संजय राऊत – कार्यकारी संपादक
हम निश्चित तौर पर किस ओर जा रहे हैं? उस दौर में ये प्रश्न इसप के मन में उठा था। वही सवाल मोदी युग में भी बरकरार है। वर्तमान समय अमृतकाल है, ऐसा ढोल तो बजाया जाता है लेकिन देश कैसे डूब रहा है, देश कैसे जल रहा है, यह आए दिन देखने को मिल रहा है। महाराष्ट्र के लेखकों और कवियों ने आज से ४०-५० साल पहले ही वर्तमान स्थिति का वर्णन कर दिया था।
भारत की आज की स्थिति बड़ी विचित्र है। कोई नहीं बता सकता कि हम किस ओर जा रहे हैं? इसप की एक कहानी मुझे याद आती है। इसप एक गुलाम था। गुलाम होने के कारण वह खुलकर बात नहीं कर सकता था। एक बार गांव में सिर झुकाकर जाने के दौरान कोतवाल ने उसे डांटते हुए पूछा, ‘तुम कहां जा रहे हो?’ इसप ने उत्तर दिया, ‘मैं नहीं जानता!’ इस पर कोतवाल भड़क गया। उसने इसप की गर्दन दबोचते हुए कहा, ‘अच्छा, चल तुझे कारागार में ले चलकर बंद कर देता हूं!’ जेल की ओर जाने के दौरान इसप ने कोतवाल की ओर देखकर कहा, ‘कोतवाल साहब, मैं कहां जा रहा हूं, मुझे नहीं पता था। यह आपको पता चल गया न! मैं सच कह रहा था न? लेकिन गुलाम की कौन सुनता है?’ इसप की इस बात पर कोतवाल निरुत्तर हो गया।
देश की स्थिति ऐसी ही है।
न्याय पत्र कौन लिखेगा!
आज की परिस्थिति का यथार्थ चित्रण मराठी लेखकों व कवियों ने बहुत पहले ही कर रखा है। उस समय उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि भविष्य में एक ‘मोदी युग’ अवतरित होनेवाला है। बाद के काल में कविता में रमे कथालेखक सदानंद रेगे की कविता की प्रतिभा ये विश्व में अद्भुत था। श्री रेगे द्वारा न्याय-व्यवस्था के घर के सामने बनाई गई ये रंगोली देखें –
‘यापुढे आम्हीच तुमची
न्यायपत्रे लिहीत जाऊ
तुम्ही फक्त तुमचा अंगठा
तेवढा मुकाट पुढे करावयाचा
नि आमच्या हातावरचं रक्त
लावून राजस मुद्रा ठोकायची
एवढं कबूल करा न्यायमूर्ती
तुमच्या दारापुढे रोज रामप्रहरी
आम्ही राखेची रांगोळी काढू…
राखेला इथे काय तोटा?’
मराठी में लिखी उपरोक्त पंक्तियों का अर्थ है…
‘अब से, हम ही आपके न्याय पत्र लिखेंगे। आपको बस अपना अंगूठा आगे करना होगा और हमारे हाथों पर खून लगाना होगा
और राजस मुद्रा की मुहर लगानी होगी। न्यायाधीश आपकी चौखट के सामने, हम आपके राख की रंगोली बनाएंगे। राख की यहां कौन सी कमी है?’
आज की तस्वीर मराठी में लिखी गई उपरोक्त कविता से बिल्कुल भी अलग नहीं है। न्याय पत्र सत्ताधारी लिखते हैं और उस पर सिर्फ मुहर लगाई जाती है। पैसा और सत्ता ही कुछ लोगों के जीवन का केंद्र बिंदु बन गया है।
ऐसा यह राजा
मंगेश पाडगावकर द्वारा ‘राजा’ शीर्षक से लिखी गई कविता वर्ष १९९० में प्रकाशित हुई थी। उस समय देश में लोकतंत्र का बोलबाला था व मोदी-शाह भविष्य में सत्ताधीश बनेंगे इसकी किसी को बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी, लेकिन ‘जो न देखे रवि वो देखे कवि’ ये सदानंद रेगे और मंगेश पाडगावकर ने सिद्ध किया। पाडगावकर की ‘राजा’ कविता मैं उनके मुखारबिंदु से कई बार सुनी, लेकिन ३० साल के बाद इस तरह का कोई राजा देश के नसीब में आएगा, ऐसा तब नहीं लगा था। ये कविता एक बार पढ़ें-
‘राजा’
सभेत भाषण करताना
राजा हुकमी रडायचा,
प्रजेच्या चिंतेमधे
बघता बघता बुडायचा!
राजा मोठा शूर होता,
राजा होता शिकारी,
वैभव मोठं असूनसुद्धा,
राजा होता भिकारी!
गरीबांची कणव येऊन
त्याचा आवाज पडत असे,
कधी ध्येयवादी होऊन
उंच उंच चढत असे!
राजा मोठा नट होता,
राजा होता शिकारी,
इतकं वैभव असूनसुद्धा
राजा होता भिकारी!
अनेक मूर्ख माकडांच्या
टोप्या त्याने घेतल्या होत्या,
आणि ज्यांना घालायच्या
त्यांना टोप्या घातल्या होत्या!
जिथे घाली हात तिथे
खाणं चापून घेत असे,
हवं असेल राजाला
तेच छापून येत असे!
भिकारी का होता?
राजालाच ठाऊक होतं!
(तसं त्याचं मन म्हणे
आतून फार भावुक होतं!)
चिंतेमधे चूर होऊन
येरझारा घालत असे,
बागेमध्ये तासन् तास
एकटा एकटा चालत असे!
राजा रोज मुकुट घालून
आरशापुढे राहत असे,
स्वत:वर प्रेम करीत
स्वत:कडे पाहत असे!
प्रजा सगळी मुठीत होती,
जयजयकार करायची,
आश्वासनं खात खात
आपली पोटं भरायची!
इन पंक्तियों का अर्थ कुछ इस प्रकार है-
राजा सभा में भाषण देते समय प्रजा की चिंता में डूबकर रोने लगता था! राजा बड़ा वीर था, राजा शिकारी था, महान वैभव होने के बाद भी राजा भिखारी था। गरीबों पर तरस खाकर उसकी आवाज आती थी, कभी ध्येयवादी होकर ऊंचाई तक पहुंचती थी!
राजा बड़ा नट था, राजा शिकारी था, इतना वैभव होने के बाद भी राजा भिखारी था। उसने कई मूर्ख बंदरों की टोपियां हाथ में ले लीं थीं, और उन लोगों को टोपियां पहना दीं जो उन्हें पहनना चाहते थे! हाथ जहां भी डालता था, भोजन छीन लेता। राजा जो चाहता था वही छपता था! भिखारी क्यों था? यह राजा ही जानता था! (वैसे उनका मन अंदर से बहुत भावुक था!) चिंता में चूर, वह चकराता था! बाग में घंटो अकेले चहलकदमी करता था। राजा प्रतिदिन मुकुट पहनकर दर्पण के सामने रहता था, खुद से प्यार करता था और खुद को निहारता था! लोग मुट्ठी में थे, जयकार कर रहे थे, आश्वासन खा-खाकर अपने पेट भर रहे थे!
विनोबा का बोलना
शासक कितने गैर-जिम्मेदार और लापरवाह तरीके से बर्ताव करते हैं, ये देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दिखा दिया। देश में महंगाई के लिए सरकार जिम्मेदार न होकर ‘प्रकृति’ जिम्मेदार होने की घोषणा मोहतरमा ने की। महंगाई के लिए सूर्य, चंद्र, बादल, हवा, पानी, ठंडी, बर्फ, गर्मी जवाबदार हैं। मोदी जी को छोड़कर सब जिम्मेदार हैं।
फिर ‘मोदी युग’ का सत्ता में बैठने का क्या अर्थ है? शासक का चरित्र धूल में मिल गया और नैतिकता की धज्जियां रोज ही उड़ रही हैं। विनोबा भावे से मैं कॉलेज जीवन के दौरान मिला था। वर्ष १९८२ में मैं उनसे मिलने गया तब विनोबा जी से मिलने महाराष्ट्र के तत्कालीन सूचना मंत्री श्री त्र्यं. गो. देशमुख आए थे। दोनों के बीच पत्रकारिता पर चर्चा हुई। ‘पत्रकारों को अनुशासित रहना चाहिए,’ ऐसा मैंने विनोबा को कहते सुना। ‘वर्तमान, अच्छा हो या बुरा हो, जैसे को तैसा दिया जाना चाहिए… ऐसा विनोबा जी ने कहा’। ‘भड़काऊ, दुष्प्रचार, चरित्र हनन और वीभत्स लेखन होगा तो उस पर अंकुश चाहिए,’ ऐसा विनोबा बोले। ‘जैसी राजा वैसी प्रजा थी। राजा सुधरा, अच्छा व्यवहार किया तो प्रजा अच्छे से रहती है। पैसा खाना सत्कर्म माना गया तो आम व्यक्ति वही करेगा और देश डूब जाएगा,’ ऐसा विनोबा के बोलने का लहजा था। वर्ष १९८२ की ये बातचीत वर्ष २०२४ में सच हो रही है। देश डूब रहा है, देश जल रहा है।
बुजुर्गों की बात मत सुनो
आचार्य विनोबा के शिष्य, उनके कार्यों के उत्तराधिकारी अर्थात आचार्य दादा धर्माधिकारी। विनोबा के निधन के उपरांत दादा पवनार गए। पत्रकारों से वे बोले, ‘मैं कुछ भी कहना नहीं चाहता हूं। बुजुर्गों की बात मत सुनो यही मेरा संदेश है। पुरानी सड़कें पुराने स्थानों की ओर ले जाती हैं। ब्राह्मण को वे ब्राह्मणों की गली में ले जाते हैं, तेली को तेल गली, गांधी-तिलक अपने पिता की तरह संघर्ष किए होते तो क्या हुआ होता, इसका विचार करिए। यह ईश्वर का बड़ा उपहार है कि मनुष्यों की कार्बन कॉपी नहीं बनती है। अब देश में समृद्धि के संयोजन का समय आ गया है। इंसान बेरोजगार नहीं होंगे, इतना तकनीकीकरण स्वीकार करना पड़ेगा। मतदाता अपने मतों की नीलामी करते हैं और वही मतदाता हमारे शासक पैसे खाते हैं, ऐसी शिकायत करते हैं। यह दोमुंहापन है।’
बुजुर्गों की ये कहावत आज भी नई लगती है। क्योंकि सब कुछ वैसे ही घटित हो रहा है। हमारे प्रधानमंत्री मोदी इस वक्त अमेरिका में हैं। वे अमेरिका क्यों गए, इस पर लोगों के मन में संदेह है। अपने उद्योगपति मित्रों के ढहते साम्राज्य को स्थिर करने के लिए वे अमेरिकी दौरे का उपयोग करेंगे। शासकों के बारे में प्रजा के मन में ऐसे संदेह मन खिन्न करते हैं। नदी जैसे ढलान की ओर दौड़ती है, वैसे ही हमारा चल रहा है।
आखिर हम कहां जा रहे हैं? इसप के मन में उठा सवाल अभी भी बरकरार है!
दिल्ली के मौजूदा कोतवाल इसका जवाब देंगे क्या?