संजय राऊत -कार्यकारी संपादक
श्री राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान पठानकोट से जम्मू तक पदयात्रा की। कश्मीर की खून जमा देनेवाली ठंड-बर्फ में भी यात्रा नहीं रुकी। धारा ३७० हट गई लेकिन कश्मीर के मुद्दे जस के तस हैं। कश्मीरी पंडितों के मुद्दे को लेकर हमेशा राजनीति होती रही है। पंडित समाज मांगों को लेकर आज भी जम्मू की सड़कों पर बैठा है!
श्री राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के उपलक्ष्य में गांधी के साथ पठानकोट से जम्मू तक का प्रवास करने का मौका मिला। यह युवा नेता ४ हजार किलोमीटर चल चुका है। पठानकोट का दृश्य मैंने देखा। हजारों नौजवान हाथों में जलती मशालें लिए जम्मू में प्रवेश कर रहे थे और उन जलती मशालों से उस समय सारा आसमान जगमगा उठा था। जम्मू-कश्मीर यात्रा का अंतिम चरण है। जम्मू में पारा तेजी से गिरा। उस पर बारिश। इस परिस्थिति में राहुल और उनके पीछे-पीछे हजारों लोग चलते रहे। फिर जम्मू की यात्रा समाप्त कर प्रत्यक्ष घाटी यानी कश्मीर का सफर शुरू हुआ। नगरोटा से आगे उधमपुर और फिर पहाड़ी चढ़ाई शुरू होगी। ऐसा सब कठिन सफर राहुल गांधी करेंगे। जम्मू-श्रीनगर ३०० किलोमीटर लंबे हाइवे पर चलते रहना आसान नहीं। अब तक इस मार्ग पर कभी भी कोई चलते हुए नहीं गया है। मुगल रोड पुराना मार्ग था। इस पर पैदल सफर करना संभव था। पठानकोट यह जम्मू का बॉर्डर। यात्रा का स्वागत लखनपुर में डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने किया। अब्दुल्ला ने कहा, ‘आदि शंकराचार्य के बाद राहुल गांधी ही दूसरे व्यक्ति हैं, जो पैदल ही कश्मीर पहुंचे हैं।’ शंकराचार्य के समय में तो सड़कें ही नहीं थीं। आज सड़क है लेकिन उस पर बर्फ के पहाड़ हैं। इसे पार करके श्री गांधी जब कश्मीर पहुंचेंगे और तिरंगा फहराएंगे तो देश की राजनीति में एक नए पर्व की शुरुआत होगी।
अनुच्छेद हटाने के बाद…
अनुच्छेद ३७० हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर में क्या बदला? इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है। कश्मीर घाटी में परिस्थिति ‘जैसे थे’ है और बंदूकों के बल पर अस्थायी शांति लाई गई है। श्री राहुल गांधी ने अपनी यात्रा के दौरान एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया और जम्मू के लोगों ने इसे प्रतिसाद दिया। श्री गांधी ने कहा, ‘बाहरी लोग आकर जम्मू पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे हैं।’ जम्मू का सारा व्यापार, उद्योग आज बाहरी लोगों के हाथ में चला गया है। इसीलिए छोटे दुकानदार, व्यापारियों का नुकसान हो रहा है। बाहरी लोग आते हैं और जम्मू के वित्तीय नियंत्रण पर कब्जा कर लेते हैं। इसको लेकर लोगों में गुस्सा है। ये बाहरी लोग भाजपा की राजनीति को आर्थिक सहयोग देते हैं। इससे स्थानीय लोगों को मुश्किलें होती हैं। अब ये बाहरी लोग कौन हैं? कश्मीर घाटी में लड़ाई पाकिस्तानी घुसपैठियों के खिलाफ है, जबकि जम्मू के लोग देश के कारोबारी समुदाय के खिलाफ लड़ रहे हैं, ऐसी तस्वीर है।
पंडित जम्मू की सड़कों पर
जिन कश्मीरी पंडितों की हत्या की और घर वापसी का ‘प्रोपोगंडा’ भाजपा ने राजनीति के लिए किया, वे कश्मीरी पंडित आज वास्तव में किस स्थिति में जी रहे हैं? सत्य ऐसा है कि पंडित आज भी खौफ के साये में जी रहे हैं। जम्मू में उतरते ही मुझे बताया गया कि कश्मीरी पंडित और उनके परिजन बड़ी संख्या में जम्मू में पिछले छह महीनों से सड़कों पर बैठे हैं। आंदोलन कर रहे हैं। ये सभी सरकारी कर्मचारी हैं और इनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई है। ‘टारगेट किलिंग’ फिर से शुरू होते ही ये सभी कश्मीरी पंडित जम्मू वापस आ गए। ‘आतंकी पहचान पत्र देखकर गोली मारते हैं। स्कूलों, सरकारी कार्यालयों में घुसकर पंडितों की हत्या करते हैं। हमें किसी तरह की सुरक्षा नहीं मिली है। अत: जम्मू में हमारा तबादला कर दें,’ ऐसा वे कहते हैं और सरकार उनकी सुनने को तैयार नहीं है। कश्मीरी पंडित घाटी में जाकर नौकरी करें। ऐसा सरकार का फरमान है। पिछले छह महीने से इन सभी कर्मचारियों का वेतन सरकार द्वारा रोके जाने से आज इन पर भूखे रहने की नौबत आ गई है। मैं जम्मू उनसे मिलने गया था। उस समय हिंदूहृदयसम्राट शिवसेनाप्रमुख की जयकार की घोषणाएं वहां गूंजी। उस आंदोलन में निवेदन करनेवाले कई युवा मराठी बोल रहे थे। आप मराठी कैसे बोल रहे हैं? ऐसा मैंने पूछा तो वो युवक बोले, ‘यह सब वंदनीय बालासाहेब ठाकरे की कृपा है। उन्होंने कश्मीरी पंडितों के लिए महाराष्ट्र के दरवाजे खोले। हमारे बच्चों के लिए उच्च शिक्षा में सीटें आरक्षित रखे जाने से हम मुंबई-पुणे में आकर पढ़े। डॉक्टर, इंजीनियर बने। बालासाहेब और शिवसेना ने हमारे लिए जो किया, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता!’ उन्होंने ऐसे भाव-विह्वल उद्गार व्यक्त किए। ‘शिवसेना ने हमारे लिए दिल के दरवाजे खोले’ ऐसा वे अंत में बोले। लेकिन ३७० हटाने के बाद भी कश्मीरी पंडितों की घर वापसी नहीं हो पाई। आज भी कश्मीर एक बंदिशों वाली जन्नत है। युवाओं के पास रोजगार नहीं है और बेरोजगारी के कारण वे निराश हैं। अनुच्छेद ३७० हटने के बाद बाहर के उद्योग वहां आएंगे, यह भ्रम झूठा साबित हुआ। लेकिन एक विशेष क्षेत्र के लोग जम्मू आए और व्यापार हाथ में ले लिया यह स्पष्ट है।
सेना यात्रा में आई
कश्मीरी पंडित भीख नहीं चाहिए। उन्हें उनका अधिकार चाहिए, ‘ऐसी भूमिका राहुल गांधी ने जम्मू में रखी। कश्मीरी पंडितों का प्रतिनिधिमंडल उनसे मिला उसी समय वे सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी से मिले। परमवीर चक्र से सम्मानित वैâप्टन बानासिंह जम्मू के दीनानगर में यात्रा में शामिल हुए। राहुल गांधी के साथ वे ४० मिनट तक चले। ‘अग्निवीर’ योजना कपटपूर्ण और भ्रामक है। यह भर्ती केवल एक अस्थायी, राजनीतिक खानापूर्ति है, ऐसा सभी सैन्य अधिकारियों के विचार हैं। जम्मू-कश्मीर में कदम-कदम पर सैन्य और सुरक्षा व्यवस्था है। कश्मीर की आज की शांति सतही है। २० तारीख को ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के मार्ग पर ही तीन बम धमाके हुए। इसमें सात लोग घायल हो गए। इस विस्फोट से ‘भारत जोड़ो’ यात्रा रोक दी जाएगी और गांधी वापस लौट जाएंगे, ऐसा अनुमान लगाया गया, जो कि झूठ निकला। बारिश, बर्फीला तूफान, कीचड़, विस्फोट गांधी को नहीं रोक सके और यह यात्रा कश्मीर के अंतिम चरण में पहुंच गई। १९ तारीख को राहुल गांधी ४० किमी पैदल चले और २० तारीख को ३० किमी चलते रहे। रोज ४-५ घंटे चलते रहे और जहां यात्रा समाप्त होती, वहीं कंटेनर में रात गुजारकर आगे बढ़ते। भारत को अखंड रखने के सपने को साकार करने की यह यात्रा है। इसलिए उनका स्वागत किया जाना चाहिए। ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के उपहास और उपेक्षा का भी कोई असर नहीं हुआ। प्रत्येक गांव में और शहर में लोग यात्रा में आते ही रहे। कुछ जगहों पर भीड़ उमड़ पड़ी। उस भीड़ का अग्निज्वाला बनने के दृश्य मैंने पठानकोट में देखे।
देश के मुद्दों को लेकर आगे
पूरे देश की समस्याएं लेकर गांधी कश्मीर पहुंचे, जबकि वहां भी सवालों का पहाड़ खड़ा ही था। कश्मीरी पंडितों की तरह पाक अधिकृत कश्मीर से विस्थापित शरणार्थी के तौर पर आए ५,३०० परिवारों की समस्या का केंद्र सरकार आज भी समाधान नहीं कर पाई है। आजादी के बाद ७५वें वर्ष में भी इन लाखों शरणार्थियों को न्याय नहीं मिला। पाकिस्तानी गिरोहों ने कश्मीर के एक क्षेत्र पर आतंक और हिंसा फैलाते हुए कब्जा कर लिया तो वहां के सिखों और हिंदुओं को हमारी सरकार ने यहां बुला लिया। वे अपना घर, जमीन, उद्योग वहीं छोड़कर यहां आ गए। सब शांत होने पर आपको वापस भेज देंगे, ऐसा आश्वासन दिया। उसे ७५ वर्ष हो गए। ये सभी लोग अभी भी शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं और कश्मीरी पंडितों की तरह ही अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी भी सुननेवाला कोई नहीं है। सरकारें आईं और गईं। ये सभी शरणार्थी एक ही वैंâप में हैं। पंडित सड़क पर हैं। राहुल गांधी पैदल ही आज कश्मीर में पहुंचे। राहुल गांधी की यात्रा से राजनीति का ‘नैरेटिव’ (कथानक) बदल गया है। कश्मीर का सत्य सामने आया। हिंदू और मुसलमानों को सोचने पर मजबूर कर दिया। देश के मुद्दों पर चर्चा शुरू हो गई। देश को जोड़ने के लिए मिट्टी पर चलना पड़ता है। राहुल गांधी चल रहे हैं। १९४७ का भारत-पाक संघर्ष जमीन को लेकर लड़ा गया था और अंतत: बात देश के टूटने तक पहुंच गई। विभाजन और बंटवारे का ये जख्म भी कैसा है, यह जम्मू में देखा। श्रीनगर से पाकिस्तान सीमा ३१० किलोमीटर दूर, लेकिन जम्मू हवाई अड्डे से भारत-पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा सिर्फ २० मिनट पर। २१ तारीख की शाम मैं वहां पहुंचा तब सैनिकों की परेड शुरू थी। उत्साह का माहौल था। सैलानियों की भीड़ थी। वहां ‘नो मैन्स लैंड’ है। उस पर से मैं आगे बढ़ा। फिर वहां के हमारे अधिकारियों ने बताया कि वहां खेत और जमीन का बंटवारा कैसे हुआ। सीमा पर पीपल का एक विशाल वृक्ष है।
‘इस पेड़ को भी बांटा गया।’
‘कैसे?’
‘यह इधर का हिस्सा हमारा। दूसरी ओर की शाखाएं उनकी।’
मैं यह सुनकर अस्वस्थ हो गया। इस गांव की गायें और बैल चरने पाकिस्तान की सीमा में जाते हैं और शाम को फिर घर लौट आते हैं। उनके लिए दोनों देश एक समान ही हैं!
इंसान ही लड़ रहे हैं। राहुल गांधी को झगड़ा खत्म करना है।