लोकमित्र गौतम
१८वीं लोकसभा चुनाव के पहले फेज की वोटिंग १०२ सीटों पर १९ अप्रैल को हुई थी, जबकि ८८ सीटों के लिए दूसरे चरण की वोटिंग २६ अप्रैल २०२४ को हुई। पहले चरण की वोटिंग के बाद शाम को मीडिया में मतदान प्रतिशत का जो आंकड़ा जारी हुआ, वह करीब ६१ फीसदी के आस-पास था, लेकिन जब ११ दिनों बाद चुनाव आयोग ने २ फेज की वोटिंग का फाइनल डेटा जारी किया, तो उसके मुताबिक, पहले चरण में कुल ६६.१४ फीसदी मतदान हुआ था, जबकि दूसरे चरण का वोटिंग टर्नआउट ६६.७१ फीसदी था। इस पर हंगामा खड़ा हो गया। टीएमसी के नेता डेरेक ओब्रायन ने कहा, ‘चुनाव आयोग के आंकड़े संदेहास्पद हैं।’ उनके मुताबिक, ‘पहले फेज के आंकड़ों में ५.७५ फीसदी की बढ़ोतरी की गई है, यह नॉर्मल नहीं है, कुछ तो है जो गड़बड़ है।’ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सवादी के नेता सीताराम येचुरी ने सोशल प्लेटफॉर्म एक्स पर कहा, ‘चुनाव आयोग पहले दो चरणों में मतदान का जो शुरुआती आंकड़ा दिया था और जो फाइनल जारी किया है उनमें फर्क है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि आखिर हर संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की पूरी संख्या क्यों नहीं बताई जाती? जब तक यह संख्या नहीं पता चलेगी, प्रतिशत का आंकड़ा बेकार है? कुल मिलाकर सीताराम येचुरी ने भी यही कहा कि कुछ फेरफार की आशंका है।
वास्तव में विपक्षी राजनीतिक पार्टियों के करीब-करीब सभी नेताओं ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाया है कि वह समय से मतदान आंकड़े जारी न करके कुछ खेल कर रहा है। विपक्षी राजनेताओं की इसी मंशा को आवाज देते हुए एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की कि मतदान प्रतिशत अपलोड होने में देरी क्यों की जा रही है? साथ ही गुजरी ११ मई २०२४ को कई गैर सरकारी संगठनों ने देश के विभिन्न शहरों में चुनाव आयोग के खिलाफ प्रदर्शन किया। इस दौरान प्रदर्शनकारी अपने हाथ में पकड़ी गई तख्तियों में लिख रखा था, ‘ग्रो ए स्पाइन ऑर रिजाइन’ यानी दृढ़ता दिखाओ या इस्तीफा दो। यही नहीं, इस दौरान देश के १२ बड़े शहरों से करीब ३००० लोगों ने चुनाव आयोग को शिकायती पत्र भी लिखा और इन सब में भी एक ही बात की शिकायत है कि आखिर चुनाव आयोग ऐसा क्या खेल कर रहा है कि जिसकी वजह से मतदान आंकड़े इतनी देरी से जारी किए जा रहे हैं? कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे ने इन सब आंदोलनों और आरोपों के मद्देनजर कहा, ‘इन संदेहों को कम करने के लिए चुनाव आयोग को न सिर्फ हर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र का डेटा जारी करना चाहिए, बल्कि उसे प्रत्येक मतदान केंद्र में वोटर टर्नआउट डेटा भी जारी करना चाहिए।’ पता नहीं चुनाव आयोग को मतदान आंकड़े देर से जारी करना संदेहास्पद क्यों नहीं लग रहा, क्योंकि कई पत्रकार संगठनों ने भी चुनाव आयोग से हर चरण के मतदान के बाद प्रेस कॉन्प्रâेंस करने और हुए मतदान के आंकड़ों को तात्कालिक रूप से मीडिया के साथ साझा करने की पुरानी परंपरा को कायम रखने की गुजारिश की है।
बहरहाल चुनाव आयोग पर हर तरफ से सवालों की बौछार हो रही है कि आखिर मतदान आंकड़े जारी करने में इतना समय क्यों लिया जा रहा है? इस पर आयोग ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है, ‘आयोग किसी निर्वाचन क्षेत्र-राज्य या चुनाव के एक चरण के समग्र स्तर पर किसी भी वोटर टर्नआउट डेटा को प्रकाशित करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं है। क्योंकि वोटर टर्नआउट केंद्र स्तर पर वैधानिक फॉर्म १७ सी में दर्ज किया जाता है, जिसे पीठासीन अधिकारी तैयार करते हैं और उपस्थित उम्मीदवारों के मतदान एजेंट उस पर दस्तखत करते हैं। फॉर्म १७सी की प्रतियां पारिदर्शित के सबसे मजबूत उपाय के रूप में उपस्थित मतदान एजेंटों के साथ साझा की जाती हैं इसलिए उम्मीदवार जागरूक हैं।’ हालांकि, पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने इस संबंध में मौजूदा चुनाव आयोग के रवैए को उचित तो नहीं समझा, साथ ही उन्होंने यह भी कहा, ‘ये कहना सही नहीं है कि चुनाव आयोग सत्ताधारी पार्टी को लेकर सॉफ्ट है, लेकिन यह जरूरी है कि चुनाव आयोग उन वजहों का पता लगाए और उन पर काम करे, जिनकी वजह से मीडिया के एक हिस्से में चुनाव आयोग की छवि संदेहास्पद बन रही है।’ एक अन्य पूर्व चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने भी चिंता जताई है कि आखिर चुनाव आयोग इस तरह क्यों व्यवहार कर रहा है कि उसके इरादे को लेकर कुछ लोगों में शक पैदा होता है?
दरअसल, इसमें कोई दो राय नहीं है कि चुनाव आयोग की यह दलील अपने आप में बहुत मजबूत है कि जब १७ सी में मुहर के साथ पोलिंग बूथ में पड़े मतों का आंकड़ा पोलिंग एजेंट के पास मौजूद है तो फिर उसके इरादे पर सवाल क्यों खड़े हो रहे हैं? लेकिन यह बात भी समझ से बाहर है कि अगर २०१४ तक हर दिन चुनाव आयोग उस दिन हुए मतदान के आंकड़े जारी कर देता था और २४ से ३६ घंटों में फाइनल आंकड़े भी जारी हो जाते थे तो अब ऐसी क्या समस्या आ गई है, जो यह संभव नहीं हो रहा? गौरतलब है कि देर से आंकड़े जारी करने का यह सिलसिला २०१९ से शुरू हुआ था और तब भी एडीआर ने चुनाव आयोग के इस रवैए पर सवाल उठाए थे तथा एडीआर ने तब अपनी जनहित याचिका में एक अंतरिम आवेदन दायर किया था कि चुनाव आयोग को निर्देश दिया जाए कि वह मतदान के तुरंत बाद सभी मतदान केंद्रों के फॉर्म १७ सी-१ (मतों का लेखा-जोखा) स्वैâन की गईं सुपाठ्य प्रतियां अपलोड की जाएं। उस आवेदन को याद करते हुए १७ मई २०२४ को जब भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के साथ तीन जजों की बेंच ने चुनाव आयोग की वकील से पूछा कि हर मतदान अधिकारी शाम ६ से ७ बजे तक कितना मतदान हुआ, उसका रिकॉर्ड जमा करता है, जिसके बाद रिटर्निंग ऑफिसर के पास पूरे निर्वाचन क्षेत्र का डाटा होता है, तो आप इसे अपलोड क्यों नहीं करते? वास्तव में चुनाव संचालन नियम १९६१ के ४९एस और नियम ५६सी २ के तहत पीठासीन अधिकारी को फार्म १७सी-१ में दर्ज वोटों का लेखा जोखा तैयार करना होता है।
इस पर चुनाव आयोग के वकील ने जवाब देने के लिए थोड़ा समय मांगा और सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई कर रही विशेष बेंच ने भी उन्हें अगली २४ मई २०२४ तक समय दिया है। अगली सुनवाई छठें चरण के मतदान के एक दिन पहले २४ मई २०२४ को होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि तब चुनाव आयोग हर सवाल का ऐसा स्पष्ट जवाब देगा कि दूध का दूध, पानी का पानी अलग हो जाएगा। क्योंकि भले अभी यह बात आंकड़ों की जटिलताओं के मध्य समझ में न आ रही हो, लेकिन देर से आंकड़े जारी करने के संबंध में याचिकाकर्ता एनजीओ ने जो आरोप लगाए हैं, उसके मुताबिक, चुनाव आयोग ने देरी के बावजूद जो आंकड़े जारी किए हैं, याचिकाकर्ता एनजीयो एडीआर के मुताबिक, उनमें बड़ा फर्क है। इस घटनाक्रम में सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध मतदान डेटा की प्रामाणिकता पर सवाल खड़े कर दिए हैं? बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने गेंद चुनाव आयोग के पाले में डाल दी है इसलिए अब उसे संतोषजनक जवाब देना ही होगा कि पहले चरण के मतदान के ११ दिन बाद और दूसरे चरण के मतदान के ४ दिन बाद मतदान डाटा क्यों जारी किया गया और यह संख्या की बजाय प्रतिशत में क्यों जारी किया गया है? ये ऐसे सवाल हैं अगर इनका संतोषजनक जवाब चुनाव आयोग नहीं देगा तो कुछ न करने के बावजूद उसका रवैया संदेहास्पद बना रहेगा।
(लेखक विशिष्ट मीडिया एवं शोध संस्थान, इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर में वरिष्ठ संपादक हैं)