संजय राऊत -कार्यकारी संपादक
महाराष्ट्र मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया निर्णय उम्मीद की किरण दिखानेवाला है। सरकार बनाते समय शिंदे-फडणवीस द्वारा लिए गए सभी पैâसलों को अवैध घोषित करने के बाद भी सरकार सत्ता में है। लोकतंत्र की जीत हुई यह सच है, लेकिन सत्ता में बैठे लोग संविधान के शत्रु के रूप में कार्य कर रहे हैं। संविधान का क्रियान्वयन गलत हाथों में है।
सब कुछ खत्म हो रहा है इस डर से कोहराम मचे होने के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर उम्मीद की किरण दिखाई। महाराष्ट्र की असंवैधानिक सरकार देश के संविधान पर लगा एक धब्बा है। इस दाग को धोकर साफ करनेवाला फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया, लेकिन संविधान के कुछ जानकारों का कहना है कि महाराष्ट्र की सत्ताधारी पार्टी सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का सुविधानुसार अर्थ लगाकर उसे लागू करेगी। विधानसभा अध्यक्ष जिस तरह से इंटरव्यू देकर माहौल बना रहे हैं, वह सुप्रीम कोर्ट को चुनौती देनेवाला लग रहा है। ‘हमारे देश का संविधान महान है और वह वैसा ही रहेगा, लेकिन यदि संविधान को लागू करने का अधिकार गलत लोगों के हाथ में चला गया तो बहुत बड़ा नुकसान होगा,’ ऐसे विचार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने उसी समय व्यक्त किए थे। यह शायद आज के शासकों के लिए रहा होगा। आज गलत लोगों के द्वारा संविधान को लागू किए जाने से देश में भय और भ्रम का माहौल निर्माण हुआ है। महाराष्ट्र के मामले में न्यायाधीश चंद्रचूड़ की पांच सदस्यीय पीठ ने कहा, ‘उद्धव ठाकरे ने स्वेच्छा से मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। अन्यथा उन्हें फिर से उसी पद पर बहाल करना आसान हुआ होता।’ इस एक लाइन में पूरे फैसले का सार समाहित है। ठाकरे ने नैतिकता के मुद्दे पर इस्तीफा नहीं दिया होता तो वे आज फिर से मुख्यमंत्री बन गए होते। फिर भी फैसले के दिन मुख्यमंत्री शिंदे और उपमुख्यमंत्री फडणवीस मुस्कुराते हुए मीडिया के सामने आए और कहा, ‘देखिए, कोर्ट ने हमारे ही पक्ष में फैसला सुनाया। हम जीत गए!’ उस दिन शिंदे-फडणवीस एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे। पेड़े खिला रहे थे। इसका मतलब न्यायालय का निर्णय समझने के बाद भी वे पागलपन का दिखावा करके पेड़गांव जा रहे हैं। ‘सर्वोच्च न्यायालय ने १६ विधायकों को अयोग्य क्यों नहीं ठहराया?’ विधायकों का यह मामला विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर के पास क्यों भेजा? ऐसा सवाल पूछा जा रहा है। सदस्यों की अयोग्यता के बारे में पूरा निर्णय लेने का अधिकार संविधान ने विधानसभा अध्यक्ष को दिया है। सिर्फ संविधान का सम्मान करते हुए उन्हें सद्विवेक और बुद्धि से काम लेते हुए निर्णय देना है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने क्या किया ये पूछना गलत है।
सुप्रीम कोर्ट का प्रहार
अब सुप्रीम कोर्ट ने क्या किया, इसे समझ लें। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ११ सवाल थे। उसमें से दो सवाल विचार करने के लिए सात सदस्यों की खंडपीठ के पास आगे भेज दिए गए। शेष ९ मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया और यह शिंदे-फडणवीस सरकार के खिलाफ है, फिर भी शिंदे-फडणवीस कहते हैं सुप्रीम कोर्ट ने हमारी ही सरकार को वैध ठहराया है। यह भ्रमित मानसिकता के लक्षण हैं।
‘राज्यपाल का बर्ताव गैर जिम्मेदाराना व संविधान के अनुरूप नहीं था। बहुमत परीक्षण के लिए विशेष अधिवेशन बुलाने की आवश्यकता नहीं थी। राज्यपाल से गलती हुई है।’ सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल की सियासी गड़बड़ी पर ऐसी कठोर टिप्पणी की है। जहां राज्यपाल ने ही गैरकानूनी फैसला दिया, वहां उनके मार्फत शपथ लेनेवाली सरकार वैध कैसे हुई? विशेष अधिवेशन असंवैधानिक होगा तो फिर उस दिन सभागृह में हुए काम-काज को संविधान के अनुरूप कैसे माना जा सकता है? सभागृह में हुए बहुमत परीक्षण व सरकार की शपथविधि ही गैरकानूनी सिद्ध होती है!
थोड़ा ये देखें
राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी ने महाराष्ट्र में लोकतंत्र और संविधान की धज्जियां उड़ाईं, बहुमत प्राप्त कैबिनेट ने राज्यपाल द्वारा मनोनीत १२ विधान परिषद सदस्यों की सूची मंजूरी के लिए राज्यपाल के पास भेजी। राज्यपाल ने अंत तक उस पर निर्णय नहीं लिया। राज्यपाल ने विधानसभा अध्यक्ष पद का चुनाव नहीं होने दिया। यह आगे साजिश की नींव सिद्ध हुई। अब पेड़े बांटनेवालों के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ मुद्दे रखता हूं।
• विधायक दल में फूट पड़ी इसलिए वहां ‘प्रतोद’ (Whip) किसका यह मुद्दा महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। शिंदे गुट का दावा था, व्हिप की नियुक्ति यह विधानमंडल पार्टी करती है। सर्वोच्च न्यायालय ने शिंदे गुट के दावे को निरस्त कर दिया। उनके व्हिप भरत गोगावले को गैरकानूनी ठहराया और उद्धव ठाकरे द्वारा नियुक्त सुनील प्रभु के ही अधिकृत व्हिप होने की बात कही। इतना ही नहीं, तो पार्टी व्हिप व सभागृह का नेता ये दोनों नियुक्तियां राजनीतिक पार्टी करती हैं, ऐसा निष्कर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने लगाया। इसलिए विधानसभा अध्यक्ष नार्वेकर द्वारा एकनाथ शिंदे को शिवसेना विधानमंडल दल के गुट नेता के रूप में दी गई मान्यता ही गैरकानूनी सिद्ध हुई। गोगावले के साथ-साथ इसी दौरान गुटनेता पद पर से शिंदे भी उड़ गए। किस बात के लिए पेड़े बांट रहे हो।
• सर्वोच्च न्यायालय ने बेहद महत्वपूर्ण पैâसला सुनाया, जो कि चुनाव आयोग द्वारा शिवसेना पार्टी की मान्यता तय करते समय सिर्फ निर्वाचित हुए जनप्रतिनिधियों के संख्याबल को आधार के रूप में लेना योग्य नहीं है। विधानमंडल पक्ष अलग व मूल पार्टी अलग इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने मुहर लगाई। आयोग ने शिंदे गुट को शिवसेना व धनुष-बाण का चिह्न देने का ‘व्यापारी’ निर्णय लिया। इस निर्णय पर ब्रेक लगानेवाला फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने दिया। इसलिए श्री उद्धव ठाकरे ही पार्टी के प्रमुख होंगे यह सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है।
• जिन विधायकों पर अयोग्यता की कार्रवाई होनी है। उन्हें संविधान के दसवें अनुच्छेद के तीसरे परिशिष्ट के तहत संरक्षण नहीं दिया जा सकता है इसलिए अलग हुए विधायकों पर अपात्रता की कार्रवाई अटल सिद्ध होती है।
न्यायालय ने विधानसभा अध्यक्ष पर एक और बंधन डाला है। मूल शिवसेना पार्टी कौन-सी है यह निर्णय अध्यक्ष को लेना है। उसके लिए मूल पार्टी में फूट के समय अस्तित्व में रहे संविधान को ध्यान में रखना अध्यक्ष के लिए अनिवार्य होगा। किस गुट के पास विधानसभा में बहुमत है, ये परखने की आवश्यकता नहीं है। The Structure of leadership outside the legislative assembly is a consideration which is relevant to the determination of this issue ऐसा फैसले के पैरा-१६८ में न्यायालय ने कहा है। जीत का पेड़ा खानेवालों को ये समझ लेना चाहिए।
चिह्न के मालिक
चुनाव का चिह्न राजनीतिक पार्टी को दिया जाता है। किसी विधायक दल को नहीं। विधायक दल राजनीतिक पार्टी द्वारा बनाया गया होता है। इसलिए चुनाव आयोग द्वारा पार्टी व चिह्न के संदर्भ में दिया गया निर्णय गैरकानूनी सिद्ध होगा split अर्थात फुटमत को अब मान्यता नहीं है। दसवें शेड्यूल के अंतर्गत वाला यह प्रकरण अब हमेशा के लिए प्रतिबंधित हो गया है इसलिए पार्टी में फूट पड़ने के कारण विधानमंडल में बहुमत के आधार पर चिह्न हमारा है, ऐसा शिंदे गुट का दावा खत्म हो गया है। ये इतना फटका लगने के बाद भी ‘जीत हमारी ही हुई। लोकतंत्र जीता’ ऐसा बोलना व नाचना यह मजाक है। लोकतंत्र की जीत निश्चित तौर पर हुई। सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दबाव का शिकार बने बगैर निर्णय दिया और लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बचा ली इसके लिए उनका जितना अभिनंदन किया जाए उतना कम ही है।
विधानसभा अध्यक्ष!
विधायकों की अयोग्यता के संदर्भ में निर्णय विधानसभा अध्यक्ष लंबे समय तक नहीं रोक सकेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा ही निर्देश दिया है। विधानसभा अध्यक्ष नार्वेकर कहते हैं, ‘सब कुछ मेरे ही अधिकार में है। जो होगा मैं ही तय करूंगा।’ यह गलत है। सर्वोच्च न्यायालय ने ही सब कुछ तय करके भेजा है। अब कानून के दायरे में रहकर विधानसभा अध्यक्ष को निर्णय लेना होगा। लोकतंत्र को कोई जेब में रखकर नहीं घूम सकेगा। १६ विधायकों को अपात्र ठहराना होगा, यह पहली बात और शिवसेना सहित धनुष-बाण उद्धव ठाकरे के पास आएगा ये दूसरी। निर्णय ऐसा ही है। इसलिए कौन जीता? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष के पास भेजा गया निर्णय ‘ईवीएम’ का बटन दबाने की तरह बदला नहीं जा सकता है। महाराष्ट्र के सत्ता संघर्ष की सुनवाई के दौरान श्री कपिल सिब्बल ने जोरदार जिरह की। जिरह के अंत में उन्होंने कहा, ‘यह मुकदमा मैं जीतूंगा या हारूंगा इसकी चिंता मुझे नहीं है लेकिन देश में लोकतंत्र, स्वतंत्रता, संविधान शेष रहेगा क्या? यह सवाल है। मैं इसी के लिए लड़ा हूं!’
लोकतंत्र की जीत हुई है, फिर तानाशाही के चेहरे पर मुस्कान वैâसी? देश के बंधुओं को संबोधित करते हुए श्री नानी पालखीवाला ने एक मंत्र दिया था वह यहां रखता हूं और विषय को विराम देता हूं।
पालखीवाला कहते हैं,
‘मेरे देश के भाइयों, जिन्होंने खुद के लिए संविधान तैयार किया, परंतु उसे संभालने का सामर्थ्य संपादन नहीं किया,
जिन्हें तेजस्वी विरासत मिली परंतु उसका जतन करने की होशियारी प्राप्त नहीं हुई।
हमारे पास उपलब्ध क्षमता का आकलन न हो पाने के कारण जो मूकपना हम सभी भुगत रहे हैं, ऐसे देश के भाइयों के लिए यह कसौटी का काल है। संविधान के रक्षकों ने ही संविधान पर प्रहार करने की शुरुआत कर दी है, तो देश बचाने की जिम्मेदारी हम सभी पर ही है!’