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साहित्य शलाका : हिंदी भाषा और शैली के शिल्पकार, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

डॉ. दयानंद तिवारी

महावीर प्रसाद द्विवेदी इस ‘द्विवेदी युग’ के आलोचक हैं और द्विवेदी युग का नाम भी इन्हीं के नाम पर पड़ा है। इन्होंने ‘सरस्वती पत्रिका’ में कवि ‘कर्तव्य नामक’ निबंध में कवि कर्तव्य को बताया है। इसी प्रकार द्विवेदी जी रीतिकालीन नायिका भेद एवं लक्षण ग्रंथों की आलोचना करते हैं तथा नैतिकता एवं मर्यादावादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। द्विवेदी जी हिंदी भाषा स्थापित करते हैं और इसके साथ अपने अनुवाद कार्य द्वारा संस्कृत, बांगला, मराठी और उर्दू साहित्य की विभिन्न महत्वपूर्ण सामग्री पाठक तक पहुंचाते हैं।
जिस प्रकार निराला हिंदी में मुक्त छंद के समर्थक थे, उसी प्रकार द्विवेदी जी भी कविताओं को किसी विशेष छंद में बांधने के समर्थक नहीं थे। वह खुद कहते हैं ‘पद्य के नियम कवि के लिए बेड़ियों के समान हैं। कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करें।’ द्विवेदी जी कविता के भाषा को सरल रूप में प्रस्तुत करने पर बल देते हैं। वे अलंकारिक भाषा को अधिक महत्व नहीं देते। इसी प्रकार द्विवेदी जी युगबोध एवं नवीनता के पोषक आचार्य हैं। वे हिंदी के प्रथम लोकवादी आचार्य हैं। वे परंपरा की शक्ति एवं सीमा को समझकर उसके विकास में योगदान की शक्ति रखते हैं। इसी प्रकार द्विवेदी जी प्रबंध और मुक्तक में से किसी को काव्य में अधिक श्रेष्ठ नहीं बताते, बल्कि युगबोध के अनुसार, ही इनके प्रयोग पर बल दिया। किंतु इतना अवश्य है कि थोड़े रूप में ही सही व प्रबंध काव्य के समर्थक थे।
इस प्रकार द्विवेदी जी सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक आलोचना द्वारा अपने युग के लिए ही नहीं, बल्कि बाद के युग के लिए भी प्रमुख स्तंभ के रूप में सामने आते हैं। द्विवेदी जी ने इन दोषों को समझा और हिंदी गद्य को शुद्ध, व्यवस्थित तथा परिमार्जित करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने संस्कृत ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद किया और हिंदी कवियों के सामने व्याकरण सम्मत काव्य भाषा का आदर्श उपस्थित किया। उनसे पूर्व हिंदी काव्य में ब्रजभाषा का एकछत्र साम्राज्य था। द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने खड़ी बोली में काव्य रचना करने के लिए कवियों को प्रेरित किया। कविवर मैथिलीशरण गुप्त और अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ जैसे खड़ी बोली के कवियों को हिंदी में लाने का श्रेय द्विवेदी जी को ही प्राप्त है।
सन‌् १९०३ ई. में द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादन का कार्यभार संभाला। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने हिंदी साहित्य की जो सेवाएं कीं, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। इसमें द्विवेदी जी के आलोचनात्मक निबंध प्रकाशित होते थे, जिनमें उस समय के लेखकों, कवियों तथा उनकी कृतियों की कटु आलोचना होती थी। इस प्रकार उन्होंने एक ओर तो आलोचना की नींव डाली तथा दूसरी ओर कवियों और लेखकों को व्याकरण सम्मत शुद्ध हिंदी लिखने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने नवीन छंदों की ओर कवियों का ध्यान दिलाया तथा लेखकों को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य का सर्वांगीण विकास तथा भाषा का संस्कार किया। वे एक भावुक कवि, कुशल लेखक, योग्य संपादक, महान आचार्य तथा श्रेष्ठ समाज-सुधारक सब कुछ थे। अपनी बहुमुखी प्रतिभा के बल पर उन्होंने हिंदी भाषा और साहित्य का सर्वतोन्मुखी विकास किया। उन्हीं के प्रयत्नों से हिंदी में जीवनी, यात्रा वृत्तांत, कहानी, उपन्यास, समालोचना, व्याकरण कोष, अर्थशास्त्र, पुरातत्व विज्ञान, समाजशास्त्र, दर्शन तथा धर्म आदि विविध विषयों का समावेश हुआ। आपकी विलक्षण योग्यता, कार्यकुशलता और साहित्य सेवाओं से प्रसन्‍न होकर आपको नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘आचार्य’ की पदवी से तथा हिंदी साहित्य सम्मेलन ने ‘विद्या वाचस्पति’ की पदवी से विभूषित किया था।
द्विवेदी जी की भाषा- द्विवेदी जी ने सरल प्रचलित खड़ी बोली में साहित्य रचना की है। संस्कृत, अरबी, फारसी के आम बोलचाल के शब्दों का प्रयोग करने में उन्होंने संकोच नहीं किया। उनकी वाक्य रचना सर्वथा हिंदी के व्याकरण तथा प्रकृति के अनुकूल है। उर्दू की कलाबाजियों तथा संस्कृत के लंबे-लंबे समासों दोनों से ही आपकी भाषा मुक्त है। द्विवेदी जी महान‌ शैली निर्माता थे। उनकी शैली में उनका व्यक्तित्व झलकता है। द्विवेदी जी के विषय में जगन्नाथ शर्मा का निम्नलिखित कथन ध्यान देने योग्य है-
‘साधारणतया विषय के अनुसार भाव व्यंजना में दुरूहता आ ही जाती है, परंतु द्विवेदी जी की लेखन कुशलता एवं भावों का स्पष्टीकरण एकदम स्वच्छ तथा बोधगम्य होने के कारण सभी कुछ सुलझी हुई लड़ियों की भांति पृथक दिखाई पड़ता है।’
विषय के अनुसार इनकी शैली के भी तीन मुख्य रूप हैं-
परिचयात्मक शैली- द्विवेदी जी ने शिक्षा और समाजशास्त्र आदि विषयों पर अनेक निबंधों की रचना की है। इन निबंधों में परिचयात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। इस शैली में भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाक्य छोटे-छोटे हैं। यह द्विवेदी जी की सरलतम शैली है।
आलोचनात्मक शैली- द्विवेदी जी ने मनमाने ढंग से लिखनेवाले कवि-लेखकों तथा उनकी कृतियों की कटु आलोचना की है। उनके आलोचनात्मक निबंधों की भाषा गंभीर और संयत है तथा शैली ओजपूर्ण है। यह शैली अति सरल, सुगम और व्यावहारिक है।
गवेषणात्मक शैली- यह द्विवेदी जी की विशेष शैली है। वे जब किसी गंभीर विषय को भी साधारण लोगों को समझाने के लिए लिखते हैं तो अति सरल भाषा और छोटे-छोटे वाक्‍यों का प्रयोग करते हैं। जब विद्वानों के लिए कोई बात लिखते हैं तो भाषा गंभीर और शुद्ध हिंदी होती है। वाक्य भी अपेक्षाकृत लंबे हो जाते हैं। ‘साहित्य की महत्ता’ निबंध से इस शैली का एक उदाहरण प्रस्तुत है-
‘ज्ञानराशि के संचित कोष का ही नाम साहित्य है। सब तरह के भावों को प्रकट करने की योग्यता रखनेवाली और निर्दोष होने पर भी यदि कोई भाषा अपना निज का साहित्य नहीं रखती है तो वह रूपवती भिखारिन के समान कदापि आदरणीय नहीं हो सकती।’
इन तीनों प्रकार की शैलियों के अतिरिक्त भावात्मक तथा व्यंग्यात्मक शैलियों का प्रयोग भी द्विवेदी जी के निबंधों में पाया जाता है। इनकी भावात्मक शैली में विचारों की सरस अभिव्यक्ति, अलंकृत तथा कोमलकांत पदावली का प्रयोग देखने को मिलता है। व्यंग्यात्मक शैली में शब्दों का चुलबुलापन तथा वाक्यों में सरलता पाई जाती है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
‘अच्छा, हंस रहते कहां हैं और खाते क्या हैं? हंस बहुत करके इसी देश में पाए जाते हैं। उनका सबसे प्रिय स्थान मानसरोवर है… यदि हंस दूध पीते हैं तो उनको मिलता कहां है? मानसरोवर में उन्होंने गायें या भैंसें तो पाल नहीं रखीं और न हिंदुस्थान के किसी तालाब या नदी में उनके दूध पीने की संभावना है।’
इस तरह हम देखते हैं कि द्विवेदी जी एक महान शैलीकार थे। उनकी शैली में उनका व्यक्तित्व झलकता है। गद्य की शैली तथा भाषा का परिमार्जन कर उन्होंने एक युग निर्माता का कार्य किया था।
(लेखक श्री जेजेटी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर व सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् और साहित्यकार हैं।)

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