मुख्यपृष्ठनए समाचाररोखठोक : आपातकाल जस का तस!

रोखठोक : आपातकाल जस का तस!

संजय राऊत -कार्यकारी संपादक

पचास साल बाद मोदी-शाह आपातकाल की कब्र के ऊपर की मिट्टी खोद रहे हैं। जब भविष्य अंधकारमय हो जाता है तो राजनेता अतीत की ओर भागते हैं। आपातकाल की भूतबाधा मोदी-शाह की गर्दन पर उसी तरह सवार है। इस सरकार ने २५ जून के दिन को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया है, लेकिन २०१४ से २०२४ तक के आपातकाल का क्या किया जाए?

गृह मंत्रालय ने आदेश जारी किया है कि अब से २५ जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाया जाएगा। मौजूदा गृहमंत्री अमित शाह को अपने संविधान के प्रति इतना सम्मान और चिंता दिखाते हुए देखकर जयप्रकाश नारायण की आत्मा स्वर्ग में प्रसन्न हो गई होगी। २५ जून १९७५ को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल लागू कर दिया था। उस घटना को ५० साल बीत चुके हैं, फिर भी मोदी और शाह अतीत की कब्र के ऊपर की मिट्टी खोदते नजर आ रहे हैं। मोदी और शाह को अब यह एहसास होने लगा है कि ५० साल पहले जिस संविधान की हत्या हुई थी, उसी संविधान के कारण आज नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में अपना बहुमत गवां दिया है। मोदी-शाह के शासनकाल में हर दिन संविधान की हत्या की गई और मोदी ने ४०० पार का नारा दिया। अगर यह सच हुआ तो मोदी भारत का संविधान बदल देंगे, ऐसा विपक्ष ने प्रचार में कहा और लोगों ने इस पर विश्वास कर लिया। लोगों ने संविधान बचाने के लिए वोट किया। नतीजा यह हुआ कि जनता ने मोदी-शाह के पैरों तले की कालीन खींच लिया। इसलिए भाजपा ५० साल पहले के आपातकाल को राजनीति में ले आई।

आज के संविधानप्रेमी
आज के संविधान प्रेमी अमित शाह सात-आठ साल के रहे होंगे जब २५ जून १९७५ को आपातकाल की घोषणा हुई थी। नरेंद्र मोदी युवा थे, लेकिन कहा जाता है कि इस दौरान वे भूमिगत थे और वेश बदलकर घूमते थे। आपातकाल का सबसे बड़ा दंश झेलने वाले लालकृष्ण आडवाणी जीवित हैं। पिछले दस वर्षों से वे आपातकाल जैसी राजनीतिक निर्वासन की स्थिति में जी रहे हैं, जैसे मानो श्री. आडवाणी पर आपातकाल थोप दिया गया हो। उनकी सारी स्वतंत्रता, वैभव, गरिमा छीन ली गई है। आपातकाल के दौरान आडवाणी ने कारावास भोगा था। उसी कारावास का अनुभव आडवाणी पिछले दस साल से कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव, वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडिस जैसे आपातकाल के नायक अब जीवित नहीं हैं। लालू यादव जेल में थे, वे आज भी मोदी-शाह के आपातकाल के खिलाफ लड़ रहे हैं। आपातकाल के खिलाफ लड़ाई में नीतीश कुमार जयप्रकाश नारायण के सिपहसालार थे। आज वे मोदी-शाह के सहयोगी बनकर सत्ता का आनंद ले रहे हैं। कुल मिलाकर लोग बदल गए हैं, लेकिन देश में तनाव और भय की स्थिति जस की तस है। आपातकाल एक दुष्चक्र था। एक राष्ट्रीय संकट था, ऐसा भाजपा विचारधारा के कुछ लोगों को लगता है, लेकिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की नौबत क्यों आई? क्योंकि उस दौरान चरण सिंह, जॉर्ज फर्नांडिस, जय प्रकाश नारायण की भाषा चेतावनीभरी और विद्रोह की थी। ‘पुलिस सरकार के आदेशों का पालन न करे या सैनिकों को सरकार के खिलाफ विद्रोह करना चाहिए,’ ऐसी चेतावनी रामलीला मैदान से खुले तौर पर दी गई थी। क्या आपको लगता है कि उस समय के प्रधानमंत्री को ऐसे समय में दर्शक की भूमिका निभानी चाहिए थी?

असंवैधानिक सत्ताकेंद्र
आपातकाल के दौर और पिछले दस साल के दौर में एक समानता है। आपातकाल के साक्षीदार तत्कालीन आईएएस अधिकारी बी. एन. टंडन अपनी डायरी में लिखते हैं, ‘इस दौरान कई असंवैधानिक केंद्र बनाए गए। जिन लोगों ने इन असंवैधानिक केंद्रों की बात नहीं मानी, उन्हें पुलिस, सीबीआई, उत्पाद शुल्क विभाग द्वारा परेशान किया गया।’ तो आज (२०१४ से २०२४ तक) इससे अलग क्या हो रहा है?
जुलाई १९७२ में, कर्नाटक के तिप्पगोंडानहल्ली गांव में एक सभा में जयप्रकाश नारायण ने कहा, ‘एक ही व्यक्ति के हाथ में सत्ता का केंद्रीकरण होना, देश और लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है।’
आज सत्ता एक ही व्यक्ति के हाथों में केंद्रित हो गई है, क्या यह सच नहीं है?
२७ जून, १९७३ को जयप्रकाश नारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर कहा, ‘न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करना अत्यावश्यक है। सरकार, विपक्ष और जनमत के बीच इस बात पर आम सहमति होनी चाहिए कि यह कैसे किया जा सकता है।’
कुछ समय बाद १९७३ में ही जयप्रकाश नारायण ने सभी सांसदों को दो पत्र भेजे। पहले पत्र में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और लोकतांत्रिक संस्थाओं की सुरक्षा कैसे की जाए, इस बारे में कुछ सुझाव दिए गए थे।
जयप्रकाशजी ने ‘मीसा’ के मनमाने प्रयोग और लोकतांत्रिक संस्थाओं के हो रहे क्षरण पर चिंता व्यक्त की थी। दूसरा पत्र अधिक महत्वपूर्ण था। उसमें बढ़ते हुए भ्रष्टाचार, चुनावी व्यवस्था में व्याप्त कदाचार को दूर करने और शिक्षा क्षेत्र में फैले कीचड़ को साफ करने के लिए जयप्रकाश नारायण ने कुछ सुझाव दिए थे। जयप्रकाश जो मुद्दे उठा रहे थे, वे राष्ट्रहित के थे। दुर्भाग्य से इसके प्रति प्रधानमंत्री का दृष्टिकोण नकारात्मक एवं असंतोषजनक था। लेकिन आज भी सीबीआई, ईडी के कानूनों का मनमाना इस्तेमाल जारी ही है।

वैसे का वैसा
२५ जून १९७५ को जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया था वह दौर और पिछले दस सालों में मोदी के शासनकाल पर नजर डालें तो आज भी वही होता दिख रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था। इंदिराजी के आपातकाल लागू करने की भूमिका राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी थी। आज ऐसा कुछ देखने को नहीं मिलता। सच कहें तो आपातकाल के दौरान जनजीवन सामान्य था। सरकारी कर्मचारी समय पर काम पर पहुंचने लगे। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा। अपराधियों, तस्करों, कालाबाजारियों के जेल जाने से लोगों ने राहत की सांस ली। महंगाई काबू में आ गई और एक तरह का अनुशासन पर्व शुरू हो गया। तब टी.वी. नहीं था। रेडियो और समाचार पत्रों की खबरों पर पाबंदी लगाई गई और वो उचित नहीं था। (आज उससे कहीं ज्यादा सख्त प्रतिबंध और भय है।) परिवार नियोजन और दिल्ली में झुग्गियां उन्मूलन कार्यक्रम में निश्चित ही कुछ ज्यादा ही हो गया। आज मुसलमानों की आबादी पर भाजपावाले बोलते ही हैं। इन कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो आम जनता को आपातकाल से तकलीफ नहीं थी। सब कुछ सुचारु रूप से चल रहा था।

संघ कहां था?
भाजपा यानी तब का जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश की आजादी की लड़ाई में थे ही नहीं और आपातकाल को लेकर उनकी भूमिका दोहरी थी। आपातकाल दिवस को संविधान हत्या दिवस घोषित करने से पहले अमित शाह को आपातकाल में संघ की भूमिका को समझना चाहिए था। सरसंघचालक बालासाहेब देवरस आपातकाल में जेल में थे, लेकिन वास्तव में उनकी भूमिका संतुलित थी। सतपाल मलिक को रात के समय एक संघ कार्यकर्ता के तकिए के नीचे सरसंघचालक बालासाहेब देवरस द्वारा इंदिरा गांधी को लिखे कुछ पत्र मिले। ‘हमारा संगठन आपके साथ सहयोग करने के लिए तैयार है,’ ऐसा आश्वासन देवरस ने उस पत्र में इंदिरा गांधी को दिया था।
सतपाल मलिक पहले फत्तेगढ़ की जेल में थे। बाद में जब उन्हें तिहाड़ जेल में स्थानांतरित किया गया तो देवरस के ये पत्र चरण सिंह को सौंप दिए गए। तब शिवसेनाप्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने खुलकर आपातकाल का समर्थन किया था। शिवसेनाप्रमुख ने यह नहीं सोचा था कि आपातकाल का मतलब संविधान की हत्या है। इसके विपरीत, शिवसेनाप्रमुख की राय थी कि इससे देश अनुशासित हो रहा है। आपातकाल का समर्थन करने वाले शिवसेनाप्रमुख की तस्वीर का उपयोग करके आज मोदी और उनके तोड़फोड़ मंडल का वोट मांगते दिखाई देना हास्यास्पद है।

कैसी हत्या?
२५ जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाना ही संविधान की हत्या होगी। पिछले दस वर्षों में मोदी और शाह का कार्यभार संविधान का सम्मान करनेवाला नहीं और इंदिरा गांधी द्वारा खुलेआम लगाए गए आपातकाल से भी अधिक खतरनाक है। आपातकाल के दौरान राजनीतिक विरोधियों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया था। वह क्रम आज भी जारी है। जयप्रकाश नारायण ने शिक्षा क्षेत्र और चुनाव प्रणाली में व्याप्त घोटालों पर सवाल पूछे थे। आज देश चुनाव प्रणाली के घोटालों और ‘नीट’ जैसी राष्ट्रीय परीक्षाओं में हुए घोटालों से हिल गया है। १९७५ के आपातकाल जैसे हालात आज भी दिखते हैं, फिर बदला क्या?
१९७५ का आपातकाल कुछ ज्यादा ही मनमाने ढंग से आज देश में नजर आता है।
तो संविधान की हत्या का सही दिन क्या है?

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