान बढ़ाया है महाराष्ट्र बचाया है
वड़का बनकर संभाला है
दधीचि भी बने श्रवण भी बने
फिर क्यों पथ भ्रमित हुए।
आस्था पर ऊंगली उठी
उसूलों पर सवाल उठे
निष्ठा धूल धूसरित हुई
अरमां अधूरे रह गए।
मंजिल करीब ही थी
जन-जन की उम्मीद भी थी
क्यों आस्तीन के सांप बन गए?
अंतरात्मा की आवाज सुनो
रात का भूला दिन में घर लौट आए
यही तमन्ना है यही अरमान भी है।
यूं रूसवा नहीं होते
अपने-अपने ही हैं होते
आ जाओ लौटकर आ जाओ
पलकों पर बिठा लेंगे
आ जाओ लौट के आ जाओ।
अनिल महेंद्रू
जल कुंभी…!
जल कुंभी गंगा में बह आई है
यहां भला वैâसे रह पाएगी हाय,
बंधे हुए जल में जो रह आई है
जल कुंभी…!
नौका परछाई को तट माने है
हर उठती हुई लहर को अकसर
हवा चले हिलता पोखर जाने है
अपनावे पर यह विश्वास
फिर न कभी आ पाऊंगी शायद
घाट-घाट कह आई है
जल कुंभी…!
बरखा की बूंद हो कि शबनम हो
पानी की उथल-पुथल
चाहे कुछ ज्यादा हो या थोड़ी-सी कम हो
कभी नहीं तकती आकाश
इससे भी कहीं अधिक सुख-दु:ख वह
अब तक की यात्रा में सह आई है
जल कुंभी…!
-अमन कुमार
बहती रहे उम्मीदों की धारा!
एक उम्मीद पर जीवन टिका,
उम्मीदें जीवन का सहारा।
उम्मीद पर दुनिया कायम,
बहती रहे उम्मीदों की धारा।
ढलता हुआ ऊर्जा स्रोत सूर्य,
सुबह उगने का विश्वास दिलाता।
कल जो होगा अच्छा होगा,
जीने की उम्मीद जगाता।
उम्मीद न छोड़ो जीवन में कभी,
एक दिन पूर्ण होगी आशाएं।
सपने मूर्त रूप धारण करेंगे,
पल्लवित होगी सब कामनाएं।
उम्मीद का दीपक जलाएं,
दु:ख का अंधेरा भागेगा।
महकेंगी सुख का फसलें,
खुशहाली का दिन आएगा।
परिवार, देश, समाज की,
उम्मीदों का ही हो बसेरा।
उम्मीद का दामन पकड़,
लाएं जीवन में नूतन सबेरा।
चंद्रकांत पांडेय,
मुंबई
अपना जीवन खुद जीना है!
आशा और निराशा क्या
जीवन की परिभाषा क्या।
समय लड़ रहा रोज हमी से
अपनी भी अभिलाषा क्या है।
कोशिश करना धर्म हमारा।
और भाग्य की भाषा क्या।
हालातों से जंग छिड़ी है।
क्या है जीत हताशा क्या।
अपनापन भी बिखर गया है।
क्या है प्यार दिलासा क्या।
अपना जीवन खुद जीना है।
अब औरों से आशा क्या।
दुख से बाहर खुद आना है।
मत पूछो परिभाषा क्या।
छोटे से अपने जीवन में।
क्या है बात तमाशा क्या।
बातों का जंगल है केवल।
क्या है दर्द हताशा क्या।
मन भर जीना बहुत जरूरी।
तोला रत्ती माशा क्या।
आशा और निराशा क्या
जीवन की परिभाषा क्या।।
– अन्वेषी
वक्त के साथ सब कुछ
बदल जाता है!
कागजी गुलदस्तों में दौर-ए -गुलाब कहां
बनावटी दुनिया में रिश्तों की बात कहां!
वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है
फितूर मेरा-तेरा गरूर बदल जाता है!
मेरी जुस्तजू का मुकाम मिल नहीं पाया
ख्वाहिशों में जिंदगी से मिल नहीं पाया!
मोहब्बत में भी हमनें नफरतें पाल रखी हैं
क्योंकि गुलाबों में हमनें कांटे उगा रखें हैं!
तुझे मेरी मोहब्बत का इल्म तक ना हुआ
इधर तेरे ख्यालों में दिल मेरा बावरा हुआ!
मुझे गिला नहीं अब मैं तेरा शहर छोड़ चले
जिन पर था नाज वो खामोशियां ओढ़ चले!
भीड़ में घुसा मैं तो शोर में वैâसा गुम हो गया
मेरा वजूद भी खुद में कितना कम हो गया!
देखो वो दौलत से मेरा रसूख भी तौलते हैं
हम तो बस सिर्फ उनका वजूद तौलते हैं!
– प्रभुनाथ शुक्ल, भदोही