मुख्यपृष्ठस्तंभप्रासंगिक : ‘घाती’ सरकार का घातक विधेयक!.. एमएसपीएसए-२०२४ बेरोजगार युवाओं पर लगाम!

प्रासंगिक : ‘घाती’ सरकार का घातक विधेयक!.. एमएसपीएसए-२०२४ बेरोजगार युवाओं पर लगाम!

लोकमित्र गौतम

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ऑफ इंडिया के मुताबिक, साल २०२१ में देशभर में ३,५४१ और साल २०२२ में ३,१७० बेरोजगार युवाओं ने आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या करने वाले इन बेरोजगार युवाओं में सबसे बड़ी संख्या, देश के सबसे औद्योगिक रूप से विकसित माने जाने वाले राज्य महाराष्ट्र की थी। यहां साल २०२१ में ७९६ और २०२२ में ६४२ बेरोजगार युवाओं ने आत्महत्या कर ली थी, जो कि देश के किसी भी राज्य में आत्महत्या करनेवाले बेरोजगार युवाओं की संख्या के मुकाबले सबसे ज्यादा थी। पिछले चार सालों से लगातार महाराष्ट्र में औसतन हर दिन दो बेरोजगार युवक आत्महत्या कर रहे हैं। खेती चौपट हो जाने वाले किसानों और कर्ज के बोझ से दबे गरीबों की आत्महत्याओं के आंकड़े अलग हैं।
आप सोच रहे होंगे आखिर महाराष्ट्र में बेरोजगार युवाओं की आत्महत्या के ये आंकड़े विशेष रूप से क्यों गिनाए जा रहे हैं। दरअसल, इसके पीछे यह आशंका है कि महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे सरकार ने पिछले दिनों विधानसभा में जो ‘महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक-२०२४’ (एमएसपीएसए-२०२४) पेश किया है, कहीं वह आनेवाले दिनों में बेरोजगारी से गुस्साए और भड़के युवाओं पर लगाम कसने का हथियार न बन जाए? क्योंकि यूं तो इंप्रâास्ट्रक्चर के स्तर पर महाराष्ट्र देश का सबसे औद्योगिक राज्य है। लेकिन महाराष्ट्र में किस कदर बेरोजगारी है, इसकी एक झलक पिछले दिनों १९ जून २०२४ को तब देखने को मिली, जब महाराष्ट्र पुलिस में भर्ती के लिए निकले महज १७,४७१ पदों के लिए १७.७६ लाख आवेदन प्राप्त हुए। इन आवेदन कर्ताओं में ४० फीसदी युवक ग्रेजुएट या इससे ऊपर की शिक्षा पाए हुए थे।
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि महाराष्ट्र में किस कदर बेरोजगारी ने अपना शिकंजा कस लिया है। पिछले लगभग डेढ़ सालों में चाहे नाम मराठा आंदोलन का रहा हो या कोई और नाम, लेकिन सच्चाई यही है कि पूरे महाराष्ट्र में जो करीब एक दर्जन जगहों पर अलग-अलग वजहों से युवाओं ने जो आंदोलन किया, उसके मूल में वास्तव में बेरोजगारी ही थी। हाल के दिनों में महाराष्ट्र सरकार को जिस तरह बार बार इन आंदोलनों के सामने घुटने टेकने पड़े हैं, कहीं यह एमएसपीएसए-२०२४ विधेयक वैसी ही परिस्थितियों से निपटने की चुपचाप की गई कवायद तो नहीं हैं? क्योंकि शिंदे सरकार ने नक्सली संगठनों की गतिविधियों पर नकेल कसने के नाम पर जो बेहद डरावना कानून लेकर आ रही है, उससे भले कोई अर्बन नक्सल प्रभावित हो या न हो, मगर राज्य में लोकतांत्रिक तरीके से बेरोजगार युवाओं द्वारा बार बार अपनी बातें मनवाने के लिए किए जाने वाले आंदोलनों पर जरूर इसकी लगाम कस जायेगी।
इस विधेयक में १८ धाराएं हैं और माना जा रहा है कि इसके कानून बन जाने के बाद यह इतना कड़ा होगा कि १९९९ में संगठित अपराधों पर काबू पाने के लिए तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने जो मकोका (महाराष्ट्रा कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट) नामक कानून बनाया था, यह उससे भी कई गुना ज्यादा सख्त होगा। कहने को तो शिंदे सरकार यह कानून शहरों में बैठकर नक्सली गतिविधियां चलाने वालों पर शिकंजा कसने के लिए लाई है। लेकिन हकीकत ये है कि पिछले दस सालों में ऐसे दस नक्सली भी सरकार ने नहीं गिरफ्तार किए जो कथित रूप से पेश की जा रही, अर्बन नक्सल की परिभाषा के दायरे में आते हों। महाराष्ट्र सरकार ने हाल के सालों में जितने लोगों को भी अर्बन नक्सल के नाम पर गिरफ्तार किया है और उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाई की है, उन सबको लेकर समाज दो धड़ों में विभाजित रहा है, सिविल सोसायटी और देश के प्रबुद्ध वर्गों ने सरकार की इन कार्रवाईयों को अत्याचार बताया है।
लेकिन अब जिस तरह महाराष्ट्र की मौजूदा सरकार ‘महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक-२०२४’ कानून लाने जा रही है, उसके चलते तो पुलिस को इतनी ताकत मिल जायेगी कि वह जिसे चाहेगी, अर्बन नक्सलाइट घोषित कर देगी। भले बाद में कोर्ट से वह शख्स बरी हो जाए, लेकिन अगर पुलिस और सरकार चाहेगी तो तीन साल के लिए किसी को भी जेल भेज देगी। इसलिए इस खतरनाक कानून से राज्य को बचना चाहिए। आखिरकार महाराष्ट्र एक उच्च विकसित और आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य है, इसे उन राज्यों से बेमतलब होड़ नहीं करनी चाहिए, जहां सार्वजनिक सुरक्षा के नाम पर पुलिस के हाथ मजबूत करने वाले ऐसे कानून मौजूद हैं- जैसे ओडिशा, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश। इन सभी राज्यों में अगर देखा जाए तो पिछले पांच सालों में ऐसे मौजूद कड़े कानूनों के बावजूद पुलिस को तथाकथित अर्बन नक्सलियों के झुंड नहीं मिले।
भले राज्य सरकार कानून और व्यवस्था दुरुस्त न रख पाने की वजह ऐसे कानूनों का अभाव बता रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि सुरक्षा के नाम पर ऐसा कानून बनाकर पुलिस को बेइंतहा ताकत देना एक गंभीर राजनीतिक गलती होगी। एक बार अगर यह अर्बन नक्सलाइट के नाम पर कड़ा कानून थोप दिया गया और पुलिस को मनमानी ताकत दे दी गई, तो वह कानून और व्यवस्था के नाम पर किसी को भी नक्सलाइट साबित करने में देर नहीं लगाएगी। यह कानून दुधारी तलवार है, जिसके चलते किसी भी शहरी को अर्बन नक्सलाइट साबित करने में पुलिस को चंद घंटे भी नहीं लगेंगे। इसलिए ऐसे खतरनाक कानूनों से बचना ही चाहिए। यह कानून नक्सलाइट घोषित किए गए संगठनों की चल और अचल संपत्ति जब्त करने की ताकत जिला मजिस्टेट और पुलिस आयुक्त को देता है। एक बार अगर किसी संगठन को सरकार द्वारा गैरकानूनी घोषित कर दिया गया, तो डीएम या पुलिस आयुक्त, घर में मौजूद लोगों या दफ्तर को बेदखल कर सकते हैं। अगर उस घर में महिलाएं और बच्चे हुए तो भी कुछ समय देकर उन्हें बेदखल किया जा सकता है।
अगर इस कानून के चलते किसी शख्स को अर्बन नक्सलाइट संगठनों के साथ संबंध रखता पाया गया तो उसे बिना किसी चेतावनी के पुलिस तीन साल के लिए जेल के अंदर कर सकती है। शिंदे सरकार का कहना है कि महाराष्ट्र में माओवादी संगठन सबसे ज्यादा सक्रिय हैं, उनसे ही निपटने के लिए वह यह कानून ला रही है। लेकिन सरकार यह नहीं बता रही कि अगर वाकई देश में ऐसे समाज विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने वाले लोग या संगठन हैं, तो वह उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं कर रही? क्योंकि प्रदेश में ऐसे संगठनों और लोगों से निपटने के लिए पहले से ही कई महत्वपूर्ण कानून मौजूद हैं। फिर पुलिस इन कानूनों का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रही? जहां तक बात रही किसी विचारधारा के प्रति आकर्षित होने की, तो दुनिया में ऐसी कोई विचारधारा नहीं है, जो अमानवीय हो, अत्याचारी हो और फिर भी लोग उसकी तरफ खिंचे ही चले जाएं। धर्म को लेकर लोगों का उन्मादी होना एक बात है, लेकिन जहां तक राजनीतिक विचारधाराओं का संदर्भ है तो लोगों को कोई राजनीतिक विचारधारा तभी आकर्षित करती है, जब वे उससे खराब विचारधारा से शासित हो रहे हों। लेकिन ऐसे खिंचाव को कानून के डंडे से नहीं खत्म किया जा सकता, इसे खत्म करने का एक ही जरिया है, अपनी विचारधारा को और ज्यादा लोकतांत्रिक और ज्यादा मानवीय बना जाए।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)

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