संजय राऊत -कार्यकारी संपादक
महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद ७० साल पुराना रोग है। बेलगांव सहित सीमाई क्षेत्र के मराठी बंधुओं पर ७० वर्षों से जुल्म हो ही रहा है। कर्नाटक के वर्तमान मुख्यमंत्री बोम्मई ने बेवजह इस समस्या को लेकर महाराष्ट्र को चुनौती दी। गृहमंत्री श्री अमित शाह ने कर्नाटक-महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों को चर्चा के लिए बुलाया और फिर ‘जैसे थे’ का ही झुनझुना बजाया। ‘जैसे थे’ के सीने पर कर्नाटक ने पांव रखा है।
बेलगांव सीमा क्षेत्र के संबंध में निर्णय लेने के लिए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने महाराष्ट्र-कर्नाटक राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई। ७० साल से लंबित इस समस्या पर दोनों मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय गृहमंत्री के बीच १५ मिनट तक चर्चा हुई। उन पंद्रह मिनटों के बाद अंतत: तय क्या हुआ? तो स्थिति ‘जैसी थी’ बरकरार रखनी है। ७० वर्षों से स्थिति ‘जैसी थी’ ही है। उस ‘जैसे थी’ स्थिति को बार-बार बदलने का प्रयास कर्नाटक ने किया। मामला सर्वोच्च न्यायालय में जाने के बाद कर्नाटक ने बेलगांव को उपराजधानी घोषित करके वहां विधानसभा की नई इमारत बना डाली। बेलगांव का नाम बदलकर बेलगावी कर दिया। बेलगांव महानगरपालिका पर से भगवा ध्वज उतार दिया। ये सब तरीका बेहद गंभीर ही था। ‘जैसे थे’ के निर्णय को चुनौती देने वाला और अदालत की परवाह न करने वाला था।
महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा का विवाद आज का नहीं है। यह एक पुराना ही रोग है। यह समस्या ७० वर्षों से सुलग रही है। ये सुलगती समस्या महाराष्ट्र के लिए अस्मिता का और कर्नाटक के लिए व्यवहार-व्यापार है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बोम्मई ने अचानक इस समस्या को छेड़कर खलबली मचा दी। क्योंकि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने इस मुद्दे पर कोई राय ही नहीं रखी और वहां बोम्मई महाराष्ट्र के नाम पर आए दिन अपनी उंगलियां चटकाते रहे। इस समस्या पर कर्नाटक के तमाम विपक्षी दल और सत्ताधारी पार्टियां एकजुट हैं। ऐसी तस्वीर महाराष्ट्र में देखने को नहीं मिल रही है। कर्नाटक और महाराष्ट्र की नई पीढ़ी को इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ा है। आधुनिकता की ओर बढ़नेवाला नया समाज बीते २० वर्षों में तैयार हुआ है। वह अलग ही सोच में उलझा हुआ है। उसे सीमा समस्या से लेना-देना है क्या? ये सवाल होगा भी तो इस समस्या को लेकर महाराष्ट्र द्वारा लड़ी गई लड़ाई को भूला नहीं जा सकता। संविधान के अनुसार भाषाई आधार पर प्रांत रचना किए जाने के बाद भी २० लाख लोगों की आबादी वाला बेलगांव, कारवार, भालकी, निपाणी सहित एक बड़े मराठी भाषाई क्षेत्र को जनभावना के विपरीत कर्नाटक में डाल किया गया था। यह अन्याय था। जनभावना के आधार को नहीं माना गया। लोकतंत्र के पैâसले को न मानते हुए बेलगांव सहित सीमाई क्षेत्र में कानडी जूतों की जबरदस्ती चलती रही और महाराष्ट्र का बड़ा वर्ग बेलगांव में अपने भाइयों के लिए संघर्ष करता रहा, लेकिन हाथ कुछ नहीं आया।
कारवार कहां है?
आज बेलगांवकरों की आवाज महाराष्ट्र में आने के लिए बुलंद हो रही है। वे संघर्ष करते हैं, लेकिन इस लड़ाई में कारवार काफी पहले पीछे हट चुका है। इसलिए लड़ाई मुख्यत: बेलगांव, निपाणी सहित ५६ गांवों की है और सुप्रीम कोर्ट में भी यह २००४ से सुस्त पड़े अजगर की तरह पड़ा हुआ है। राम मंदिर का मुद्दा जब राजनीतिक हुआ, तब उस पर लगातार सुनवाई हुई और इसे सुलझा लिया गया; फिर महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद पर लगातार सुनवाई कर इस समस्या का एक बार में पैâसला क्यों नहीं किया जाना चाहिए? जिस समस्या के लिए अब तक ६९ लोगों ने बलिदान दिया और जिसके लिए आज भी संघर्ष जारी ही है, उस मुद्दे पर केंद्र सरकार ने एक बार भी हस्तक्षेप नहीं किया तथा दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने एक साथ आकर चर्चा नहीं की। वह चर्चा अब सिर्फ १५ मिनट ही हुई। कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने महाराष्ट्र को चिढ़ाया। इसका प्रतिसाद महाराष्ट्र में उमड़ा। शिंदे-फडणवीस सरकार की ‘छी.. थू’ होने के बाद यह बैठक दिल्ली में हुई। अंतरराष्ट्रीय सीमा मुद्दों पर भारत-पाकिस्तान, भारत-चीन, भारत-श्रीलंका, भारत-म्यांमार इन देशों में चर्चा होती है; लेकिन देश में सीमा विवाद पर चर्चा करने को कोई तैयार नहीं है। असम और मेघालय इन दो राज्यों के सीमा विवाद में पुलिस ने बंदूकें चलार्इं और पुलिस की बलि चढ़ी, तब कहीं गृहमंत्री अमित शाह ने दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चर्चा के लिए बुलाया। लेकिन महाराष्ट्र-कर्नाटक के विवाद और संघर्ष को लगातार नजरअंदाज किया गया। दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री अब मिले तो भी तनाव कम होने की शुरुआत होगी ऐसा नहीं है।
चर्चा कहां हुई?
कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने सोलापुर, सांगली के कुछ गांवों पर दावा किया। इस पर श्री शरद पवार ने अच्छा कहा, ‘पहले बेलगांव पर चर्चा करें, फिर सांगली, सोलापुर के बारे में बोलें।’ लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिंदे ने बोम्मई के आग लगाने वाली भूमिका पर कोई भी टिप्पणी नहीं की। मजाक ये है कि गुजरात के नए मुख्यमंत्री भूपेश पटेल के शपथ ग्रहण समारोह में महाराष्ट्र-कर्नाटक के मुख्यमंत्री मौजूद थे। वहां से लौटते समय ये दोनों लोग एयरपोर्ट के लॉन में अचानक मिले और कहा जाता है कि वहां हमारे मुख्यमंत्री ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री से विस्तृत चर्चा की! ७० साल पुराने विवाद को मुख्यमंत्री शिंदे सिर्फ पांच मिनट की चर्चा से सुलझाना चाहते हैं। यह उस संघर्ष का अपमान ही है। हवाई अड्डे पर संयोग से घटित हुई यह मुलाकात, यह इतने गंभीर मुद्दे को हल करने का मंच कैसे हो सकेगी? अंतत: ये दोनों दिल्ली में मिले। मूलत: आज सीमा की समस्या किस मोड़ पर है और बेलगांव के लोगों की समस्या क्या है, इसे मुख्यमंत्री शिंदे ने ठीक से समझा है क्या? उसके लिए पांच अहम मुद्दों पर केंद्र और कर्नाटक सरकार से चर्चा होनी चाहिए थी, लेकिन ‘जैसे थे’ पर मुहर लगाकर वे वापस आ गए।
• भाषाई अल्पसंख्यक आयोग ने केंद्र सरकार को हर साल बेलगांव सीमा क्षेत्र से संबंधित एक रिपोर्ट भेजी है और यहां की भाषाई दमन किए जाने के बारे में इस रिपोर्ट में जानकारी दी है; लेकिन आज तक एक बार भी इस विषय पर संसद में चर्चा नहीं हुई। विशेषकर १९८९ और १९९२ में भेजी गई रिपोर्टों में विस्तृत जानकारी दी गई है; पर अभी तक केंद्र की ओर से इस पर कोई कार्रवाई तो हुई नहीं, लेकिन चर्चा भी नहीं हुई।
• वर्तमान में सीमा का यह मामला सुप्रीम कोर्ट में होने के बावजूद बेलगांव में मराठी भाषी लोगों पर भाषाई ‘एट्रॉसिटी’ किया जा रहा है। उदाहरण लगातार अनधिकृत ध्वज का उपयोग करना (लाल, पीले), लोगों पर कन्नड भाषा जबरदस्ती थोपना। सभी फलक सिर्फ कन्नड में लगाए जा रहे हैं। सात-बारा, बिजली का बिल वगैरह। १९८९ तक सभी सरकारी दस्तावेज, लेन-देन ये मराठी और कन्नड़ दोनों भाषाओं में होते थे, लेकिन इसके बाद अब केवल कन्नड़ भाषा में ये सुविधाजनक बना दिया गया। इसका बड़ा झटका इन विवादित क्षेत्रों के मराठी भाषियों को लगा है। सरकारी कार्यालयों में मराठी भाषा में आवेदन स्वीकार नहीं किए जाते हैं। यह क्षेत्र मराठी भाषियों की बहुलतावाला होने के बावजूद भी। भले ही कर्नाटक में मराठी भाषी लोग अल्पसंख्यक हैं। फिर भी जिन इलाकों की मांग महाराष्ट्र राज्य ने की है, वहां मराठी भाषी बहुसंख्यक हैं और केंद्र को इसे संज्ञान में लेना जरूरी। इन विवादित क्षेत्रों में जो स्थानीय स्वराज्य संस्थाएं हैं, उन क्षेत्रों में निर्वाचित होनेवाले बहुसंख्यक जनप्रतिनिधि मराठी हैं और कानडी भाषा इस्तेमाल किए जाने से उन्हें कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
• १३१ ‘बी’ के तहत न्यायालय में दावा दायर होने के बाद भी केंद्र सरकार मध्यस्थ की भूमिका नहीं निभाती है। जिस समय केंद्र की तरफ से ‘हलफनामा’ दिया जाता है, उसे कर्नाटक सरकार की तरफ से दिया जाता है, ऐसा सौतेलापन किया जाता है।
• न्यायालय में यह मुद्दा गया, क्योंकि संसद कोई निर्णय नहीं लेती, परंतु अंतत: न्यायालय संसद को ही इस समस्या के समाधान के लिए री-डायरेक्ट करेगा, ऐसी अपेक्षा रखना, उसके लिए न्यायालय पैâसला देगा, इसलिए प्रतीक्षा करना इसके बजाय यह बहु प्रलंबित समस्या को संसद में चर्चा कर तत्काल हल किया जाना चाहिए। इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
• वर्तमान में रिंग रोड के नाम पर बेलगांव शहर के आसपास की करीब २,५०० से ३,००० एकड़ कृषि भूमि पर कब्जा किया जा रहा है। वह दो बार फसल उत्पन्न करने वाली उपजाऊ भूमि मराठी भाषियों की है। इसलिए मराठी भाषी किसानों को उजाड़ा जाएगा। साथ ही इस रिंग रोड के आसपास शहर का विकास कर वहां कानडी लोगों की बस्तियां बसाई जाएंगी। क्योंकि अब तक जब-जब शहरी विकास के नाम पर मराठी भाषियों की जमीनें ली गई, (क्योंकि मूल जमीन यहां के मराठी भाषियों की है) उन जगहों पर कॉलोनियों का निर्माण कर उन्हें ९५ फीसदी कानडी लोगों को दे दी गर्इं और सिर्फ ५ फीसदी जमीन ही मूल मालिकों को दी गर्इं। इस तरह से यहां कन्नड़ लोगों की संख्या बढ़ाई जा रही है।
• कर्नाटक के एक सांसद रेवन्ना ये तो ‘जैसे थे’ की छाती पर खड़े होकर अलग ही मांग करने लगे हैं। रेवन्ना ने मांग की कि ‘बेलगांव से मराठा रेजिमेंट के मुख्यालय को हटाकर वहां अब कन्नड़ रेजिमेंट को लाओ!’ मतलब यह विवाद इतने निचले स्तर पर लाने के बाद ‘जैसे थे’ का आगे क्या होगा? बेलगांव महाराष्ट्र का है, इसका सबसे बड़ा प्रमाण बेलगांव स्थित ‘मराठा रेजिमेंट’ का मुख्यालय है।
अन्याय के खिलाफ लड़ाई
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिंदे कर्नाटक के मुख्यमंत्री के हमले के आगे कमजोर पड़ गए, यह अब साफ हो गया है। यह मसला संघर्ष से नहीं, बल्कि चर्चा से हल होगा और इसके लिए पहले राजनीति बंद करनी चाहिए। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं। इसलिए मुख्यमंत्री बोम्मई ने सीमावाद पर हमला किया और महाराष्ट्र के गांवों पर दावा ठोंका। इसके बजाय उन्हें सीमावर्ती क्षेत्रों के मराठी संगठनों और नेताओं से चर्चा करके समाधान निकालना चाहिए था। मुंबई समेत महाराष्ट्र में ‘कानडी’ लोगों के बड़े आर्थिक हित संबंध समाहित हैं, ये उन्हें नहीं भूलना चाहिए। यह झगड़ा दो राज्यों के लोगों के बीच का नहीं। यह सरकारों का नहीं है। ७० साल पहले एक भाषाई लोगों पर हुए अन्याय पर रोक लगे, इसके लिए यह मानवता का झगड़ा चल रहा है। उसे इतनी क्रूरता से कोई कुचल नहीं सकेगा। सर्वोच्च न्यायालय, केंद्र सरकार से यह समस्या हल नहीं होती होगी तो न्याय के लिए किसका दरवाजा खटखटाया जाए? प्रधानमंत्री मोदी रशियन-युक्रेन युद्ध में मध्यस्थता करते हैं, लेकिन महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद की तरफ मुड़कर देखने के लिए तैयार नहीं हैं। यह अच्छे राजनेता के लक्षण नहीं हैं!
गृहमंत्री अमित शाह ने पहल की ये ठीक, लेकिन क्या वाकई इस मुद्दे पर वे तटस्थ रहेंगे?