मुख्यपृष्ठस्तंभप्रासंगिक : भारत का नाम डुबोने वाले ये ‘कलंक’ एंबेस्डर

प्रासंगिक : भारत का नाम डुबोने वाले ये ‘कलंक’ एंबेस्डर

लोकमित्र गौतम

सालों पहले गीतकार शैलेंद्र ने राज कपूर की फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में भारतीयों की शान में एक गाना लिखा था, ‘हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है।’ इस गाने की हर पंक्ति भारतीयता के बखान से ओत-प्रोत थी और विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए उनकी गर्व से भरी पहचान बन गई थी। इसी गाने में एक पंक्ति है, ‘कुछ लोग जो ज्यादा जानते हैं, इंसान को कम पहचानते हैं… ये पूरब है, पूरब वाले, हर जान की कीमत जानते हैं…।’ इसका आशय था कि पश्चिमी दुनिया के लोग भले इंसान की कद्र करना न जानते हों, लेकिन हम भारतीय इंसान की कद्र करना खूब जानते हैं। लेकिन ये गाना अपनी जगह है और वास्तविकता अपनी जगह। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज पूरी दुनिया में बसे विदेशी लोगों में सबसे ज्यादा अनिवासी भारतीय और भारतीय मूल के लोग ही हैं। मगर जहां तक इंसान की कद्र करने और उसकी कीमत जानने का सवाल है, तो हम इसका दावा नहीं कर सकते। क्योंकि अगर ऐसा होता तो गुजरे २१ जून २०२४ को स्विट्जरलैंड स्थित जेनेवा की एक अदालत ने भारतीय मूल के एक परिवार के चार सदस्यों को अपने ही घर के नौकरों का शोषण करने और उन्हें कुत्तों से ज्यादा बदतर स्थिति में रखने के लिए चार और साढ़े चार सालों की सजा न सुनाई होती। जबकि ये नौकर कोई विदेशी नहीं, बल्कि मालिकों के अपने ही देश के गरीब लोग थे।
आरोप लगा था कि यह परिवार भारत से लाए गए अपने इन नौकरों का इस कद्र शोषण करता था कि उन्हें स्थानीय मुद्रा स्विस प्रैंâक में वेतन देने की बजाय भारतीय मुद्रा में देता था। घर से बाहर उनकी आवाजाही पर अघोषित प्रतिबंध लगाया हुआ था और इतने कम वेतन पर लंबे समय से काम किए जाने पर मजबूर किया हुआ था। इस परिवार के इन नौकरों में घर के रसोइये और दूसरे घरेलू नौकर थे, जो अक्सर हर दिन १८-१८ घंटे काम करते थे। बावजूद इसके उनके साप्ताहिक अवकाश का कोई दिन निश्चित नहीं था और साप्ताहिक अवकाश मिलेगा भी, यह भी तय नहीं था। अदालत में इस अमीर परिवार पर आरोप लगाया गया कि वह अपने नौकरों को स्विस कानून के मुताबिक दसवें हिस्से से भी कम वेतन दे रहा था और सुविधाओं के नाम पर किस्से कहानियों जैसा क्रूरतापूर्ण व्यवहार कर रहा था। यहां तक कि घर के नौकरों को कई बार बेसमेंट के फर्श पर सोना पड़ता था।
यह मामला है हिंदुजा परिवार का। जिस पर अपने नौकरों के विरुद्ध क्रूरता का यह कोई पहला आरोप नहीं है। साल २००७ में भी इस परिवार पर इसी तरह के आरोप लगे थे। लेकिन इसके बाद भी अभियोजकों के मुताबिक इस परिवार ने बिना कोई सबक लिए उचित दस्तावेजों के बिना अपने घर पर घरेलू नौकरों का रखना जारी रखा। यह अलग बात है कि इस परिवार पर मानव तस्करी का जो आरोप लगा था, अदालत ने उसे खारिज कर दिया। अदालत के मुताबिक, घर के नौकरों को इस बात का पता था कि उन्हें काम के लिए देश से यहां लाया गया है। स्विट्जरलैंड में जिस तरह का सख्त कानूनी शासन है, उसके चलते लग नहीं रहा था कि हिंदुजा परिवार को मिली यह सजा आने वाले दिनों में रफा-दफा हो पाएगी या जेल की सजा मुआवजे में परिवर्तित हो जाएगी। परंतु हुआ इससे एकदम विपरीत और सजा सुनाए जाने के अगले ही दिन अदालत ने इसे रद्द कर दिया, क्योंकि आरोप लगानेवालों ने अपना आरोप यह कहते हुए वापस ले लिया कि उन्हें गुमराह किया गया था। चूंकि हिंदुजा परिवार पर अपने नौकरों को कम वेतन देने का आरोप तो लगा ही, उनके पासपोर्ट अपने पास जब्त रखने और घर से बाहर न जाने देने के भी आरोप लगे थे, जो एक तरह से मजदूरों को बंधुआ बनाए जाने के आरोप हैं, जिसके लिए यूरोप में सख्त सजा है। इससे आशंका थी कि इस अरबपति परिवार को यह सजा भुगतनी ही पड़ेगी।
इस परिवार के विरुद्ध स्विट्जरलैंड में यह अदालती कार्यवाही १७ जून २०२४ से शुरू हुई थी और २१ जून २०२४ को निर्णय भी हो गया। जितने त्वरित रफ्तार से पैâसला हुआ, उतनी ही तेजी से वह बदल भी गया। फिर भी यह एक मानवीय और कानूनप्रिय समाज का द्योतक है। अदालती कार्यवाही में सरकारी वकील य्वेस बेरतोसा ने इस परिवार पर मानवीय गरिमा का अपमान करने का यह आरोप भी लगाया था कि यह परिवार अपने स्टाफ को जहां हर दिन औसतन ६५४ रुपए के हिसाब से सालभर में करीब २ लाख ३८ हजार रुपए देता था, वहीं घर में मौजूद कुत्तों की देख-रेख के दस्तावेज बताते हैं कि वह एक कुत्ते पर सालाना करीब ८ लाख रुपए से ज्यादा खर्च करता था।
हाल के दशकों में अनिवासी भारतीयों को भारत के सबसे बड़े ब्रांड एंबेस्डर के रूप में स्थापित करने का प्रयास हुआ। हर जगह उन्हें विदेशों में भारत का परचम फहराते दिखाए जाने की कोशिश होती है इसलिए ऐसी हरकतों से यह मानना चाहिए कि कुछ की वजह से भारत का परचम झुका भी है। भारतीय मूल के लोगों और अनिवासी भारतीयों द्वारा हर साल १ खरब डॉलर से ज्यादा विदेशी मुद्रा भारत भेजी जाती है और उस मुद्रा का भारत की तेज रफ्तार आर्थिक विकास दर में जबरदस्त योगदान भ्ाी है। इस वजह से भी भारत की सरकार हो या भारत का औद्योगिक तबका, कारोबारी हों या फिल्म निर्माता-निर्देशक, सब भारतीयों के इस योगदान के एहसान से दबे रहते हैं और इन्हें भारत का सबसे महान एंबेस्डर करार देते हैं।
बॉलीवुड ने हाल के दशकों में अपने कथानकों में किसी वजह से इन अनिवासियों को विशेष तौर पर सम्मान देने की कोशिश करते दिखा है, लेकिन एक दो नहीं, करीब ११ हजार से ज्यादा भारतीय विदेशों में किसी न किसी वजह से जेलों में बंद हैं, जिनमें सबसे ज्यादा १,८५८ भारतीय संयुक्त अरब अमीरात और १,३४६ भारतीय सऊदी अरब के जेलों में वैâद हैं, तो हो सकता है इसमें कुछ एक प्रतिशत ऐसे लोगों का हिस्सा भी हो जो वाकई इस मामले में निर्दोष हों, लेकिन सभी निर्दोष होंगे, ऐसा भी नहीं माना जा सकता।
दो साल पहले लोकसभा सांसद अरविंद धर्मपुरिया के पूछे गए एक सवाल पर विदेश राज्यमंत्री वी मुरलीधरन ने बताया था कि विदेशी जेलों में ८,२८० नागरिक वैâद हैं। इनमें १,२९७ भारतीय जेलों में वैâद हैं और ३,५८० भारतीयों को विदेशों की स्थानीय अदालतों में सजा भी हो चुकी है इसलिए हमें जहां भारत का मान बढ़ाने वाले भारतीयों के सम्मान में सिर झुकना चाहिए, वहीं भारत को शर्मसार करने वाले इन अनिवासियों को कलंक का एंबेस्डर भी करार देना चाहिए।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)

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