संजय राऊत- कार्यकारी संपादक
हिंदुस्थान अंग्रेजों का गुलाम बना। क्योंकि जनता विज्ञान को नजरअंदाज करके अंधविश्वास, भोंदूगीरी और जादू-टोना के पीछे लग गई। भाजपा ने ‘सावरकर गौरव यात्रा’ निकाली। सावरकर की सोच विज्ञानवादी ही थी। उस विज्ञानवाद पर मिट्टी डालकर ‘मोदी पार्टी’ देश को अंधश्रद्धा, बुआबाजी के कुएं में फिर से धकेल रही है। इस तरह से देश गुलाम ही होगा।
हिंदुस्थान गुलाम क्यों हुआ? इस पर अब तक कई चर्चाएं भले ही हुई होंगी, लेकिन हिंदुस्थान ने गुलामी क्यों स्वीकार की, इसका जवाब देश में वर्तमान भाजपाई शासन में है। विज्ञान की, आधुनिकता का साथ छोड़कर देश को पाखंडी बाबागीरी के रास्ते पर ले जाना, यही गुलामी का मार्ग है। देशी लोगों में जबरदस्त बढ़ी अंधश्रद्धा, धर्मांधता और बाबागीरी के कारण जनता को गुलाम बनाकर देश को कब्जे में लेना अंग्रेजों के लिए संभव हुआ। मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी देश पर कब्जा करने के लिए अंग्रेजों का वही मार्ग अपना रही है। लोगों को बाबा, महाराज, अंगारे-धुपारे, मंदिर, मस्जिद, कथा वाचक, धर्म मेलों में उलझाकर मूल प्रश्नों से ध्यान विचलित करना और उसी ‘मदहोश’ माहौल में चुनाव जीतना है। जाति और धर्म का झगड़ा लगाने का काम अंग्रेजों ने किया। लोगों को लड़ाते रहे और अंग्रेज देश को लूटते रहे। वर्तमान में क्या अलग हो रहा है? असम के भाजपा विधायक रूपज्योति ने अब एक मांग की है। ‘ताजमहल और कुतुब मीनार को तोड़ दो और वहां एक मंदिर बनाओ। मैं उस काम के लिए एक साल का वेतन देता हूं!’ अब ताजमहल, कुतुब मीनार को तोड़ने के लिए कोई आंदोलन खड़ा कर माहौल को गर्म किया जाएगा। मूर्ख और मतिहीन लोग उस आंदोलन में शामिल होंगे। उसके जरिए दंगे कराए जाएंगे। राजनेता इसका आनंद लेंगे। ताजमहल, कुतुब मीनार तोड़ो और मंदिर बनाओ, ऐसा कहनेवाले लोग अरुणाचल के हालात पर चुप हैं। लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में चीन पूरी तरह घुस गया है। अरुणाचल प्रदेश के ११ बड़े गांवों पर चीन ने फिर से दावा ठोका है और गांवों के नाम बदलकर चीनी भाषा में कर दिया है। उन ११ गांवों में घुसकर भाजपा को कोई मंदिर बनाना चाहिए, ऐसी मांंग ये भोंदू धर्मवीरों को क्यों नहीं करनी चाहिए?
अद्भुत सावरकर
वीर सावरकर एक अद्भुत क्रांतिकारी थे। वे हिंदुत्ववादी थे, लेकिन हिंदुत्व के नामवाली बाबागीरी उन्हें मंजूर नहीं थी। उनका दृष्टिकोण विज्ञानवादी था। वे शस्त्रों के सामर्थ्य को पहचानते थे। चीन के आगे झुकनेवाले लोग आज महाराष्ट्र में ‘सावरकर गौरव यात्रा’ निकालते हैं, ये अजीब है। सावरकर गौरव यात्रा निकालना यह एक तरह की भोंदूगीरी ही है। नरहर कुरुंदकर सावरकर के बारे में कहते हैं, ‘सावरकर एक सख्त बुद्धिवादी, विज्ञाननिष्ठ और व्यवहारवादी थे। एक भी अंधश्रद्धा पर उनका विश्वास नहीं था। इंसान बुढ़ापे में धार्मिक हो जाता है, ऐसा कहा जाता है। लेकिन सावरकर के मामले में ये नहीं हुआ। जब कोई स्वचालित साधन नहीं था, तो शवों को कंधों पर लादकर ले जाना पड़ता था और लकड़ी की चिता सजाकर जलाना पड़ता था। आज वाहन हैं, विद्युत शवदाह भूमि है। फिर पुरानी कालातीत परंपराएं किसलिए, ऐसी उनकी सोच थी। उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप उनका अंतिम संस्कार इलेक्ट्रिक बॉक्स में किया गया। अथाह फैले इस विशाल ब्रह्मांड में एक क्षुद्र सौर मंडल और उस सौर मंडल में एक अति सूक्ष्म पृथ्वी। उसके ढाई अरब वर्षों के प्रदीर्घ काल की एक छोटी सी बूंद मतलब दस हजार वर्षों की मानवी सभ्यता। ब्रह्मांड का ईश्वर कोई होगा या नहीं, लेकिन यदि वह होगा तो इस क्षुद्र पृथ्वी पर तुच्छ प्राणियों के कल्याण के लिए वह चिंतित है, ऐसा मानना मतलब सड़क के भिखमंगे चोर द्वारा सम्राट मेरा रिश्तेदार है, ऐसा मानने जितना ही हास्यास्पद है, ऐसा उन्हें लगता था। ऐसा लगने में स्वार्थ, लालच होगा फिर भी यह सत्य नहीं है, ये सावरकर ने बार-बार समझाया। मनुष्य द्वारा कल्पित देवता काल्पनिक और मानवीय हैं, ऐसा वे जोर देकर कहते थे। गंगा जल कृपालु है इसका अर्थ यह नहीं है कि ये पापों को धो देता है, बल्कि यह भूमि को उपजाऊ बनाता है, यह होता है। इसी गंगा में बाढ़ आई, नावें डूबी मतलब लाखों गांव और इंसान खत्म हो जाते हैं। प्रकृति की इस क्रूरता को सावरकर जानते थे। गाय माता होगी ही तो बैल की! मनुष्य के लिए वो एक उपयोगी पशु है और उपयोगी घोड़े और वफादार कुत्ते के इस पंक्ति में ही गाय को भी रखना पड़ा, ऐसा सावरकर कहते थे। ग्रहण के समय दान करें, इस पुण्य से राहु-केतु के दोष से सूर्य और चंद्रमा छूट जाते हैं और गोमूत्र पीने से व्यक्ति के पाप दूर हो जाते हैं, यह मैलापन सावरकर को मंजूर नहीं था। सावरकर को समझना है तो इस कठोर बुद्धिवादी को समझ लेना चाहिए। न होने पर सावरकर ऐसे ही वंदनीय हो जाते हैं, ये कोई न भूलें। सावरकर ने हिंदुस्थान हिंदुओं का है, किसी अन्य के बाप का नहीं, ऐसी घोषणा की, हम इतना ही जानते हैं, लेकिन इस घोषणा का अर्थ क्या है? सावरकर कहते हैं, यह भूमि जिन्हें पवित्र और पितृभूमि लगती है, इस राष्ट्र में जिनकी श्रद्धा है, वे सभी हिंदू ही हैं। हिंदू बनने के लिए पुराणों को मानें, ये सावरकर ने नहीं कहा। हिंदू होने के लिए पालथी मारकर बैठकर नाक दबानी चाहिए या घुटने मोड़कर रहें, ये सावरकर ने नहीं कहा। हिंदू होने के लिए इस राष्ट्र पर प्रेम करें, इतना ही कहकर वे रुक गए।’ ये सावरकर गौरव यात्रा वालों को स्वीकार है क्या?
सुशिक्षितों की बाबागीरी
आज देश के पढ़े-लिखे लोग भी अंधश्रद्धालु और बुवा-बाबा बन गए हैं। ये भाजपा की ‘भारतीय’ राजनीति का एजेंडा है। नए बाबा, कथा वाचक वगैरह खड़े करके उनके नाम पर भीड़ जुटाना और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाना। सावरकर का जपजाप करनेवाले मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री सत्ता हासिल करने और विरोधियों को हराने के लिए भेड़ों की बलि, मिर्च यज्ञ और अन्य अनुष्ठान करते हैं। इसलिए लोगों को क्या सीख लेनी चाहिए? अब खुद को बुवा, महाराज बनकर गद्दी पर बैठना, बस इतना ही शेष रह गया है। यह एक रोग है और इसी बीमारी के कारण बाबा, महाराजों के दर पर लंबी-लंबी कतारें लगी हैं। दरबार में भीड़ बढ़ रही है और भक्त दुखड़े रो रहे हैं। ये कतारें हमारे सत्ताधारियों को बेचैन नहीं करतीं। आम लोगों कीr सामान्य जरूरतें भी पूरी नहीं हो पातीं। तो वे किसी शक्ति या अंधश्रद्धा की शरण में जाते हैं। उस शक्ति का उपयोग भाजपा अपनी राजनीति के लिए कर रही है और लोग उससे गुलाम बन रहे हैं। आसाराम बापू का भाजपा ने भरपूर लाभ उठाया। उनके सत्संगों में मोदी से लेकर हर किसी ने बार-बार हाजिरी लगाई। नाचे और गाए। रामदेव बाबा को भी प्रचार में लाए। साधु परिषदों को हवा दी। अब किसी एक बागेश्वर बाबा को खड़ा करके उनके जरिए भीड़ जुटाई जा रही है। ये बागेश्वर बाबा मुंबई में आए और उन्होंने शिर्डी के साई बाबा पर विवादित बयान दिया। साई बाबा को मैं भगवान नहीं मानता, ऐसा उन महाशय ने कहा। ‘मुझे ईश्वर मानो’ ऐसा साई बाबा ने कभी भी नहीं कहा, लेकिन बागेश्वर बाबा लोगों को गुमराह करके जो ईश्वर बनने की कोशिश कर रहे हैं, उससे अज्ञान और अंधश्रद्धा का ही ‘वात’ शुरू हो गया। करोड़ों का कारोबार इस माध्यम से शुरू है और ये महाराज आज भले ही छिपे प्रचारक हैं, लेकिन कल भाजपा के मुख्य प्रचारक भी बन सकते हैं। ऐसे बुवा-महाराजाओं के खंभों पर आज की भाजपा खड़ी है और इसलिए देश का प्रवास विज्ञान से फिर से भूत-प्रेत, जादू-टोना और अंधश्रद्धा की तरफ शुरू हो गया है। ‘कथा वाचक’ टोली के जरिए लोगों को विज्ञान और आधुनिकता से दूर ले जाना, ऐसा ये दांव-पेच है। अंग्रेजों ने उस दौर में यही किया। धर्म और अंधश्रद्धा यही सबकुछ। ये सुनने के लिए हजारों लोग पैसे खर्च करते हैं। भाजपा ने महीने के लाख रुपए के मानधन पर पांच सौ कथा वाचकों को नियुक्त कर रखा है, ऐसा उनके ही लोग कहते हैं, तो मेरे जैसे लोगों को हैरानी नहीं होती। क्योंकि गुलामी के खतरे को मैं उस योजना में देखता हूं। जया किशोरी नामक कथा वाचक का इस समय काफी बोलबाला है। वे कहती हैं, ‘मोह-माया छोड़कर ईश्वर से नाता जोड़ो। हम खाली हाथ आए और खाली हाथ ही जाएंगे। फिर मोह-माया किसलिए?’ लेकिन जया किशोरी कथा कहने के लिए १० लाख रुपए फीस लेती हैं। इस मोह-माया को क्या कहें? ऐसे कई ‘महाराज’ जो कथा वाचक हैं वे पांच से दस लाख रुपए उस कथा कार्यक्रम के लिए लेते हैं। मैं उनके खिलाफ नहीं हूं और मैं उनकी आलोचना नहीं करना चाहता, लेकिन सच्चाई यही है। पूज्य रामचंद्र डोंगरे महाराज एक ऐसे ही कथा वाचक थे, उन्होंने सही मायने में तटस्थ तौर पर कथा वाचक के रूप में काम किया। मोह-माया से दूर रहे। वे भागवताचार्य थे। प्रवचन और कथा वाचन के लिए वे एक रुपया भी नहीं लेते थे। एक तुलसीपत्र मानधन के तौर पर लेते और आशीर्वाद देते थे। वे जहां भागवत कथा सुनाने के लिए जाते, वहां उन्हें प्राय: दान-दक्षिणा मिलती थी। वे पूरा दान उसी गांव में या शहर में गरीबों और जरूरतमंदों को दे देते थे। कथा वाचन को समाज कल्याण के मार्ग के रूप में वे देखते थे। डोंगरे महाराज की पत्नी की मृत्यु हुई, तब उनके पास ‘अंतिम संस्कार’ और अन्य विधियों के लिए पैसे नहीं थे। मृत पत्नी का मंगलसूत्र बेचकर धन जुटाएंगे ऐसा कहने लगे, तब उनके भक्तों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। डोंगरे महाराज एक आदर्श कथा वाचक थे। उनके कथा वाचन में अध्यात्म और विज्ञान का मेल था। मैं पूज्य डोंगरे महाराज का सम्मान करता हूं, लेकिन आज के राजनीतिक भीड़वादियों को डोंगरे बालामृत हजम नहीं होगा।
संसद की तस्वीर
भारतीय संसद का रूप-रंग आज बदल गया है। संसद से आधुनिक और विज्ञान बाहर निकाल दिया गया है और वहां कई बेंचों पर अब जटाधारी, दाढ़ी वाले बुवा-महाराज भगवा वस्त्रों में बैठे नजर आते हैं। उनमें से कुछ महाराज लोग खुले शरीर के साथ बैठते हैं। ये देखने में अजीब लगता है। संसद की प्रतिष्ठा उससे कम होती है। नेहरू के विज्ञानवाद, वीर सावरकर और डॉ. आंबेडकर के आधुनिक विचारों की यह पराजय हमारी ही संसद में दिखाई देती है। विपक्षी बेंचों से ‘अडानी के भ्रष्टाचार की जांच करो’ की मांग उठते ही सत्ता पक्ष ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाते हैं। मानो कि श्रीराम ने ही भ्रष्टाचार और देश को डुबाने का मंत्र दिया है। यह धर्म की पराजय है, सत्य की पराजय है और स्वतंत्रता की सबसे बड़ी पराजय है। लोकहितवादी देशमुख ने अपने पुराने दौर में स्वतंत्र हिंदुस्थान की पार्लियामेंट का सपना देखा था। ‘एक दिन सभी हिंदुस्थानी धीरे-धीरे होशियार होने लगेंगे।’ खुद का काम खुद करने लगेंगे। बड़े अधिकार पद उनके कब्जे में आएंगे और फिर वे अंग्रेजों को यहां से चले जाओ, ऐसा धीरे से कहेंगे। अंग्रेज चले गए तो ठीक, नहीं तो अमेरिका की तर्ज पर यहां गृहयुद्ध होगा और हिंदुस्थान स्वतंत्र होकर यहां पार्लियामेंट बनेगी। ऐसा होने में दो सौ साल लगेंगे।’ ऐसा लोकहितवादी ने कहा था। देश स्वतंत्र होना है तो हिंदू धर्म के दोष को दूर करना होगा। पाखंडगीरी को खत्म करना पड़ेगा, ऐसा वे कहते थे। सावरकर भी वही कार्य करते रहे। आज देश फिर से गुलाम बन रहा है, क्योंकि विज्ञान की जगह फिर से अंधश्रद्धा और पाखंडी बाबा ले रहे हैं।
देश को गुलाम होने से कौन बचाएगा?