मुख्यपृष्ठस्तंभसाहित्य शलाका : सर्वधर्म समभाव के पुरोधा-राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज

साहित्य शलाका : सर्वधर्म समभाव के पुरोधा-राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज

 डॉ. दयानंद तिवारी
राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज का जन्म ३० अप्रैल १९०९ को महाराष्ट्र के अमरावती जनपद के यावली नामक गांव के एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ था। इन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा यावली और वरखेड में पूरी की। अपने प्रारंभिक जीवन में ही उनका संपर्क बहुत सारे महान संतों के साथ हो गया था। समर्थ आडकोजी महाराज ने उनके ऊपर अपने स्नेह की वर्षा की और उन्हें योग शक्तियों से विभूषित किया।
१९३५ में तुकडोजी ने सालबर्डी की पहाड़ियों पर महारूद्र यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें तीन लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया। इस यज्ञ के बाद उनकी ख्याति दूर-दूर तक पैâल गई और वे महाराष्ट्र के अलावा पूरे मध्य प्रदेश में सम्माननीय हो गए। १९३६ में महात्मा गांधी द्वारा सेवाग्राम आश्रम में उन्हें निमंत्रित किया गया, जहां वह लगभग एक महीने रहे। उसके बाद तुकडोजी ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यक्रमों द्वारा समाज में जन जागृति का काम प्रारंभ कर दिया, जो १९४२ के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में परिलक्षित हुआ। राष्ट्रसंत तुकडोजी के ही आह्वान का परिणाम था आष्टि-चिमूर स्वतंत्रता संग्राम। इसके चलते अंग्रेजों द्वारा उन्हें चंद्रपुर में गिरफ्तार कर नागपुर और फिर रायपुर के जेल में १०० दिनों (२८ अगस्त से ०२ दिसंबर १९४२ तक) के लिए भेज दिया गया।
१९५६ में राष्ट्रसंत तुकडोजी द्वारा भारत साधु समाज का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न संपद्रायों, पंथों और धार्मिक संस्थाओं के प्रमुखों की सक्रिय सहभागिता देखने को मिली। यह स्वतंत्र भारत का पहला संत संगठन था और इसके प्रथम अध्यक्ष तुकडोजी महाराज थे। १९५६ से १९६० की कालावधि के दौरान उन्हें विभिन्न सम्मेलनों को संबोधित या संचालित करने के लिए निमंत्रित किया गया। उनमें से कुछ सम्मेलन हैं-भारत सेवक समाज सम्मेलन, हरिजन सम्मेलन, विदर्भ साक्षरता सम्मेलन, अखिल भारतीय वेदांत सम्मेलन, आयुर्वेद सम्मेलन इत्यादि। वह विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक उपाध्यक्षों में से एक थे। उनके द्वारा राष्ट्रीय विषय के कई सारे मोर्चों जैसे- बंगाल का भीषण अकाल (१९४५), चीन से युद्ध (१९६२) और पाकिस्तान आक्रमण (१९६५) पर अपनी भूमिका का निर्वाह तत्परता से किया गया। कोयना भूकंप त्रासदी (१९६२) के समय राष्ट्रसंत ने प्रभावित लोगों की त्वरित सहायता के लिए अपना मिशन चलाया और बहुत सारे संरचनात्मक राहत कार्यों को आयोजित किया। उनका साहित्यिक योगदान बहुत अधिक और उच्च श्रेणी का है। उन्होंने हिंदी और मराठी दोनों ही भाषाओं में तीन हजार भजन, दो हजार अभंग, पांच हजार ओवीस के अलावा धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा पर छह सौ से अधिक लेख लिखे। राष्ट्रसंत तुकडोजी एक स्वयं द्वारा जगमगाता तारा और एक गतिशील नेता थे। वह कई सारी कलाओं और कौशलों के ज्ञाता थे। आध्यात्मिक क्षेत्र में वह एक महान योगी के रूप में जाने जाते थे, तो सांस्कृतिक क्षेत्र में उनकी प्रसिद्धि एक ओजस्वी वक्ता और संगीतज्ञ के रूप में थी। उनका व्यक्तित्व अतुलनीय और अद्वितीय था। उनके व्यक्तित्व के बहुत सारे पहलू थे एवं उनकी शिक्षाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अत्यंत उपयोगी हैं।
अंतिम दिनों में राष्ट्रसंत तुकोडजी को वैंâसर हो गया था। उस घातक बीमारी का इलाज करने के हरसंभव उपाय किए गए, परंतु कोई प्रयास सफल न हुआ। अंत में, ११ अक्टूबर १९६८ को सायं ४.५८ बजे गुरूकुंज आश्रम में राष्ट्रसंत अपने नश्वर शरीर का त्याग कर ब्रह्मलीन हो गए। उनकी महासमाधि गुरूकुंज आश्रम के ठीक सामने स्थित है, जो सभी लोगों को कर्तव्य और निस्वार्थ भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान करती है। कल्याणकारी चहुंमुखी विकास के लिए परम पूजनीय राष्ट्रसंत तुकोडजी महाराज की शिक्षा का अनुपालन कर हमें अपने जीवन और चरित्र का निर्माण करना चाहिए। ग्रामगीता, तुकडोजी महाराज द्वारा मराठी भाषा में रचित एक महाकाव्य है, जिसमें भारतीय ग्राम्य जीवन के विविध पक्षों का चित्रण है। यह काव्य ग्रामीण समुदाय के विकास के लिए एक आदर्श संदर्भ ग्रंथ माना जाता है।
तुकडोजी महाराज जानते थे कि भारत गांवों में बसता है, अत: उसको वह स्वर्ग बनाना चाहते थे। ऋग्वेद का ‘विश्वपुष्टे ग्रामे अस्मिन्ननातुराम’ को उन्होंने प्रेरणा ही मान लिया था। उन्होंने ईश्वर का स्मरण करते हुए लिखा है कि- –
हर देश में तू …
हर देश में तू, हर भेष में तू, तेरे नाम अनेक तू एक ही है।
तेरी रंगभूमि यह विश्वभरा, सब खेल में, मेल में तु ही तो है
सागर से उठा बादल बनके, बादल से फटा जल हो कर के।
फिर नहर बनी नदियां गहरी, तेरे भिन्न प्रकार तू एकही है
चींटी से भी अणु-परमाणुबना,सब जीव जगत का रूप लिया।
कहीं पर्वत वृक्ष विशाल बना, सौंदर्य तेरा,तू एकही है
यह दिव्य दिखाया है जिसने, वह है गुरुदेव की पूर्ण दया।
तुकड्या कहे कोई न और दिखा, बस! मैं और तू सब एकही है
राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज महाराष्ट्र के एक आधुनिक संत, कवि और समाज सुधारक हैं। तुकडोजी महाराज का पूरा नाम माणिक बंदोजी इंगले था। उन्होंने अंधविश्वास और जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए भजन और कीर्तन का प्रभावी ढंग से इस्तेमाल किया। तुकडोजी महाराज आधुनिक समय के महान संत थे। आडकोजी महाराज उनके गुरु थे। उन्होंने अपना मूल नाम माणिक अपने गुरु अदकोजी महाराज से बदलकर तुकडोजी कर दिया। न केवल महाराष्ट्र में बल्कि पूरे देश में आध्यात्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय एकता का संदेश पैâला रहे थे। इतना ही नहीं उन्होंने जापान जैसे देश में जाकर सभी को सर्वदेशीयता का संदेश दिया। १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें कुछ समय के लिए गिरफ्तार किया गया था। आते हैं `नाथ हमारे’ वह पद था जिसकी रचना उन्होंने इस अवधि के दौरान की थी, जो स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक प्रेरणा थी। अपने प्रभावी खंजीरी भजन के माध्यम से अपने जीवन की अंतिम सांस तक, उन्होंने अपनी इच्छित विचारधारा का प्रचार-प्रसार करते हुए आध्यात्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जागरण किया।
गुरु सारिखे दैवत। नाही नाही त्रिभुवनात।।
ब्रह्मा रुद्र विष्णु देव। करिती गुरु भक्ति सर्व
कृष्ण संदीपाना घरी। मोळी वाहतसे शिरी।
तुकड्या म्हणे नवल काय। जेणे दावियेली सोय
इस तरह संत तुकडोजी के पास स्वानुभूत दृष्टि थी और उन्होंने अपने पूरे जीवन में हृदय की पवित्रता और किसी के लिए भी मन में द्वेषभाव न रखने का पाठ पढ़ाया। अपने प्रारंभिक जीवन में वह प्राय: भक्तिपूर्ण गीतों को गाते थे, हालांकि बीतते समय के साथ-साथ उन्होंने समाज को यह बतलाया कि भगवान केवल मंदिर, चर्च या मस्जिद में नहीं रहता; अपितु वह तो हर जगह व्याप्त है। उसकी (भगवान की) शक्ति असीम है।

(लेखक श्री जेजेटी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर व सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् और साहित्यकार हैं।)

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