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साहित्य शलाका : सनातन धर्म के रक्षक … धर्म सम्राट स्वामी करपात्रीजी महाराज

डाॅ. दयानंद तिवारी

अंधकार में पड़ी हुई मानव जाति को प्रकाश में लाने के लिए संत वचन अथवा उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग कभी न बुझनेवाली आमोद दिव्य ज्योति है। दुख, संकट और पाप-ताप से प्रताड़ित प्राणियों के लिए संतों के संस्मरण सुख-शांति के अगाध गंभीर और आकाश समुद्र हैं। मानवता में आई हुई दानवता का दलन करके मानव को मानव ही नहीं महामानव बनाने हेतु संतों के विचार, देवी शक्ति संपन्न संचालक और आचार्य होते हैं। किंबहुता दिव्य शक्ति और भोग कामना के परिणाम स्वरूप नित्य निरंतर अशांति की अग्नि में जलती हुई जीवों को विशुद्ध भगवत अनुरागी और भगवत कामी बनाकर उन्हें भगवत मिलन के लिए नियुक्त कर प्रेमानंद रस सुधासागर सच्चिदानंद विग्रह परमआनंदम विश्वमोहन भगवान की अनंत सौंदर्य माधुर्यमयी परम मधुर तम मुखच्छवि का दर्शन कराने हेतु संतों के संस्मरण अथवा उनके विचार भगवान के नित्यसंगी प्रेमी पार्षद हैं। इसीलिए साहित्य शलाका में हमने संतों के चरित्र और उनके द्वारा मानवता के लिए दिए गए विचारों को स्थान दिया है, जिसका पूरे विश्व में स्वागत भी हुआ है।
संतों के चरित्र कीर्तन अथवा संतवाणी से क्या नहीं हो सकता? संतवाणी मानव हृदय को तमोभिभूत, अवनत और पतित परिस्थिति से उठाकर अनायास ही अत्यंत समुन्नत और समुजवल्ल कर देती है।
धर्म सम्राट स्वामी हरिहरानंद सरस्वती (१९०७-१९८०), जिन्हें लोकप्रिय रूप से स्वामी करपात्री के नाम से जाना जाता है (तथाकथित क्योंकि वे केवल वही खाते थे जो उनकी हथेली `कारा’ में आता था, कटोरे `पात्र’ के रूप में), हर नारायण ओझा के रूप में एक सरयूपरीन में पैदा हुए थे। भारत के उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में भटनी नामक गांव के ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। वह हिंदू दशनामी मठवासी परंपरा में एक संन्यासी थे।
यह धर्म हिंदू धर्म के लिए जाना जाता है। उन्होंने संपूर्ण हिंदुस्थान में पैदल यात्राएं करते हुए धर्म प्रचार के लिए सन १९४० ई़ में `अखिल भारतीए धर्म संघ’ की स्थापना की। धर्मसंघ का दायरा संकुचित नहीं, अत्यंत विशाल है। वह आज भी प्राणी मात्र में सुख-शांति के लिए प्रयत्नशील है। संघ की दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर भगवान के अंश हैं या उसके ही रूप हैं। संघ का मानना है कि यदि मनुष्य स्वयं शांत और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शांत और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिए धर्म संघ के हर कार्य के आरंभ और अंत में `धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो’, ऐसे पवित्र जयकारे किए जाते हैं। इसमें अधार्मिकों के नाश के बजाय अधर्म के नाश की कामना की गई है।
हिंदू वर्ण व्यवस्था के संबंध में स्वामी करपात्री का विचार था कि कर्मणा वर्ण मानने पर दिनभर में ही अनेक बार वर्ण बदलते रहेंगे। फिर व्यवस्था क्या होगी? अत: उपनयन, वेदाध्ययन, अग्निहोत्र आदि कर्म का अनुष्ठान, भोजन, विवाह आदि सभी सांस्कृतिक कर्म जन्मना ब्राह्मण आदि के आपस में ही हो सकते हैं। जन्मना ब्राह्मण और कर्मणा मुसलमान ब्राह्मण आदमी का भोजन, विवाह, आदि संबंध शास्त्र विरुद्ध है। इसी तरह जन्मना वर्णों से भिन्न लोगों का उपनयन, अग्निहोत्र आदि कर्मों का अधिकार सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है। दुस्त्यज दुर्व्यसन एवं पाशविकी चेष्टाओं को दूर करने के लिए दुस्त्यज धर्मनिष्ठा की अपेक्षा होती है और फिर उस दुस्त्यज धर्मनिष्ठा के त्याग के लिए दुस्त्यज ब्रह्मनिष्ठा या भगवद् अनुराग की अपेक्षा होती है। उन्होंने वाराणसी की खोई हुई परंपराओं को पुनर्जीवित किया। स्वामी करपात्री के नेतृत्व में धर्म संघ ने १९४६ के दंगों के नोआखली पीड़ितों की मदद की और उन्हें भूमि, भोजन और वित्तीय सहायता प्रदान की। उन्होंने जबरन मुसलमान बनाए गए हिंदुओं का फिर से धर्मांतरण कराया और उन्हें राम-नाम की दीक्षा दी। वे और उनका समूह स्वतंत्र भारत में जेल जानेवाले पहले व्यक्ति थे। आजादी से पहले ही उन्होंने वर्ष १९४७ में अप्रैल के महीने से विरोध और सभाएं शुरू कर दी थीं। १४ अगस्त १९४७ की रात को धर्म संघ के सदस्य `भारत अखंड हो’ के नारे लगा रहे थे, उन सभी को जेल में डाल दिया गया। वे ज्योतिर मठ के स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती के शिष्य थे। उन्होंने अपना अधिकांश जीवन वाराणसी में बिताया।
धर्मसंघ के अलावा, १९४८ में, स्वामी करपात्री ने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद की स्थापना की, एक परंपरावादी हिंदू पार्टी। उन्होंने हिंदू कोड बिल के खिलाफ एक आंदोलन का नेतृत्व किया। वह १९६६ के गोवध विरोधी आंदोलन में भी एक प्रमुख आंदोलनकारी थे। १८ अप्रैल १९४८ को उन्होंने सन्मार्ग समाचार पत्र की स्थापना की, जिसने सनातन धर्म को बढ़ावा दिया और हिंदू कोड बिल के खिलाफ भी वकालत की और गोहत्या पर विरोध जताया। स्वामी करपात्री ने हिंदू कानूनों और शास्त्रों के संबंध में कोई समझौता नीति नहीं रखी। उन्हें जनता द्वारा धर्मसम्राट कहा जाता था।
इसी संदर्भ में, जब काशी के विद्वत्परिषद् ने भागवत्पुराण के नवम् दशम् स्कंध को अश्लील एवं क्षेपक कहकर निकालने का निर्णय कर लिया तब करपात्री जी ने पूरे दो माह पर्यन्त भागवत की अद्भुत व्याख्या प्रस्तुत कर सिद्ध कर दिया कि वह तो भागवत की आत्मा ही है, हां जब कुछ वैष्णवों ने करपात्री जी के लिए अपने ग्रंथों में कटु शब्दों का प्रयोग किए तब उनके शास्त्रार्थ महारथी शिष्यों ने उसका उसी भाषा में उत्तर दिया। इससे उन्हें वैष्णव विरोधी समझने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए।
१९६५ में स्वामी करपात्री और माधवाचार्य श्री विद्यामन्य तीर्थ के बीच एक और बहस हुई। श्री विद्यामन्य ने लोगों को अद्वैत सिद्धांत का बचाव करने की चुनौती दी। स्वामी करपात्री ने चुनौती स्वीकार की, २ दिन तक बहस चली। अंत में मध्यस्थ `श्री भगवतानंद’ ने स्वामी करपात्री जी को विजयी घोषित किया। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की है, जिनमें प्रमुख रुप से निम्न ग्रंथ बहुत ही चर्चित ग्रंथ हैं।
मार्क्सवाद और रामराज्य : मार्क्सवाद, नारीवाद आदि जैसी आधुनिक विचारधाराओं की आलोचना। विचार पीयूष : स्वामी करपात्री के विचारों का सारांश। भक्ति सुधा : स्वामी करपात्री द्वारा भक्ति के महत्व पर लिखे गए विभिन्न लेखों का संकलन। भागवत सुधा : श्रीमद्भागवत पुराण के सार की व्याख्या। श्री राधा सुधा : राधा सुधा निधि पर स्वामी करपात्री के भाषणों का एक रिकॉर्ड। भक्ति रसर्णव : भक्ति पर एक अनूठी रचना। पिबता भगवत रसमालय : श्रीमद्भागवत पुराण के रस से संबंधित एक पुस्तक। काल मीमांसा : पौराणिक और अन्य हिंदू महाकाव्य साहित्य के संदर्भ में कालक्रम से संबंधित कार्य। क्या संबंध से समाधि : ओशो की समाधि की व्याख्या का एक सरल खंडन। पूंजीवाद, समाजवाद और रामराज्य : इन विचारधाराओं पर ओशो की उथली समझ का खंडन।
रामायण मीमांसा : हिंदू महाकाव्य रामायण के व्यवस्थित विश्लेषण के साथ एक पुस्तक। वेद का स्वरूप और प्रमाण : वेदों का ज्ञानशास्त्रीय महत्व और संरचना।

(लेखक श्री जेजेटी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर व सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् और साहित्यकार हैं।)

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