लोकमित्र गौतम
अठारहवीं लोकसभा के लिए सात चरणों में तय मतदान का पहला चरण १९ अप्रैल २०२४ को पूरा हुआ था और दूसरे चरण की वोटिंग २६ अप्रैल २०२४ को होनी थी। लेकिन उसके पहले ही २२ अप्रैल २०२४ को भाजपा के खाते में पहली लोकसभा सीट सूरत से आ गई। जबकि अभी चुनाव मतगणना में पूरे ४३ दिन बाकी थे। क्योंकि तय चुनाव कार्यक्रम के मुताबिक १ जून २०२४ तक अलग-अलग सात चरणों में मतदान होना है और ४ जून २०२४ को वोटों की गिनती होनी है। लेकिन वोटों की गिनती के करीब डेढ़ महीने पहले भाजपा का खाता खुलना और फिर एक हफ्ते के भीतर ही ऐसा ही दूसरा खाता इंदौर से बस खुलने ही वाला था कि तकनीकी वजहों से अंतिम क्षणों में नहीं खुल पाया। क्योंकि पहले तो इंदौर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस के प्रत्याशी अक्षय कांति बम का नामांकन रद्द हो गया, लेकिन बाद में स्क्रूटनी कराये जाने पर अंतत: उनका नामांकन बच गया। मगर नामांकन तो बच गया, लेकिन शायद खेल की पटकथा लिखी जा चुकी थी, इसलिए उसको मंचित करने के लिए अक्षय कांति बम ने ऐन मौके पर अपना नामांकन वापस ले लिया। लेकिन यह खेल जितनी द्रुत गति से हुआ, उतनी ही तेज रफ्तार से इसे मुंह की भी खानी पड़ी, क्योंकि सूरत की तरह यहां बाकी सभी प्रत्याशियों ने अपने नामांकन वापस नहीं लिए। जबकि सूरत में कांग्रेस के निलेश कुंभानी और भाजपा के मुकेश दलाल के अलावा जिन ८ उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ने के लिए फॉर्म भरे थे, उनमें से निलेश कुंभानी के पर्चे के रद्द होने के बाद बाकी बचे आठों ने भाजपा के मुकेश दलाल के पक्ष में नाम वापस ले लिए थे। इस तरह २१ अप्रैल २०२४ को कांग्रेस उम्मीदवार का पर्चा रद्द हुआ और २२ अप्रैल २०२४ को मुकेश दलाल विजेता घोषित हो गए।
हालांकि, कोई प्रत्याशी पहली बार निर्विरोध नहीं चुना गया। अगर देश में चुनावों के इतिहास को देखें तो १९५१ से लेकर अब तक ३५ उम्मीदवार इसी तरह बिना किसी प्रतिरोध के चुने जा चुके हैं। जबकि अभी हाल ही में अरुणाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के १० उम्मीदवार भी इसी तरह निर्विरोध चुने गये थे। लोकसभा के लिए आखिरी बार निर्विरोध चुनाव साल २०१२ में कन्नौज लोकसभा में हुआ था, जहां उपचुनावों में सपा की डिंपल यादव निर्विरोध निर्वाचित हुई थीं। सवाल है जब अतीत में इस तरह की घटनाओं से डर नहीं लगता रहा तो फिर अचानक सूरत और इसके बाद निर्विरोध चुने जाने की प्रक्रिया पूरी होते-होते बची इंदौर में आखिर ऐसा क्या हुआ कि यह पूरा खेल बेहद डरावना लगने लगा? दरअसल, पहले वाकई ऐसी सहज स्थितियां बनती थीं कि किसी प्रत्याशी के विरोध में उम्मीदवार नहीं बचते थे। हालांकि, यह तब भी गलत था, लेकिन अब जबकि यह गतिविधि, चुनाव जीतने की बहुत ही खतरनाक रणनीति के रूप में आजमाई जा रही है, तब इसमें मौजूद षड्यंत्र की इस खेल को लोकतंत्र के लिए बेहद डरावना बन दिया है। अगर इस खेल में तुरंत वैधानिक रोक नहीं लगायी गई तो षड्यंत्र की बारूद से भरा यह खेल लोकतंत्र को धुआं-धुआं कर देगा। मौजूदा चुनाव में विपक्ष ने भाजपा की विशाल बहुमत से जीतने की मंशा को यह कहकर कटघरे में खड़ा किया है कि वह संविधान को बदलना चाहती है, लेकिन वह तो जब होगा, तब होगा। पर बिना चुनाव जीते जिस तरह से निर्विरोध रणनीति के तहत सीट हथियाने का जो फार्मूला निकाला जा रहा है, अगर वह वैधानिक बना रहा और इसी तरह कारगर होता रहा तो संविधान बिना बदले ही लोकतंत्र का अपहरण हो जाएगा।
सबसे पहले तो हमें इस संदर्भ में डरावनी पृष्ठभूमि के लिए अतीत को कोसना चाहिए कि आखिर निर्विरोध चुनाव जीतने की परंपरा ही क्यों डाली गई, जबकि लोकतंत्र में हर मतदाता का यह हक है कि वह अपने मत का इस्तेमाल करे? लेकिन इसे अगर हम इस बिना पर अतीत में निर्विरोध चुने गए प्रत्याशियों को छूट दे दें कि लंबे दौर तक लड़ी गई स्वाधीनता की लड़ाई के कारण न तो राजनीतिक मानस में और न ही उस दौर के जनमानस में ही ऐसी कोई भावना सोची भी जा सकती थी कि इस तरह की रणनीति के जरिए बड़े षड्यंत्रों को अंजाम दिया जा सकता है, लेकिन अब जबकि चुनाव जीतना कोई राजनीतिक और सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं रही, बल्कि येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाने का जरिया बन गया है, तब इसे पूरा करने के लिए राजनीतिक पार्टियां और राजनेता किसी भी हद तक जा सकते हैं तो लोकतंत्र के शुभचिंतकों को भी इस पूरे षड्यंत्र को गहराई से समझते हुए ‘चुनावी लोकतंत्र को’ इससे बचाने के लिए मजबूत वैधानिक उपाय करने होंगे।
निर्विरोध चुने जाने के रणनीतिक षड्यंत्र के बारे में सोचकर ही कंपकंपी छूट जाती है। गहराई से सोचने पर यह हाहाकारी प्रश्न उभरता है कि आखिर कुछ लोग भले वो १० हों या १००, आपस में फैसला करके किसी निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं का ‘प्रतिनिधित्व पाने के विशेषाधिकार का लोकतांत्रिक हक वैâसे छीन सकते हैं? आखिरकार सूरत में मुकेश दलाल और निलेश कुंभानी के अलावा जो ८ उम्मीदवार और चुनाव लड़ रहे थे, इन सब १० प्रत्याशियों को बिना चुनाव लड़े और जीत हासिल किए मतदाताओं के अपना जनप्रतिनिधि चुनने का स्वाभाविक अधिकारकैसे छीन लिया? आखिर इन १० चुनाव प्रत्याशियों को यह हक किसने दिया कि वे सूरत के लगभग ८ लाख से ज्यादा मतदाताओं की तरफ से फैसला ले लें कि फलां व्यक्ति उनका जनप्रतिनिधि बनेगा? हो सकता है चुनाव लड़ने पर वही व्यक्ति जीतता, लेकिन हजारों–लाखों ऐसे मतदाता भी तो होंगे, जो उसे वोट नहीं देना चाहते होंगे और वे उसके विरोध में मत डालने का अपना अधिकार पूरा करते। मान लीजिए वे उसके विरोध में किसी दूसरे प्रत्याशी को वोट न भी देते तो भी उनके सामने नोटा का ऑप्शन तो होता ही।
लेकिन जिस तरह से निर्विरोध के नाम पर कुछ लोगों ने लाखों मतदाताओं के लिए अपनी तरफ से प्रतिनिधि तय कर दिया, यह बेहद गैरलोकतांत्रिक तो है ही साथ ही अगर यह प्रक्रिया चुनाव आयोग के हक से संपन्न होने वाली प्रक्रिया है तो चुनाव आयोग को भी आखिरकार कैसे किसी मतदाता के हक का अपने निर्णय के चलते फैसला करने का अधिकार है? भारत में हर व्यक्ति को मतदान का बराबर का अधिकार है और गांधी जी ने इस अधिकार के लिए लंबी लड़ाई, दृढ़ इच्छाशक्ति और राजनीतिक सख्ती हमेशा बरकरार रखी थी। फिर आज गांधी जी की भावनाओं और संविधान की आत्मा के विरुद्ध यह षड्यंत्र क्यों हो रहा है? इसे जितना भी जल्द हो न सिर्फ खत्म किया जाना चाहिए, बल्कि इस खात्मे को बाकायदा वैधानिक जामा पहनाकर अनिवार्य किया जाना चाहिए कि बिना चुनाव लड़े कोई चुनाव नहीं जीतेगा। यह चुनाव की प्रक्रिया का भी अपमान है। क्योंकि चुनाव की समूची प्रक्रिया की आत्मा चुनाव होना ही है, चुनाव के लिए सहमति का नाटक करना नहीं है।
अगर इस खतरनाक खेल को यही नहीं रोका गया तो जल्द ही वह दिन आएगा, जब हर लोकसभा चुनाव में पहले दर्जनों और फिर सैकड़ों ऐसे निर्विरोध उम्मीदवारों के जनप्रतिनिधि बनने का सिलसिला शुरू हो जाएगा, जो न केवल एक सोची-समझी बल्कि षड्यंत्र की योजना से निर्मित गतिविधि होगी और तब अगर लोकतंत्र भी बना रहा तो वह एक तकनीकी मुखौटाभर रह जाएगा इसलिए भारत के हर उस मतदाता को जो अपने मतदान के हक की संवेदनशीलता समझता है, उसे निर्विरोध चुनाव के सूरत मॉडल के सफल होने और इंदौर में इस मॉडल के सफल होने से बाल-बाल बचने को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)