प्यारे बच्चों
आओ मेरे प्यारे बच्चों
एक बात बतलाता हूं
शिक्षा का महत्व है क्या
तुम सबको मैं समझाता हूं
शिक्षा हमें बनाती श्रेष्ठ
बिना किए किसी में भेद
जिसे मिला विद्या का ज्ञान
जग में हुआ उसका सम्मान
मान बढ़ाए मातृ-पिता का
सबको दिलाती है पहचान
अज्ञानता मिटाती शिक्षा
राह नई दिखलाती शिक्षा
सारे सपने पूरी करती
मंजिल तक पहुंचाती शिक्षा
जिसने थामा दामन इसका
हुआ भविष्य उज्ज्वल उन सबका
आओ हम सब करें प्रण
हर हाल में शिक्षा करें ग्रहण
नाम करें रोशन हम कुल का
महकाएं बगिया एक फूल सा
आओ मेरे प्यारे बच्चों
एक बात बतलाता हूं
-श्रवण चौधरी
देखेंगे
है कितना छल-बल देखेंगे,
आज नहीं तो कल देखेंगे।
गंगा-जमुनी तहजीबों की,
कांटों भरी फसल देखेंगे।
सोने को पिघला कर वैâसे,
बनता है पीतल देखेंगे।
जिनके पांवों में चप्पल है,
उनका शीशमहल देखेंगे।
दिल्ली के जंतर-मंतर पर,
रोज नया दंगल देखेंगे।
लालकिले पे चढ़कर वैâसे,
उतरेगा बक्कल देखेंगे।
– एड. राजीव मिश्रा
गजल
इश्क का यह हुनर देखिए,
रात में भी सहर देखिए।
हो गई है मिलावट बड़ी,
इसको भी राहबर देखिए।
खूबसूरत नजर आ रहा,
यह समां हमसफर देखिए।
बिन दवा वो शिफा पा गया,
बस दुआ का असर देखिए।
चांद उतरा जमीं पर मिरा,
इक दफा तो इधर देखिए।
-गोविंद भारद्वाज,
अजमेर, राजस्थान
नसीब
लंबा होता इंसानी साया
इशारा करता है उजाला ढलने को है
छोड़ देता है कुछ ही वक्त में साथ साया
चाहिए साये को भी तो साथ उजाले का
बचाए रखने के लिए वजूद खुद का…
उम्रदराज इंसान को भी
चाहिए होता है
साथ अपनों का
कुछ और वक्त के लिए ही सही
बचाए रखने के लिए वजूद खुद का…
नहीं देता है किसी का साया खुद उसे साया
नसीब में नहीं होता हर साये और इंसान के
उजाला और साथ अपनों का
कुछ और वक्त के लिए ही सही ‘सुधीर’
बचाए रखने के लिए वजूद खुद का…
– सुधीर केवलिया, बीकानेर
खुदकुशी
अलविदा सभी… मिलेंगे फिर कभी!
जिंदगी का सफर, रोकता हूं यहीं पर!
दिल यहां लगता नहीं, मंजिल है मेरी लगता और कहीं!
कहीं और चल ऐ जिंदगी अब यहां और रूका जाता नहीं,
इस दुनिया के दलदल में अब और धंसा जाता नहीं!
जिंदगी के उस तरफ क्या है,
जानने को अब मन बहुत आतुर है!
कुछ बेहतर हो शायद उस तरफ,
इधर तो सिर्फ अंधकार है हर तरफ
ऐसा ही कुछ विचार घेरता होगा,
जब कोई अपने जीवन से ऊबता होगा!
अपना यह अमूल्य जीवन खुद ही खत्म करना,
समय से पहले ही इस दुनिया को अलविदा कहना!
अपने प्रियजनों को उदास रोते छोड़कर,
दोस्तों-रिश्तेदारों से हमेशा को मुंह मोड़कर!
एकदम एक नई राह पर चले जाना,
जहां से नामुमकिन है वापस आना!
छिपाकर अपना मुखड़ा,
पीछे छोड़ जाना बस कागज का एक टुकड़ा।
मैं इसका जिम्मेदार खुद हूं या फिर
मैं अपनी मर्जी से खुदकुशी कर रहा हूं
भूलकर यह कि तेरा जीवन अमूल्य है,
मां-बाप के जिगर का एक टुकड़ा है!
किसी की राखी का धागा है,
किन्हीं बूढ़ी आंखों के जीने का आसरा भी है!
क्यों आखिर क्यों यह जरूरी है,
तेरा इस तरह अचानक जल्दी जाना क्यों जरूरी है!
क्यों उम्र अपनी पूरी जी नहीं सकते,
क्यों कुछ समय और ठहर नहीं सकते!
जिंदगी हर पल बदलती है, जीने को भरपूर मौका देती है,
यह मौत है जो मौकापरस्ती है, जरा बच के…
कमजोरों को ही सबसे पहले लपकती है!
– इं. पंकज गुप्ता, मुंबई
गुरूर
देखा मैंने इन बीते सालों में,
होते इस गुरूर को चकनाचूर।
तो अब मैं यह सोचती हूं,
किस बात का है हमें गुरूर।
मान-सम्मान, प्रतिष्ठा के लिए,
रोज करनी पड़ती है लड़ाई।
जो समाज की रीत है,
आज भी उसी की है ये परछार्इं।
जिस धन के लिए की है इतनी मेहनत,
वह भी न आया काम।
लेकिन फिर भी धन के मूल्यों पर,
इंसान की होती है पहचान।
देखा है मैंने इंसान में,
संघर्षों का सुरूर।
तो अब मैं यह सोचती हूं,
किस बात का है गुरूर।
दिन बदले, माह बदले,
बदले हैं कितने साल,
स्वयं से की गई लड़ाई का,
न मिलता है कोई सार।
स्वाभिमान की सीमा है,
और अभिमान के कई हैं रूप।
जीवन के खेल में,
इसकी व्याप्ति है अनूप।
अतीत के पन्ने खो चुकी हैं,
जैसे मौसम ने बदले हों रूप,
तो अब मैं यह सोचती हूं,
किस बात का है हमें गुरूर।
– मानसी श्रीवास्तव ‘शिवन्या’
वृक्ष बचाओ
विश्व बचाओ
हर प्राणी का दुख हरते ये
हरते सबका ही क्रंदन हैं,
सबकी सांसों का आधार बने
हे वृक्षों सदा आपका वंदन है!
-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि
समझाया हमने
सब कुछ तो समझाया हमने।
गीता ज्ञान पिलाया हमने।।
मानव सेवा परम धर्म है।
हरदम यह चिल्लाया हमने।।
अंधेरे से बाहर निकलो।
कहकर रोज बुलाया हमने ।।
जनहित वाले संविधान को।
मेहनत करके लाया हमने।।
सारा खून पसीना देकर।
अपना देश बनाया हमने।।
लेकिन जो परिणाम चाहिए।
उसको कभी न पाया हमने।।
लगता है कुछ गलत हो गया।
सारा दर्द बढ़ाया हमने।।
किन-किन आदेशों में फंसकर।
सारा समय गंवाया हमने।।
कान पकड़कर कौन ऐंठता।
यह भी समझ न पाया हमने।।
भीतर वाले हर दबाव का।
उल्टा अर्थ लगाया हमने।।
बातें करता रहा स्वदेशी।
सिर पर कहां उठाया हमने।
पूंजीपतियों की चपेट में।
लोकतंत्र को लाया हमने।।
यहीं हमारी भूल हो गई।
इसमें देश फंसाया हमने।।
-अन्वेषी
समझें
तू भले ही खुद को आसमां समझे
हमारी मर्जी है की हम तुम्हें क्या समझें
गुरूर-ए-बादल की आखिर बिसात क्या है?
कल वहां तो आज यहां… समझे?
जो समझ रहा है वही समझे तुमको
हम क्यूं ही… तुम्हें सारा जहां समझें
समझ को समझ अब तलक न आई
जरा बता दो के हम कहां-कहां समझें
गलतफहमियां काबिज हैं हर जेहन में
वैâसे किसी का अंदाज-ए-बयां समझें
तुम्हारी ऊंचाई हो तुम्हें बखूबी मुबारक
हम जस के तस हैं फिर क्या नया समझें
-सिद्धार्थ गोरखपुरी