लोकमित्र गौतम
जारी १८वीं लोकसभा चुनावों के मध्य ५० दिनों के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को मिली अंतरिम जमानत वह घटनाक्रम है, जो मौजूदा चुनाव की समूची तस्वीर बदल सकता है। जी हां, तथ्य के रूप में भले यह एक मामूली घटना लगे और सत्तारूढ़ पार्टी की यह टिप्पणी भी कि ‘छूटे नहीं हैं, जमानत पर ही आए हैं’ भी चाहे भले इसे जितना छोटा करके दिखाने की कोशिश करे, लेकिन आप उस ताकत का अंदाजा नहीं लगा सकते जो आप में जोश भर दे, जो आपको उत्साही कर दे और अरविंद केजरीवाल की इस रिहाई ने ऐसा ही कुछ किया है और कर रही है। न सिर्फ आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता उनकी इस अंतरिम जमानत से उत्साह से भर गए हैं और विजयी गर्व महसूस कर रहे हैं, बल्कि इसी तरह की लहर विपक्षी इंडिया गठबंधन के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक भी पहुंची है। यह छोटी-मोटी बात नहीं है। यह लहर विपक्ष के लिए संजीवनी भी बन सकती है। खासकर, तब जबकि अभी तकनीकी रूप से लोकसभा चुनावों का आधा सफर ही तय हुआ हो।
गौरतलब है कि अब तक तीन चरणों के हुए मतदान में ५४३ में से २८५ सीटों पर ही चुनाव हुआ है। इसका मतलब यह है कि अभी २५८ सीटों पर चुनाव बाकी है और यह आंकड़ा इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि अरविंद केजरीवाल की नि:संदेह उपस्थिति की जहां सबसे ज्यादा जरूरत थी, उन किसी भी जगह पर अभी मतदान नहीं हुए। जाहिर है हम राजधानी दिल्ली जहां आम आदमी पार्टी की दो तिहाई बहुमत वाली सरकार है, हरियाणा जहां इस समय भाजपा सरकार तकनीकी रूप से अल्पमत में है और पंजाब जहां न सिर्फ आम आदमी पार्टी सत्ता में है, बल्कि कांग्रेस से चुनावी गठबंधन न होने के बावजूद वह अब तक के अनुमानों के मुताबिक, सबसे मजबूत है। हालांकि, कहने को राजधानी दिल्ली में महज ७, हरियाणा में १० और पंजाब में केवल १३ लोकसभा सीटें हैं, जो महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे किसी भी प्रांत के मुकाबले मिलकर भी आधी या उससे कम हैं, लेकिन इस गणित का जो सबसे नाजुक पहलू है, वह यह है कि अब जो २५८ सीटें मुकाबले के लिए बची हैं, वो ऐसी सीटें हैं, जहां पिछले आम चुनावों में भाजपा ने गदर काट दिया था यानी जबरदस्त जीत हासिल की थी। अगर राजधानी दिल्ली की बात करें तो भले विधानसभा चुनाव में कुल ७० सीटों में से आम आदमी पार्टी ने ६३ सीटें जीती हों, लेकिन जब बात लोकसभा चुनाव की आई तो राजधानी की सातों लोकसभा सीटें भाजपा के खाते में चली गईं।
लेकिन चुनाव भविष्यवाणी चाहे जितनी ही अबूझ पहेली हो, लेकिन यह तो नहीं होनेवाला कि इस बार राजधानी दिल्ली की सात में सातों सीटें भाजपा की झोली में जाएंगी। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ४ और कांग्रेस उसके साथ गठबंधन करके तीन सीटों पर चुनाव लड़ रही है। चुनावी गणित के जानकारों के मुताबिक, अभी तक राजधानी दिल्ली में नतीजों के जो अनुमान लगाए जा रहे हैं उसके अनुसार ४ भाजपा और ३ सीटें कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के साझे खाते में जाएंगी, लेकिन ये अनुमान १० मई की शाम के पहले के हैं। जब तक केजरीवाल जमानत से छूटकर बाहर नहीं आए थे और जिस समय मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं, केजरीवाल न सिर्फ दिल्लीवासियों को अपनी जीवंत उपस्थिति से उत्साही कर चुके हैं, बल्कि अपनी वाकपटुता से भाजपा की समूची चुनावी रणनीति को ही नैतिकता के कटघरे में खड़ा कर दिया है। अगर इससे उत्साहित होकर मतदाता इस अनुमानित आंकड़े में ३-४ की जगह ४-३ या ५-२ तक का फेरबदल कर दें तो भी आश्चर्य नहीं होगा।
यही बात हरियाणा में भी सही है। साल २०१९ में भाजपा ने यहां की दस में से दसों लोकसभा सीटें जीती थीं और इस साल लोकसभा चुनावों के ठीक पहले जिस तरह से पहले गठबंधन सरकार टूटी और इस समय जबकि मतदान होने में कुछ ही दिन बाकी हैं, भाजपा की सरकार तकनीकी रूप से ही सत्तारूढ़ है वरना तीन निर्दलीय विधायकों ने जो कि प्रदेश में भाजपा सरकार को महत्वपूर्ण आधार दे रखा था, वे उससे बाहर आ गए हैं, लेकिन प्रदेश सरकार चलती है या गिरती है यह फिलहाल राजनीतिक रुचि के मामले में दूसरे नंबर का विषय है। पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या आज जो परिस्थितियां हैं, उनमें भाजपा पिछली बार की तरह दस में से दसों सीटें जीत पाएगी? यहां भी २०१९ का नतीजा ज्यों का त्यों दोहराना असंभव लग रहा है। वैसे तो ज्यादातर जानकार यहां भाजपा और विपक्ष को फिफ्टी-फिफ्टी की संभावनाओं से देख रहे हैं, लेकिन अगर बहुत कट्टर ढंग से भी सोचा जाएं तो भी भाजपा ६ सीटों से ज्यादा शायद ही हरियाणा से ले पाए। इस तरह देखें तो भाजपा यहां भी भारी नुकसान में है।
अगर बात पंजाब की करें तो पंजाब में तो भाजपा कभी भी इतनी मजबूत नहीं रही कि वह बिना किसी मजबूत साझेदार के पंजाब में कोई उलट-फेर कर सके। पिछली बार भी यहां की १३ लोकसभा सीटों में से कांग्रेस के नेतृत्ववाले यूपीए गठबंधन को ८, शिरोमणि अकाली दल को २, भाजपा को २ और आम आदमी पार्टी को एक लोकसभा सीट मिली थी। तब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने सम्मिलित रूप से ४७.०५ फीसदी मत हासिल किए थे, जबकि भाजपा और अकाली दल को सम्मिलित रूप से ३७.०८ प्रतिशत मत मिले थे। इस तरह देखा जाए तो २०१९ में भी भाजपा और अकाली दल का साझा मत प्रतिशत कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के साझे मत से १० फीसदी कम था। इस बार तो पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है। कांग्रेस की मजबूत पृष्ठभूमि है और अब इन दोनों ही के ऊपर सोने में सुहागे की तरह अरविंद केजरीवाल का अंतरिम जमानत के तहत जेल से बाहर आना है। भले कांग्रेस और आप मिलकर चुनाव न लड़ रहे हों, लेकिन पंजाब में भाजपा कितना ही सकारात्मक सोच ले, लेकिन वह बहुत उलट-फेर करने की स्थिति में नहीं है। भले कांग्रेस के कई दिग्गज टूटकर उसके पास आ गए हों, लेकिन पाला बदलकर आनेवाले नेताओं की ताकत की एक सीमा होती है।
लब्बोलुआब यह कि पंजाब में भी पलड़ा इंडिया गठबंधन का ही भारी पड़ता दिख रहा है। इस तरह पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की ३० सीटों में जहां अरविंद केजरीवाल का सीधा-सीधा प्रभाव देखने में आएगा, वहीं यह भी हकीकत है कि केजरीवाल के रिहाई का सकारात्मक संदेश विपक्ष के खाते में उत्तर से लेकर दक्षिण तक समूचे देश में जाएगा, क्योंकि ईडी की तमाम कोशिशों के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने हालांकि केजरीवाल को कुछ शर्तों के साथ जमानत दी है, लेकिन इन शर्तों में उसने कहीं पर भी यह नहीं कहा कि केजरीवाल चुनावी गतिविधियों में भाग नहीं ले सकेंगे या प्रचार नहीं कर सकेंगे या राजधानी दिल्ली से बाहर नहीं जाएंगे, जिसका साफ मतलब है कि केजरीवाल न सिर्फ दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में अपनी धुआंधार उपस्थिति दर्ज कराएंगे, बल्कि वह देश के अलग-अलग कोनों का भी तूफानी दौरा करेंगे और सबसे बड़ी बात यह है कि अरविंद केजरीवाल को यह मौका इन चार चरणों के चुनाव में आखिरी दिन तक हासिल होगा। उन्हें आगामी २ जून को सरेंडर करना है और उस सरेंडर को लेकर भी अभी कई परिस्थितिजन्य आशंकाएं हैं। सुप्रीम कोर्ट मौजूदा तर्कों के चलते केजरीवाल को दोबारा से जेल में रखने की इच्छुक नहीं हैं, लेकिन उन पर एक-दूसरे केस के तहत भी सुनवाई होनी है, अगर वह इनके ज्यादा खिलाफ जाएगा, तभी केजरीवाल दोबारा से सलाखों के पीछे जाएंगे।
लब्बोलुआब यह है कि केजरीवाल की इस अंतरिम जमानत में १८वीं लोकसभा चुनावों के जारी सफर की दिशा को एकदम से बदल दिया है। अगर सत्तारूढ़ भाजपा तेजी से फिर इस सफर पर अपना नियंत्रण नहीं स्थापित करती तो नतीजों की गाड़ी कहीं की कहीं पहुंच सकती है।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)